हिन्दी-ग़ज़ल के कैनवस पर अनमोल संवेदनाओं के चितेरे: के. पी. अनमोल
– राकेश कुमार
जैसा कि आज के दौर की हिंदी ग़ज़ल के एक प्रमुख हस्ताक्षर- कुलदीप सलिल ने अपने प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह ‘आवाज़ का रिश्ता’ की भूमिका में स्वीकारा है: “ग़ज़ल लिखना शायद सबसे आसान काम भी है और सबसे मुश्किल काम भी। आसान तब यदि कवि का काम केवल काफ़िया-पैमाई करना है और मुश्किल तब, यदि वह हर शेर में कोई बात पैदा करना चाहता है, यदि वह चाहता है कि शेर व्यक्ति और समाज, जीवन और जगत के किसी अनछुए-अनचीन्हे पहलू को उजागर करे या कुछ नया न भी कहे तो बात ऐसे कहे कि वो नई-नई सी लगे।”
हाँ, यह सच है कि शायरी में चंद अल्फ़ाज़ों के ज़रिए असरदार तरीके से बात कहने की ताक़त होती है; लेकिन सच यह भी है कि शेर कह सकना और शायरी में असर पैदा करना, ये दोनों निहायत ही अलहदा बातें हैं। कई बार होता है कि बात बहुत पते की होती है, पर वह शेरो-शायरी में उतर नहीं पाती। दूसरी तरफ बहुत बार यूँ भी होता है कि शेर कहने का शऊर तो होता है, पर बात दिल तक नहीं पहुंचती।
कहने का तात्पर्य यह कि आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल का परिदृश्य यूँ तो आज शौक़िया ग़ज़लनिगारों की महा-वृहत भीड़ से अंटा-पड़ा है, लेकिन उसमें गिने-चुने ही ऐसे हैं, जिन्हें ‘जेन्युइन’ (genuine) ग़ज़लगो कहा जा सके।
के.पी. अनमोल उन्हीं मुठ्ठी-भर ‘जेन्युइन ग़ज़लनिगारों’ में से एक हैं; चाहे आप ग़ज़ल नामक इस विधा के शिल्प, कल्पनाधर्मिता अथवा भावोत्पादकता के किसी भी पैमाने पर उन्हें आंकें। कहना न होगा कि न सिर्फ चुनी गई विधा के प्रति, बल्कि अपने स्वयं के बौद्धिक व कलात्मक गुणावगुणों और अपने वैयक्तिक रूझानों के प्रति सत्यनिष्ठा का भाव ही किसी कवि को यथार्थत: प्रामाणिक अथवा जेन्युइन बनाता है और जेन्यूइन होना ही किसी रचनाकार को महानता के शिखर की ओर ले जाने वाली पहली और सबसे निर्णायक सीढ़ी है।
इस सिलसिले में आधुनिक हिंदी ग़ज़ल के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक ज्ञानप्रकाश विवेक ने अनमोल के बारे में जो लिखा है, वह अनमोल के कृतित्व के मूल्यांकन की दृष्टि से एक परमावश्यक दस्तावेज है और इसलिए अत्यंत ध्यातव्य है। देखें क्या कहा है हिंदी के इस एक महती ग़ज़लगो ने दूसरे महत्वपूर्ण ग़ज़लगो के बारे में, “अनमोल नए समय के यथार्थ में ज़रूरी हस्तक्षेप पैदा करते हैं। यथार्थ की आँखों में आँखें गड़ाकर देखना और उसे ग़ज़ल के ज़रिए व्यक्त करना, जिस तज़ुर्बे और हौसले की माँग करता है, वो उनके पास है। उनके पास आधुनिक बोध है, जिससे वो अनुभूत किए गए समय और सत्य की विसंगतियों को नए लबो-लहज़े में व्यक्त करते हैं।………ज़ाहिर है, के. पी. अनमोल एक बेचैन युवा ग़ज़लकार हैं, जो ग़ज़ल की दुनिया में सिर्फ़ मीनाकारी के लिए प्रविष्ठ नहीं हुए बल्कि नई वैचारिक तबो-ताब लेकर आए हैं।………वे नए समय के यथार्थ को प्रखर दृष्टि से देखते-परखते हैं। शेर कहते हुए वो एक वातावरण रचते हैं। यह ग़ज़ल का वातावरण सरगर्मी से भरपूर, जीवंत और चेतना संपन्न होता है।”
