आलेख
हिन्दी पटकथा लेखन और भीष्म साहनी : नवीन कुमार
पटकथा अर्थात् परदे की कहानी, परदा बड़ा हो या छोटा यानि कि सिनेमा और टेलीविजन दोनों ही माध्यमों के लिए बनने वाली फिल्मों, धारावाहिकों आदि का मूल आधार पटकथा ही होती है। इसी के अनुसार निदेशक शुटिंग की योजना बनाता है।
‘‘पटकथा कुछ और नहीं कैमरे में फिल्म के परदे पर दिखाए जाने के लिए लिखी हुई कथा है।’’
– मनोहर श्याम जोशी
पटकथा लेखन एक हुनर है। अंग्रेजी में पटकथा लेखन के बारे में पचासों किताबें उपलब्ध हैं और विदेशों के पुस्तकालयों में भी एक कथा और पटकथा लेखक के रुप में व्यावहारिक रुप से मैंने महसूस किया है, जब कोई कहानीकार एक कहानी का प्लाट तैयार करता है तो उसके ज़ेहन में कुछ काल्पनिक दृश्य आते-जाते रहते हैं। इसी प्रकार जब एक पटकथा लेखक पटकथा लिखना शुरु करता है तो ठीक पूरी कहानी दृश्य पर दृश्य एक क्रम से चलचित्र की तरह चलती जाती है।
पटकथा के एक अंग के रुप में वर्नलाईनर की अवधारणा नितांत अपने बम्बईया (अब मुम्बईया) पर कयामाते के रचनात्मक दिमाग उपलब्ध है। इसके महत्व और उपादेयता को समझाते हुए पटकथा-लेखक का यह महत्वपूर्ण अंग अब हाॅलीवुड फिल्मकारों को भी पसंद आने लगा है। साहित्य में यह सुविधा है कि शब्दों के सहारे किसी भी चीज का वर्णन किया जा सकता है और कैसी भी भावना उभारी जा सकती है।
जब चित्र के साथ-साथ ध्वनि भी अंकित की जाने लगी, तब मूकपट ने बोल-चाल का रुप ले लिया। इससे संवादों का महत्त्व बढ़ा लेकिन इतना भी नहीं कि रंग-मंच की तरह सारी बात संवादों के माध्यम से कही जाने लगी। फिल्म और टेलीविजन बिंबो की भाषा और पात्रों के संवाद दोनों का कहानी कहने में बड़ा महत्व है।
सिनेमा और टेलीविजन की विभिन्नता की बात बाद में विस्तार से की जा सकती है। अभी तो उनकी समानता की ओर ध्यान दिलाना है कि दोनों ही दृश्य-श्रव्य माध्यम हैं। कथा वाचक और किस्सागो अवसर पटकथा की शैली है
फिल्में भारतीय समाज से एक अलग तरह का जुड़ाव रखती हैं और फिल्मों के समाज से इस जुड़ाव के पीछे महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहती है। उनकी कथा और पटकथा कसी हूई और मौलिक होती है। दर्शकों से उसे भरपूर प्यार मिलता है। इस लिहाज से पटकथा लेखन फिल्में निर्माण का सबसे मूलभूत और आवश्यक पहलू है। जिस पर ध्यान देना आवश्यक है।
साहित्य लेखन और फिल्म लेखन दो अलग-अलग विधाएँ हैं। साहित्य जगत के बड़े नाम फिल्म पटकथा लेखन में कभी नहीं पाए तो सिर्फ उसका यही कारण था कि वे भावों के प्रवाह को फिल्म माध्यम के अनुरुप ढाल नहीं पाए। पटकथा लेखन में भीष्म साहनी का भी योगदान है।
