जो दिल कहे
‘हे भारत! उठो जागो’
नव वर्ष के प्रथम अंक में आप सबका ध्यान स्वामी विवेकानंद के उस आहवान की तरफ खींचना चाहूंगा जो वर्षों पहले उन्होंने भारतवासियों को किया था। वह आज पहले से अधिक सार्थक दिखाई दे रहा है। स्वामी जी ने कहा था ‘हे भारत! उठो जागो’ “वही प्राचीन भूमि है, जहां दूसरे देशों को जाने से पहले तत्त्वज्ञान ने आकर अपनी वासभूमि बनाई थी। यह वही भारत है, जहां के आध्यात्मिक प्रवाह का स्थूल प्रतिरूप उसके बहने वाले समुद्राकार नद हैं, जहां चिरंतन हिमालय श्रेणीबद्ध उठा हुआ अपने हिमशिखरों द्वारा मानो स्वर्ग राज्य के रहस्यों की ओर निहार रहा है। यह वही भारत है, जिसकी भूमि पर संसार के सर्वश्रेष्ठ ऋषियों की चरण-रज पड़ चुकी है। यहीं सबसे पहले मनुष्य, प्रकृति तथा अंतर्जगत् के रहस्योद्घाटन की जिज्ञासाओं के अंकुर उगे थे। आत्मा का अमरत्व, अंतर्यामी ईश्वर एवं जगतप्रपंच तथा मनुष्य के भीतर सर्वव्यापी परमात्मा-विषयक अनेकानेक मतवादों का पहले-पहल यहीं उद्भाव हुआ था और यहीं धर्म व दर्शन के आदर्शों ने अपनी चरम उन्नति प्राप्त की थी।
यह वही भूमि है, जहां से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म तथा दार्शनिक तत्त्वों ने समग्र संसार को बार-बार प्लावित कर दिया और यही भूमि है, जहां से पुनः ऐसी ही तरंगें उठकर निस्तेज जातियों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। यह वही भारत है, जो शताब्दियों के आघात, विदेशियों के शत-शत आक्रमण और सैकड़ों आचार-व्यवहारों के विपर्यय सहकर भी अक्षय बना हुआ है। यह वही भारत है, जो अपने अविनाशी वीर्य और जीवन के साथ अब तक पर्वत से भी दृढ़तर भाव से खड़ा है। आत्मा जैसे अनादि, अनंत और अमृत-स्वरूप है, वैसा ही हमारी भारतभूमि का जीवन है और हम इसी देश की संतान हैं।
भारत की संतानों। तुमसे आज मैं यहां कुछ व्यावहारिक बातें कहूंगा। कितनी ही बार मुझसे कहा गया है कि अतीत की ओर नजर डालने से सिर्फ मन की अवनति ही होती है और इससे कोई फल प्राप्त नहीं होता। अत: हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए। यह सच है परंतु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है। अत: जहां तक हो सके, अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरंतन निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पीओ और उसके बाद सामने देखो तथा भारत को उज्वलतर, महत्तर और पहले से और भी ऊंचा उठाओ।
हमारे पूर्वज महान् थे, पहले यह बात हमें याद करनी होगी। हमें समझना होगा कि हम किन उपादानों से बने हैं, कौन सा खून हमारी नसों में बह रहा है। उस खून पर हमें विश्वास करना होगा और उसके अतीत के उसके कृतित्व पर भी। इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा। अवश्य ही यहां बीच-बीच में दुर्दशा और अवनति के युग भी रहे हैं, पर उनको मैं अधिक महत्त्व नहीं देता। हम सभी उसके विषय में जानते हैं। ऐसे युगांतर का होना आवश्यक था। किसी विशाल वृक्ष से एक सुंदर पका हुआ फल पैदा हुआ। फल जमीन पर गिरा, मुरझाया और सड़ा। इस विनाश से जो अंकुर उगा, संभव है, वह पहले के वृक्ष से बड़ा हो जाए। अवनति के जिस युग के भीतर से हमें गुजरना पड़ा, वे सभी आवश्यक थे, इसी अवनित के भीतर से भविष्य का भारत आ रहा है। उस अंकुरित विशालकाय ऊधर्वमल वक्ष का निकलना शुरू हो चुका है।