ज्ञानप्रकाश विवेक की इस टिप्पणी के आगे मैं बस यही जोड़ना चाहूँगा कि अनमोल की रचनाओं से होकर गुज़रते हुए मैंने वरिष्ठ ग़ज़लगो ज्ञानप्रकाश विवेक की इस संक्षिप्त मगर सारगर्भित समीक्षा में अंकित प्रत्येक छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े तथ्यों व सत्यों को बारम्बार सत्यापित तथा स्वतः-सिद्ध होता हुआ पाया है।
कोई भी ‘जेन्युइन काव्य-रचना’ और ग़ज़ल भी इसका कोई अपवाद नहीं- चैतन्य के तत्व से पूर्ण-रूपेण सिक्त होती है क्योंकि जिस काव्य में चैतन्य नहीं है- अर्थात जो वाचक अथवा पाठक के लिए केवल क्षणिक औत्सुक्य का सबब भर होती है और उसे किन्हीं अनुभवों या संवेदनाओं की गहराई में पहुँचाकर उद्वेलित नहीं करती अथवा उसके हृदय में चेतना की घनता उत्पन्न नहीं करती, वह स्थायी-काव्य नहीं है। और चेतना के इसी धरातल पर जेन्युइन और शौक़िया कवियों के मध्य का वैचारिक व कलात्मक अंतराल स्पष्ट हो जाता है।
एक दु:खद तथ्य, जो थोड़ी-सी भी पड़ताल करने पर किसी भी सतर्क पाठक को सहज ही नज़र आ जाएगा, यह है कि हिंदी काव्य की सरज़मीं पर आज ग़ज़लगोई का सैलाब उमड़ा पड़ा है; मगर चन्द अपवादों को छोड़कर वहाँ महज़ नौसिखियेपन की ही बहार है। सिर्फ ऐसे लोगों की जमात का भारी शोर-शराबा पैदा करने वाला उद्यम और उपक्रम है, जो ग़ज़ल की दुनिया में मानो महज़ मीनाकारी की नियत से या सिर्फ ग़ज़ल-नामक इस विधा की शिल्पगत-सरलता के दोहन का लाभ लेने आए हैं। कहीं किसी को ग़ज़ल का स्वभाव परखने का शऊर नहीं, कहीं शिल्प में भीषण कच्चापन, तो कहीं भयानक सपाट-बयानी। कहना न होगा, ग़ज़ल की दुनिया की इस घनघोर शेखचिल्ली मिडियोक्रिटी (mediocrity) द्वारा मुक्तहस्त परिमाण में उत्पादित मगर घोर कृपण कलात्मकता व कृत्रिम साहित्यिकता के संगम से उपजी ग़ज़लगोई के ठीक विपरीत अनमोल की ग़ज़लों में पाठक के मनो-मस्तिष्क में एक भीषण और विहंगम कलेवर से युक्त भावात्मकता उद्बुद्ध करने की क्षमता घनीभूत रूप से विद्यमान और सद्य कार्यरत होती है।
ग़ज़ल के तंत्र की नज़ाकत समझने के लिए एक ख़ास तरह का मिजाज़ चाहिए होता है जो कि खड़ी-बोली हिंदी कविता के मिजाज़ से काफी अलग है। और अपने आप में ये मिजाज़ पैदा कर पाना और इस विधा के तेवर को रचना-प्रक्रिया के दौरान आद्योपान्त संभाल पाना इतना सरल भी नहीं; वरना महाप्राण निराला जैसे हिंदी काव्य की मुख्यधारा के महान स्तम्भ, ग़ज़ल की सरज़मीं पर औंधे मुंह न गिरे होते। इसके बरअक्स, अनमोल के पास ग़ज़ल कहने का अंदाज भी है और मिजाज़ भी; विषयों की व्यापकता, जो कि ग़ज़ल के प्रभावान्विति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण शर्त है, के साथ-साथ विचारों की गहराई भी है। और सबसे बड़ी बात यह जैसा कि इनकी ग़ज़लों को पढ़ने के क्रम में हर क्षण मुझे महसूस होता रहा है कि आज के दौर में ‘ग़ज़लगोई की चूहा-दौड़’ में रमे बहुसंख्य अन्य ग़ज़लनिगारों की तरह अनमोल की ग़ज़लें आत्ममुग्धता और स्वयं को सिद्ध करने की कवायद के अधोलोक से उपजे होने की बजाय सीधे दिल से निकली हुई होती हैं…बिना किसी लाग-लपेट के सीधी ही हृदय की गहराइयों से निकली हुईं और स्वयं उनकी नितांत स्वच्छ आत्म की स्वतः स्फूर्त चेतना से प्रस्फुटित हुईं…!