किसी भी फिल्म यूनिट या धारावाहिक बनाने वाली कंपनी को पटकथा तैयार करने के लिए सबसे पहले जो चीज चाहिए होती है, वो है कथ्य/कथा। कथा नहीं होगी तो पटकथा कैसे बनेगी? अब सवाल यह उठता है कि कथा या कहानी हमें कहां से मिलेगी? तो इसके कई स्त्रोत हो सकते हैं। हमारे स्वंय के साथ या आसपास की जिंदगी में घटी कोई घटना, अखबार में छपा समाचार, हमारी कल्पनाशक्ति से उपजी हुई कहानी, इतिहास के पन्नों में झांकता कोई व्यक्तित्व या सच्चा किस्सा अथवा साहित्य की किसी अन्य विधा की कोई रचना। मशहूर उपन्यासों-कहानियों पर फिल्म या सीरियल बनाने की परंपरा काफी पुरानी है। अभी कुछ वर्ष पूर्व ही शरतचंद चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास देवदास को हिन्दी में तीसरी बार फिल्माया है। इसके अलावा भी हिन्दी के जाने-माने लेखकों- मुंशी प्रेमचंद, फणीश्वर नाथ रेणु, धर्मवीर भारती, भीष्म साहनी, बलराज साहनी, मन्नु भंडारी आदि की तमाम रचनाओं को समय-समय पर परदे पर उतारा गया है।
दूरदर्शन तो अक्सर ही साहित्यिक रचनाओं को आधार बनाकर धारावाहिक, टेली फिल्मों आदि का निर्माण करवाता है। अमेरिका यूरोप में तो ज्यादातर कामयाब उपन्यास और नाटक फिल्म का विषय बन जाती हैं। पारसी थियेटर के मशहूर नाटककार नारायण प्रसाद बेताब कहते हैं-
न ढूँढ हिंदी न खालिस उर्दू
ज़बान रोया मिली जुली हो
अलग रहे, दूध से न मिश्री
डली-डली दूध में घुली हो।
हिन्दी पटकथा लेखक परम्परा में भीष्म साहनी का भी विशेष स्थान है। उनके द्वारा लिखा गया ‘तमस’ उपन्यास विभाजन की त्रासदी का एक जीवंत चित्रण है।
यदि अतिशयोक्ति के विरुद्ध अल्पोक्ति जैसे किसी विशेषण का इस्तेमाल किया जा सके तो मैं कहना चाहूंगा कि भीष्म साहनी अल्पोक्ति के कलाकार हैं। यह विशेषण भीष्म जी की रचना शैली पर बखूबी लागू किया जा सकता है। उनके उपन्यास हो, नाटक हो या तमाम कहानियां सभी में यही देखने मिलता है कि वे न तो नाटकीय रुप से घटनाओं का सृजन करते हैं और न अपनी ओर से कोई बयानबाजी करते हैं। उनकी समस्त घटनाएॅ रोजमर्रा की जीवंत घटनाएॅ होती हैं।
– ललित सुरजन
अक्षर पर्व मासिक पत्रिका
भीष्म साहनी एक ऐसे प्रतिबद्ध रचनाकार हैं जिनके सम्पूर्ण साहित्य में कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति है, कहानी उपन्यास नाट्य-साहित्य की इन तीनों विधाओं में साहनी जी ने सृजन किया है। इनके कथा साहित्य पर प्रेमचन्द और यशपाल की गहरी छाप देखी जा सकती है। यद्यपि साहनी जी ने प्रेमचंद और यशपाल की ग्रामीण शैली को नहीं अपनाया है।
भीष्म साहनी का लेखन मध्यम वर्ग का लेखन है। भीष्म साहनी की प्रतिबद्धता का एक और सशक्त पहलू है। राजनीतिक प्रतिबद्धता उनकी अनेक कथा-कृतियों में विभाजन से जन्मी करुणा और पीड़ा को महसूस किया जा सकता है। आरोपों की कूटनीति और हिन्दू मुस्लिम दंगों की परिणति देश के विभाजन में हुई और इस दौरान आगजनी-लुटमार और हत्याकांड की जो भीषण दुर्घनायें घटित हुईं, उनके फलस्वरुप बेशुमार मानव हताहत या बेघर-बार हो गए। इन तमाम घटनाओं को एक तार में पिरोकर साहनी ने ‘तमस’ उपन्यास की सृष्टि की है।
भीष्म साहनी का ‘तमस’ उपन्यास साहित्य जगत में बहुत लोकप्रिय हुआ है। ‘तमस’ को 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस पर 1976 में गोविंद निहलानी ने दूरदर्शन धारावाहिक तथा एक फिल्म भी बनाई गई थी। ‘तमस’ उपन्यास हिन्दी पटकथा लेखन का सर्वाधिक प्रसिद्ध धारावाहिक रहा है। उसमें पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिन्दुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षों की कथा हो जाती है। पहले खण्ड में कुल ‘13’ प्रकरण हैं।
