आलेख
हिन्दी ग़ज़ल दर्पण के सामने
– अस्मिता पन्त
यद्यपि हिन्दी ग़ज़ल के सन्दर्भ में मनीषियों ने विभिन्न परिभाषाएँ देकर उसके रूप-स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है किन्तु फिर भी यह जानना एक रोचक तथ्य होगा कि वह स्वयं अपने बारे में क्या कहती है। जैसे अन्तः साक्ष्यों के आधार पर हम किसी कवि के व्यक्तित्व का लेखा-जोखा करते हैं, उसी प्रकार ग़ज़ल के ही सन्दर्भ में कहे गए अनेक अशआर वे अन्तःसाक्ष्य हैं, जो उसकी रूपश्री के विज्ञापक तत्व हैं। उन अशआर को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ग़ज़ल दर्पण के समक्ष बैठकर अपने को निहार रही है। महाकवि बिहारी का प्रसिद्द दोहा है-
लिखनि बैठ जाके सबै गहि-गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर।।
– बिहारी सतसई, बिहारी
चित्रकारों के द्वारा बिहारी की नायिका का सही रेखांकन संभव नहीं था क्योंकि उसका दिव्य सौन्दर्य प्रतिपल परिवर्धमान था, शायद इसी कारण वह अन्ततः दर्पण देखती है और ख़ुद पर ही मुग्ध हो जाती है-
आपु-आपु ही आरसी, लखि रीझति रिझवारि।।
हिन्दी ग़ज़ल के सौन्दर्य में भी यही रूपक सत्य सिद्ध होता है। चित्रकार की प्रतिभा जिस रूप को अंकित करने में हिचकिचाती है, दर्पण उसे भी सहज ही प्रतिबिम्बित कर देता है। हिन्दी ग़ज़ल के अनेकानेक रचनाकारों ने कभी अभिधा में, कभी लक्षणा में, कभी व्यंजना में शब्दों को दर्पण बनाकर हिन्दी ग़ज़ल को प्रतिच्छवित करने का प्रयास किया है। कभी एहतराम इस्लाम के स्वर में वह अपने प्रखर आलोचकों को जवाब देती नज़र आती है तो कभी डाॅ. कुँवर बेचैन की वाणी में वह विपरीत परिस्थितियों को अनुकूलता मेें ढालने की अपनी क्षमता का शंखोद्घोष करती है-
दुनिया ने मुझ पे फेंके थे पत्थर जो बेशुमार
मैंने उन्हीं को जोड़ के कुछ घर बना लिए
संटी की तरह मुझको मिले ज़िन्दगी के दिन
मैंने उन्हीं में बाँसुरी के स्वर बना लिए
– कुँअर बेचैन
ग़ज़ल के अभिनव रूप एवं अपूर्व छटा का अभिनन्दन करते हुए ‘ग़ज़ल पंचदशी’ में डाॅ राकेश सक्सेना की एक पूरी ग़ज़ल उसके व्यक्तित्व को और भी बोधगम्य बनाती है-
हर आदमी के दिल में मचलने लगी ग़ज़ल
अपनी ज़मीं को पा के सम्हलने लगी ग़ज़ल
रोमानियत की जद्दोजहद आशिकी से दूर
सच्चाइयों के पृष्ठ पलटने लगी ग़ज़ल
गंगाजली में, तुलसी में, पीपल की छाँव में
ऋषियों की भावभूमि में पलने लगी ग़ज़ल
– डाॅ. राकेश सक्सेना
डाॅ. राकेश सक्सेना की ऊपर उल्लिखित मान्यता के अनुसार अपने सहज विकास-क्रम में अब जाकर ग़ज़ल को उसकी वास्तविक ज़मीन प्राप्त हुई और वह खास-उल-खास लोगों की सभाओं से हटकर आम आदमी के दिल की बस्ती में बसेरा करने लगी है। उसे अब हुस्न-ओ-इश्क की वायवी कथाओं के संवाद लिपिबद्ध करने में अपने अस्तित्व की सार्थकता महसूस नहीं होती, वह समय की तल्ख सच्चाइयों के पृष्ठ पलटकर उन्हें अपने बयान का विषय बना रही है। अरब के तपते रेगिस्तान से इस शस्य-श्यामला भूमि में आने के उपरान्त उसकी भावधारा को रूपायित करने वाली प्रतीक-सम्पदा में भी पर्याप्त परिवर्तन हुआ है और वह तुलसी की पावनता, गंगाजल की पतित-पाविनी क्षमता, पीपल की ममतामयी छाया को अपने कथ्य का उपादान बनाकर समग्र सृष्टि के मंगल की आकांक्षा करने वाले ऋषियों की भाव-दृष्टि की संवाहिका बनकर अपनी नूतन भूमिका में हमारे सामने उपस्थित है।