दुष्यंत ने ग़ज़ल की जिस परम्परा को प्राण-प्रतिष्ठा दी- यानि ग़ज़लों को युग-प्रवाह के अनुकूल सहज प्रयोग के कलेवर और काव्य-रूप में प्रतिष्ठित करते हुए उसे समकालीनता से सम्पृक्त करने की परम्परा- अनमोल उसी परम्परा को नई ऊंचाइयाँ देते हुए पाए जा सकते हैं। कहना न होगा, अनमोल के हाथों में ग़ज़ल फ़क़त दिल के मनोरंजन और विलास का झुनझुना बनने की बजाय दिमाग की दवा और खुराक बनने की चाह से प्रेरित है; मय-मीना-और साकी की मस्ती में अपना सुख ढूंढने और मयखाने और मयख़्वारी की मौजमस्ती में अपने वजूद को डुबो देने की लालसा की जगह रिसते हुए जख्मों का मलहम बनने और रूह की जलन पर मानवीय संवेदनाओं का शीतल फाहा रखने की चाह से प्रेरित है; आशक्ति और मदोन्मत्ति का घुँघरू बनने की बजाए अन्याय और अत्याचार के खिलाफ रणभेरी की अनुगूँज बन जाने की चाह से चलायमान है; और श्रृंगार के मद में डूबे प्रेमी-प्रेमिका का प्रेमालाप होने की जगह दुखों-दर्दों की माप बनने की चाह से प्रेरित है।
एकदम सबसे सटीक मुहावरे में कहें तो अनमोल ग़ज़लगोई को अपनी अभिव्यक्ति-सम्प्रेषण का माध्यम बनाने वाले उन चन्द विरले शाइरों में से एक हैं, जिनके हाथों में ग़ज़ल मानवता की पुनर्प्रतिष्ठा का माध्यम बन चुकी है। इन्होंने न सिर्फ निर्दिष्ट हिंदी ग़ज़ल की विरासत को विकसित ही किया है बल्कि युगीन संदर्भो के अनुकूल उसे समकालीनता से जांचने और आधुनिकता से आंकने का बीड़ा उठाकर इसे लोकप्रिय भी बनाया है और युग की माँग के अनुरूप इसे सुदृढ़-सुपुष्ट भी किया है। देखें कि मानवीय-जीवन में स्वयं अनिवार्य रूप से अन्तर्निहित त्रासदी के अवयवों और मानवीय संवेदनाओं के रसातल में जाते होने की प्रक्रिया का क्या ही मर्मभेदी बयान हैं उनकी गज़लें, जिनमें से एक की चन्द पंक्तियाँ आप भी नुमायां फरमाएं-
कितने दिनों तक आईना हैरान रहा
अब तक कैसे छिपकर यह इंसान रहा
जब तक कुछ अच्छा करने की नीयत थी
दिल पर मेरे हावी इक शैतान रहा
या फिर यह कि-
गाँव को भी शहरी जीवन दे गया
कौन इतना अजनबीपन दे गया
एक गज टुकड़ा ज़मीं का देखिए
भाई को भाई से अनबन दे गया
अनमोल की ग़ज़लों में आधुनिक और समकालीन जीवन का कुटिल-जटिल और संश्लिष्ट यथार्थ अभिव्यक्त होता है और इनकी ज्यादातर ग़ज़लें आम आदमी की जुबान में आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करने की छटपटाहट से उपजी दीखती हैं। देखें कि मानव-मात्र के आपसी रिश्तों की विद्रूपता को क्या ही मारक अंदाज़ में सम्प्रेषित कर दिया है उन्होंने इन चार बोलचाल की आम-भाषा में गढ़ी पंक्तिओं के माध्यम से-
छौंक झगड़े में लगाने आये
लोग बस बात बढ़ाने आये
कुछ ने आते ही बनाये विडियो
मैं तो समझा था बचाने आये
और ऐसा भी नहीं कि अनमोल दिल, इश्क़ और आशिकी के हर लुत्फ और खिलंदड़ेपन से असम्पृक्त ही हैं, क्योंकि रोमानी अदाओं और दीवानेपन की मुद्राओं की अभिव्यक्ति में भी उतनी ही शिद्दत पैदा करने का हुनर है इस शाइर में। बानगी देखें-
नींद से ये हुनर लिया जाए
ख़ाब आँखों में भर लिया जाए
चाँद को खिड़कियों के परदों से
रंगे-हाथों ही धर लिया जाए
बेख्यालां तेरे ख़्यालों में
डूबकर क्यूँ न मर लिया जाए
एक अनमोल-सी ग़ज़ल कहकर
ख़ुद पे एहसान कर लिया जाए