भीष्म साहनी हिन्दी सिनेमा के सबसे बड़े अभिनेताओं में से एक बलराज साहनी के छोटे भाई थे। लेखक के तौर पर मशहूर हो जाने के बाद भी वे बलराज की चर्चा करते समय मानो उनके छोटे भाई ही बने रहते थे।
एक दिलचस्प प्रसंग उनके नाटक ‘हानुश’ के लिखे जाने का है। जो हिन्दी के सबसे कामयाब नाटकों में से एक है। भीष्म साहनी इस नाटक में लिखने के पहले तक हिन्दी के बड़े कथाकारों में शुमार किये जाने लगे थे। फिर भी नाटक लिखकर वे बड़े भाई बलराज के पास उनकी मंजूरी लिए भागे-भागे गये।
जब राजिंदर नाथ ने ‘हानुश’ को मंच पर उतारा तो वह इतना कामयाब हुआ कि नाटक वालों ने उसे हाथो-हाथ लिया। भयंकर से भयंकर परिस्थिति के बीच से जिंदगी की वापसी के चमत्कार को भीष्म साहनी अपनी रचनाओं में अलग-अलग तरीकों से लिखते हैं।
उपन्यासों के अलावा अहं ब्रह्मामि, अमृतसर आ गया है, चीफ की दावत आदि अनेक कहानियां भी चर्चित रही। जिसका सफल मंचन विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हो गया है। भीष्म साहनी भारतीय ‘जैन नाटय संघ इष्टा’ के सदस्य बन गये। उनके बसंती उपन्यास पर भी धारावाहिक बन चुका है। उन्होंने ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’, ‘कस्बा’ और ‘मिस्टर एंड मिसेज अय्यर’ फिल्म में अभिनय भी किया है।
मतलब की भीष्म साहनी पटकथा लेखक के साथ-साथ एक अच्छे अदाकार भी हुए हैं। संघर्षशील भीष्म साहनी ने 1977 में राजेन्द्र नाथ के निर्देशन में ‘हानुश’ का सफल मंचन किया। भीष्म साहनी के नाटकों में सर्वाधिक मंचित होने वाले नाटकों में है ‘कबिरा खड़ा बाजार में’। 1981 में लिखित इस नाटक को प्रसिद्ध निर्देशक एम. के. रैना के निर्देशन में मंचित किया गया था। अस्मिता दिल्ली स्थित रंगमंच कर्मियों की एक नाट्य संस्था है। जहाॅ अनेक नाटकों का सफल मंचन होता है।
अस्मिता रंगमंच पर भीष्म साहनी के कई नाटकों का मंचन हो चुका है। हानुश, माधवी, कबीरा खड़ा बाजार में आदि कृतियों पर सफल मंचन हो चुका है। भीष्म साहनी स्मृति नाट्य समारोह में भारत भवन में नाटक ‘लुकमान’ का सफल मंचन भी हुआ। भीष्म साहनी ने साधारण एवं व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग कर अपनी रचनाओं को जनमानस तक पंहुचाया है। भीष्म साहनी ने मशहूर नाटक ‘भूतगाड़ी’ का निदेशन भी किया है। जिसके मंचन की जिम्मेदारी ख्वाजा अहमद अब्बास ने ली थी।
भीष्म साहनी प्रगतिशील और परिवर्तनकारी विचार वाले कथाकार थे। हमारे देश के शिखर के रुप में समझा जाता है। एम. के. रैना देश के नामी रंगकर्मी है। भीष्म साहनी के नाटक ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ से उन्होंने बहुत नाम कमाया लेकिन इस नाटक को आम आदमी की चर्चा के दायरे में भी एम. के. रैना का बहुत योगदान है। बहुत कम लोगों को मालूम है कि भीष्म साहनी के इस नाटक का ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ नाम एम. के. रैना ने दिया।