‘आराधना अग्नि की’ के रचनाकार अम्बर जी की दृष्टि में समकालीन हिन्दी ग़ज़ल वक़्त के आकाश की क्षितिज रेखा को आच्छदित कर रही रेत पर छटपटाती बेजुबां मछलियों की हृदय-विदारक तड़प की अभिव्यक्ति है। दूसरी ओर वह अग्नि की लपटों के साथ क्रीड़ा भाव से जीने वाले अविकल्प संकल्प की मनोमुग्धकारी मुस्कुराहट भी है-
वक़्त के आकाश के धूमिल क्षितिज से उठ रही
आँधियों के आगमन की सुगबुगाहट है ग़ज़ल
छोड़ जिनको सिन्धु तट पे ज्वार की लहरें फिरी
उन अभागी मछलियों की छटपटाहट है ग़ज़ल
आग की लौ चूमना जिनके लिए क्रीड़ा रहा
उन लबों पर थरथराती मुस्कुराहट है ग़ज़ल
– डाॅ. शिव ओम अम्बर
युवा पीढ़ी के तेज़-तर्रार कवि एहतराम इस्लाम अपनी इन अधोलिखित पंक्तियों से अपने व्यक्तित्व के पूर्वाग्रहग्रस्त आलोचकों को ही नहीं, प्रकारान्तर से ग़ज़ल के रूढ़ीवादी समीक्षकों को भी प्रत्युत्तर दे रहे हैं-
मेरे व्यक्तित्व की महत्ता को
अन्ततः मान तो रहे हैं लोग
मेरा चेहरा बिगाड़ कर ही सही
मुझको पहचान तो रहे हैं लोग
– एहतराम इस्लाम
उनके बहुचर्चित ग़ज़ल-संग्रह ‘है तो है’ की अन्तिम ग़ज़ल बड़े ही कलात्मक ढंग से आज की ग़ज़ल की जन्म-पत्रिका ही प्रस्तुत कर देती है-
दर्द की आकाश गंगा पार करती है ग़ज़ल
कल्पनाओं के क्षितिज पर तब उभरती है ग़ज़ल
आप इतना तिलमिला उठते हैं आखिर किसलिए
आपकी तस्वीर ही तो पेश करती है ग़ज़ल
जादुई व्यक्तित्व वाली आज भी है वो मगर
मन में अब नश्शा नहीं आक्रोश भरती है ग़ज़ल
आइने देते हैं सम्बोधन भगीरथ का मुझे
अवतरित होती है गंगा या उतरती है ग़ज़ल
– एहतराम इस्लाम
हिन्दी ग़ज़ल पंचदशी की भूमिका में डाॅ. कुँअर बेचैन कहते हैं- “अपनी प्रकृति में ग़ज़ल भावनाओं की हथेलियों पर जलते हुए दीपकों की अग्नि-गाथा है, स्नेह की स्फूर्तिमय मोहक सुगन्ध है और वर्तिका का ज्योति के प्रति किया गया पावन उत्सर्ग है।” इसी पुस्तक में प्रख्यात ग़ज़लगो चन्द्रसेन विराट का अभिमत इस प्रकार है- वर्तमान समय की हर धड़कन को सुनकर उसे सही परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने की छटपटाहट हिन्दी-ग़ज़ल में है। हिन्दी-ग़ज़ल अन्य भाषिक छन्दों, रूपाकारों से परहेज न करके अपनी विशिष्ट हिन्दी काव्य-परम्परा से उद्भूत आधुनिक मानव-जीवन की सभी सम्भाव्य एवं यथार्थ संवेदनाओं को समेटती हुई अपनी मूल हिन्दी प्रकृति, स्वभाव लाक्षणिकता, स्वाद एवं सांस्कृतिक पीठिका का रक्षण करती हुई मौलिक संस्कारजन्य रचनाधर्मिता से नित नवीन एवं प्रभावी काव्य-प्रयोग कर रही है। यही उसकी शक्ति एवं भविष्य की सबल काव्य विधा निरूपित होने की आश्वस्ति भी है।
इस प्रकार परम्परा से चली आ रही ग़ज़ल ही अपनी परिवर्तित रूप-भंगिमा के साथ समकालीन गीतिकाव्य में हिन्दी-ग़ज़ल की संज्ञा से अभिहित हो सम्प्रतिष्ठित हो गई है। डाॅ. रोहिताश अस्थाना ने तो इसकी व्याख्या में एक पूरी ग़ज़ल ही ‘बाँसुरी विस्मित है’ में कही है-
दर्द का इतिहास है हिन्दी ग़ज़ल
एक शाश्वत प्यास है हिन्दी ग़ज़ल
प्रेम-मदिरा-रूप की बातों भरी
अब नहीं बकवास है हिन्दी ग़ज़ल
आदमी के साथ नंगे पाँव ही
ढो रही संत्रास है हिन्दी ग़ज़ल
आदमी की ज़िन्दगी का आईना
पेश करती ख़ास है हिन्दी ग़ज़ल
हर बहर, हर छन्द में नव कथ्य का
दे रही आभास है हिन्दी ग़ज़ल
गुनगुनाओ दोस्तो हर हाल में
आज दिल के पास है हिन्दी ग़ज़ल
काव्य की चर्चित विधा बन जायेगी
एक दृढ़ विश्वास है हिन्दी-ग़ज़ल
– डाॅ. रोहिताश्व अस्थाना
– अस्मिता पन्त