… हे भाइयों! हम सभी लोगों को इस समय कठिन परिश्रम करना होगा। अब सोने का समय नहीं है। हमारे कार्यों पर भारत का भविष्य निर्भर है। यह देखो, भारतमाता धीरे-धीरे आंख खोल रही है। वह कुछ ही देर सोई थी। उठो, उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमंडित करके भक्ति-भाव से उसे उसके चिरंतन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो! यथार्थ ईश्वर-ज्ञान केवल भारत में ही हुआ था, अन्य किसी जाति को प्रकृत ईश्वर-तत्त्व प्राप्त नहीं हुआ था। शायद तुम लोगों को मेरी इस बात पर आश्चर्य होता हो, किंतु किसी दूसरे शास्त्र से प्रकृत ईश्वर-तत्त्व ढूंढ तो निकालो, जरा मैं भी देखूं! अन्यान्य जातियों के एक-एक जातीय ईश्वर या देवता है, जैसे यहूदियों के ईश्वर, अरबवालों के ईश्वर इत्यादि और ये ईश्वर दूसरी जातियों के ईश्वर के साथ लड़ाई-झगड़ा किया करते हैं। किंतु यह तत्त्व कि ईश्वर परम दयालु हैं, वे अपने पिता, माता, मित्र, प्राणों के प्राण और आत्मा की अंतरात्मा हैं, केवल भारत ही जानता था।
अंत मैं जो शैवों के लिए शिव, वैष्णवों के लिए विष्णु, कर्मियों के लिए कर्म, बौद्धों के लिए बुद्ध, जैनों के लिए जिन, ईसाइयों और यहूदियों के लिए जिहोवा, मुसलमानों के लिए अल्लाह और वेदांतियों के लिए ब्रह्म हैं-जो सब धर्मों, सब संप्रदायों के प्रभु हैं, जिनकी संपूर्ण महिमा केवल भारत ही जानता है, वे ही सर्वव्यापी, दयामय प्रभु हम लोगों को आशीर्वाद दें, हमारी सहायता करें, हमें शक्ति दें, जिससे हम अपने उद्देश्य को कार्यरूप में परिणत कर सकें।
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि सारे अनर्थो की जड़ है हमारी गरीबी। वे दरिद्र लोगों के दु:खों से द्रवित और दलित वर्ग के प्रति किए जाने वाले अन्याय से व्यथित थे। उनके मन में उन्हें अन्याय और अत्याचार से मुक्त कराने की अदम्य भावना भरी हुई थी। उन्होंने कहा था- भारत के दरिद्र लोगों के प्रति हमारे जो भाव हैं, उनका ख्याल आते ही मेरा हृदय असीम वेदना से कराह उठता है। उन्हें कोई अवसर नहीं मिला, न सम्मान से जीने का और न ऊपर उठने का। अत: समाज के दीन-हीन लोगों के प्रति हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य है उन्हें शिक्षा देना और यह बताना कि प्रयत्न करने पर तुम भी उन्नति कर सकते हो। हमारा राष्ट्र, जो झोंपड़ियों में निवास करता है, वह अपना पौरुष खो बैठा है और व्यक्तित्व भूल चुका है। हमें उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व फिर से प्रदान करने का प्रयास करना होगा। वे तो ईश्वर-भक्ति और धर्म-साधना से भी बड़ा काम गरीबों की गरीबी दूर करने को मानते थे। इसीलिए तो वे अक्सर कहा करते थे, हे मेरे भाई, ईश्वर को कहां ढूंढने चले हो-ये सब गरीब, दु:खी और निर्बल क्या ईश्वर नहीं है? इन्हीं की पूजा करो।’
उन्होंने तो मातृदेवो भव, पितृदेवो भव की तर्ज पर “दरिद्र देवो भव” का मंत्र देकर ‘दरिद्र नारायण’ की एक नई संकत्पना ही प्रस्तुत कर कहा था कि दरिद्रों की सेवा साक्षात् नारायण की ही सेवा है। वे जोर देकर कहा करते थे कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था तब तक अर्थहीन है जब तक वह जनता के भरण-पोषण के प्रश्न को हल नहीं करती। किसी भी राष्ट्र का विकास तभी संभव है, जब उसके नागरिक सुखी व संपन्न हों।’ भारत में परिवर्तन का दौर चल रहा है। उतार और चढ़ाव के दौरान में वैचारिक टकराव भी चल रहा है और तनाव भी, ऐसे में भारत के प्रति जब जन साधारण अपने कर्त्तव्य को समझ लेगा तब हम अपने सब मन-मुटाव छोड़कर भारत के वर्तमान और भविष्य के लिए कर्म करेंगे तब भारत विश्व स्तर पर उभरेगा और अपने ज्ञान से विश्व को रोशन करेगा।
सब सुखी हों, सब निरोगी हों, सब कल्याण का साक्षात्कार करें, दु:ख का अंश किसी को भी प्राप्त न हो। इसी कामना के साथ आप सबको नववर्ष की शुभकामनाएं।
– नीरज कृष्ण