स्पष्ट है मोहब्बत भरे एहसास भी उसी खूबसूरती से नुमायां होते हैं अनमोल की ग़ज़लों में, जितनी शिद्दत से तंज भरे अल्फ़ाज़… दीवानेपन को जीने वाली ग़ज़लें भी उसी नाजो-अंदाज़ में नुमायां हैं जिस प्रभावान्विति से गिले-शिक़वे ज़ाहिर करते अश’आर। देखिये तो, किस रिवायती नाज़ुकबयानी के अंदाज़ में दिल की बात कह डाली है शाइर ने-
उलझा है तेरे प्यार के धागों में जबसे दिल
तबसे मेरी हयात का पैकर सँवर गया
सामाजिक सरोकारों की सरज़मीं पर ग़ज़लगोई करते हुए अनमोल नैपथ्य और नैराश्य में दबी-छिपी हुई आवाज़ों को भी मुखर करते हैं। अपनी आवाज़ की ताक़त भर देते हैं, ताकतवर लोगों और समाज के माननीयों के विरुद्ध खड़ा होते हुए, अपने कठिन दिनों के विरुद्ध खड़ा होते हुए। इस सलीके का एक शेर आज ही निगाह में आया मेरी, और क्या ही खूब है वो शेर! जरा देखें तो-
किसी के हाथ फैले देखकर दिल बैठ जाता है
कभी देखी है मेरी जेब ने भी मुफ़लिसी की हद
या फिर एक दूसरी ग़ज़ल से उद्धृत ये चंद शेर-
तुम्हें जिस भरोसे का सर काटना था
हमें उसके दम पे सफ़र काटना था
सफ़र ज़िन्दगी का था मुश्किल बहुत ही
था मुश्किल बहुत ही मगर काटना था
सहन, नीड़, पक्षी सभी थे रुआँसे
उधर उनकी ज़िद थी शजर काटना था
और चन्द शब्द अनमोल की ग़ज़लों के भाषिक अवयव पर, जहाँ तक कि मैं अपने अति-सिमित भाषा-ज्ञान के चश्में से देख पाया और वो ये है कि अनमोल ने अधिकांशतया अपनी ग़ज़लें हिंदी-उर्दू की मिश्रित शैली में कही हैं, जहाँ शज़र, मुख़्तसर, मंजर, सोहबत, बेख़यालां, शह्र, तदबीर, ताबीर, इल्जाम, अश्क, शम’अ, तीरगी, तिश्नगी, सहरा, आबले जैसी प्रचलित उर्दू शब्दावली है, तो सौगात, नीड़, पक्षी, हृदय, अम्बर, मोह, माया, लोभ, दर्द, घुटन, किरण, पर्वत जैसी चल हिंदी-शब्दमाला भी और विडिओ, कंक्रीट, बुलडोज़र, नोट जैसे हिंदी में हूबहू जज़्ब हो चुके अंग्रेजी के शब्द भी। हालाँकि इतना तो तय है कि यह भाषा-शैली सरल, सहज, सुबोध तथा प्रसाद गुण से ओत-प्रोत तथा गंगा-जमुनी है।
डंके की चोट पे कहा जा सकता है कि ग़ज़ल सिंफ़ (विधा) को एक अलग तरह की ऊँचाई प्रदान कर रहे हैं के.पी. अनमोल और इनकी प्रतिभा और इनके अनुभवों और संवेदनाओं की संपन्नता हमें चकित करती है। इनकी ग़ज़लों में अभिव्यक्त यथार्थ, अव्वल तो सबसे अलहदा तौर का है, लेकिन यदि नहीं भी है तो शाइर उस यथार्थ को अपनी उक्ति-वैचित्र्य के कुतूहल को गढ़ पाने की फ़नकारी के ज़रिए बिलकुल नायाब अंदाज़ में व्यक्त करने का हुनर रखता है। इनमें झलकती भावों की संजीदा अदाकारी काबिले-तारीफ़ है, उनके कलम की जादूगरी हरदिल-अज़ीज है। दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल में नए बुनावट को उसी प्रखरता और तल्खी से बनाये रखने का एहसास देती हैं इनकी ग़ज़लें।
अनमोल के लिए ग़ज़ल उनका अनन्य सर्जनात्मक काव्य-कर्म है और इसकी साधना में वे पूरी शिद्दत और ईमानदारी से रत हैं; और साथ-ही-साथ साधनावस्था से सिद्धावस्था की ओर उन्मुख उक्त यात्रा में वे ग़ज़ल को इतना आधुनिक और समीचीन करते जा रहे हैं कि वह न सिर्फ आधुनिक हिंदी कविता के व्यापक फलक को बल्कि इसकी चिंताओं, मुहावरों और भाषिक अवयवों को भी सहजता से आत्मसात कर सके।
– राकेश कुमार