‘मुआवजे’ नाटक मूल रुप से पंजाबी में लिखा गया था। उसका भी सफल मंचन हुआ। लेखक का मूल उदेश्य समाज को नई दिशा देना होता है। विशेष रुप से नाटककार को एक सूत्र के रुप में होना चाहिए। ‘तमस’ उपन्यास का इसी तरह सफल मंचन हुआ। राजनीति और धर्म दोनों की सत्ता अपने अहंकार में विनाशकारी होते हैं। भीष्म जी की नम्रता उनके व्यक्तित्व का बेहद सदृढ पक्ष था। वे अपने विचारों के दायरे से किसी को नकारते नहीं, तमस में विभाजन की जिस भयावह त्रासदी की कहानी कही गई है, उसे ही गोविंद निहलानी ने एक लंबी फिल्म बनाने के लिए चुना है। भीष्म साहनी की तरह गोविंद निहलानी का संबंध भी अविभाजित हिन्दुस्तान के उस हिस्से से था। विभाजन इतनी बड़ी त्रासदी था कि उस पर साहित्य की रचना बहुत स्वाभाविक बात है और ऐसा हुआ विभाजन पहली बार ‘गर्म हवा’ (1973) के माध्यम से सिनेमाई पर्दे पर एक भयावह त्रासदी के रुप में सामने आया। इसमें बलराज साहनी ने विशेष भूमिका निभाई।
भीष्म साहनी का हिन्दी पटकथा लेखन परम्परा एवं अभिनय में श्रेष्ठ स्थान रहा है। पटकथा लेखन करना और साहित्य जगत में अपना नाम रोशन करना यह खासियत थी भीष्म साहनी में। भीष्म जी की नम्रता उनके व्यक्तित्व का बहुत लेखन की याद दिलाता है। सृजनात्मकता का प्रश्न किसी भी कलाकार की सृजन शक्ति या उसकी सृजन शक्ति था। निजी मौलिक प्रतिभा से सम्बंधित है। वह चाहे चित्रकार हो या कवि लेखक या वैज्ञानिक हो। यही हुनर किसी भी कलाकार या वैज्ञानिक हो समाज के अन्य व्यक्तियों से उसे अलग और अनोखा बनाता है।
‘अक्षर-पर्व’ ‘‘मंजु कुमारी’’
आलेख से
भीष्म का लेखन नव चेतना का लेखन है। उनके लेखन को चाहे कम आंका जाये पर हिन्दी की जिस खला को भरा है। उसे नहीं भूलना चाहिए। भीष्म साहनी एक व्यक्ति के रुप में जितने सहज और सरल थे। स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कथा साहित्य उपन्यास साहित्य, नाटक साहित्य को समृद्ध किया उनमें भीष्म साहनी का उल्लेखनीय स्थान है। मैं मानता हूं कि भीष्म साहनी की रचनाएं दिनो-दिन प्रासंगिकता को प्राप्त कर रही है। उनका हिन्दी सिनेमा को योगदान अतुलनीय है। भीष्म साहनी का व्यक्तित्व और कृतित्व स्मरणीय है। उनकी जन्म शताब्दी पर ये आलेख भीष्म साहनी को समर्पित है।
– नवीन कुमार
शोधार्थी, जय नारायण व्यास, वि. वि. जोधपुर
सन्दर्भ:-
1. हिन्दी में पटकथा लेखन: जाकिर अली रजनीश, पृष्ठ-4,5 अध्याय-1, वैवाहिक तथा तकनीकी शब्दावली, आयोग उ.प्र. हिन्दी संस्थान, मानव संसाचन विकास मंत्रालय।
2. पटकथा लेखन- एक परिचय, मनोहर श्याम जोशी, राजकमल प्रकाशन, ‘‘पटकथा लेखन सांराश से’’,
3. अस्मिता नाटक संस्थान नई दिल्ली वेब पेज।
4. भीष्म साहनी तमस उपन्यास, पृष्ठ संख्या 1,2,3,5,7
5. भीष्म साहनी व्यक्ति और रचना (सं.) राजेश्वर सक्सेना, प्रताप ठाकुर वाणी प्रकाशन, पृष्ठ सं.-30,35,36
6. अक्षर पर्व साहित्य- वैचारिक पत्रिका, दिल्ली
7. परिंदे साहित्य द्वेमासिक पत्रिका, दिल्ली
8. विकिपीडिया- भीष्म साहनी कृतित्व व साहित्य
– नवीन कुमार