आधी आबादी: पूरा इतिहास
हिन्दी के प्रवासी साहित्य के एक स्तम्भ का जाना
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव
20 मार्च, 2020 को सुषम जी का जाना हिन्दी के प्रवासी साहित्य के एक स्तम्भ का जाना है। एक जुलाई 1945 को जन्मी सुषम बेदी बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। साहित्य के अतिरिक्त दूरदर्शन और आकाशवाणी से सम्बद्ध सुषम जी ने अभिनय भी किया था। सुषम जी ने अपने 9 उपन्यास, 3 कहानी संग्रह, निबंध और कविताओं से साहित्य को समृद्ध किया है। वैसे यह प्रवासी लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं पर उन्होंने मनुष्य को अपनी रचना का मूल माना है। वह कहती हैं- “मानवीय रिश्तों, रिश्तों के बीच व्यक्ति की अपनी पहचान, मानव मन की गुत्थियों, उलझनों को समझने में, उसकी पड़ताल गहरे उतरते चले जाने में हमेशा रुचि रही है। यही मेरे लेखन का मूल विषय है।”
सुषम के कथा साहित्य में प्रवास की समस्याएं खुल कर आयी है। प्रवासी जीवन पर उषा प्रियंवदा अर्चना आदि ने व्यापक रूप से लिखा है। उषा प्रियवंदा और सुषम में मूलत: अन्तर यह है कि उषा जी अन्तर्मन की पड़ताल ज्यादा करती है वहीं सूषम के कथा साहित्य में प्रवासी समस्याएं ज्यादा मुखर हुई । सुषम के कथा साहित्य में नस्लवाद की समस्या कई पर्तो में उभर कर आई । अमेरिका जैसे देश में नौकरी में ही नही सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर भी नस्लवाद कितने व्यापक स्तर पर फैला है यह उनका पहला उपन्यास हवन (1989) ही पूरी सच्चाई के साथ बताता हैं। नस्लवाद से उपजी हीनता और कुंठा अपने मनोवैज्ञानिक रूप में सामने आते हैं।
भारतीयों का प्रवास मूलत: आर्थिक है। सुषम के कथा साहित्य में यह दो स्तरों में चित्रित किया है। प्रथम निम्न मध्यवर्ग और द्वितिय उच्च वर्ग। प्रवास में निम्न मध्य वर्ग अपने जीवन यापन के लिए प्रवास को चुनता है। आर्थिक शोषण के अतिरिक्त मानसिक शोषण भी इस वर्ग की मुख्य समस्या रही है जिससे इनका जीवन नरकीय हो जाता है।
उच्च वर्ग आर्थिक शोषण कम नस्लवाद और सांस्कृतिक शोषण का ज्यादा सामना करता है। इन सब के बीच में भाषाई समस्या अपना अलग पक्ष रखती है। मोर्चे हवन उपन्यास के साथ चिड़िया और चील कहानी संग्रह में इन स्थितियों से उत्पन्न विकट परिस्थिति चित्रण हुआ है।
सुषम का प्रवासी चित्रण अन्य रचनाकारों से भिन्न है। उनका यह चित्रण पढ़ते हुए पाठक यह महसूस करता है कि यह अनुभव आयातित नही अपितु स्वयं का भोगा हुआ है। राधिका,मीरा जैसे पात्रो की पीड़ा, छटपटाहट. बेचैनी पाठक को भीतर तक मथ देती है। दो संसकृतियो के मिलने से उत्पन्न तनाव कैसे जीवन जीने की दिशा को बदल देता है। व्यक्ति चाहकर भी इस द्वंद्व से उबर नही पाता है यह सुषम की कलम से यथार्थपरक रूपाकार पाता है| भाषाई समस्या इस दर्द को और दुहरा कर देता है।
अमेरिका में प्रवास के दौरान व्यक्ति अपनी संस्कृति से अलग उस संस्कृति को अपनाना चाहता है पर अपनी भारतीय संस्कृति को त्याग नहीं पाता है जिसके फलस्वरुप तनाव और कुंठा का शिकार होता है। वृद्धों और संयूक्त परिवार के समक्ष यह समस्या ज्यादा उभरी है। सुषम ने अपने कहानियों में इस मर्म को छुआ है। नई पाढ़ी जिस तरह से आधुनिकता के नाम पर गुमराह हो रही है और गलत कार्य के कारण तनाव से घिर रही है उसका संवेदनात्मक चित्रण सुषम के साहित्य में है।एक उदाहरण हम देख सकते है — “राधिका के अन्तर्मन को किसी ने छीलकर रख दिया है। क्यों करते हैं उसके मां, भाई, बहन उससे इतनी नफरत ? राधिका को लगा सारे संसार ने उसे रिजेक्ट कर दिया है।“ (हवन उपन्यास पृ० 111)
प्रवासी जीवन की सच्चाईयों के साथ सुषम ने नारी पीडा को व्यापक फलक पर अपने साहित्य में स्थान दिया है। नारी की स्वतन्त्रता और सुरक्षा का प्रश्न हर स्थान पर है चाहे वह भारत हो या अमेरिका। मैने नाता तोड़ा की नायिका रितू बलत्कृत भी होती है और सामाजिक आरोप भी सहती है। बाद में वह कहती है —–
“मैं सड़े गले रिति रिवाज से नाता तोड़ती हूँ जो आज भी दमन करते है।“ परिस्थितियों से संघर्ष करके रितु अपने अस्तित्व की स्थापना करती है।
सुषम के साहित्य में हमें ऐसी ही नारियों के उदाहरण मिलते है जो अपने अस्तित्व की स्थापना के प्रतिमान स्थापित करती है। चाहे परिस्थितियाँ विपरीत ही क्यों न हो। सुषम की हर नायिका अपने अस्तित्व स्थापन के लिए प्रतिबद्ध है | कतरा दर कतरा की कुमुद लौटना की मीरा, मोर्चे की तनू, हवन की राधिका सभी नायिकाएं अपने अस्तित्व को स्थापित ही नहीं करती है बल्कि संघर्ष से विजय की गाथा भी कहती है। इन सभी में एक कॉमन फैक्टर है उषा प्रियंवदा की रूकोगी नहीं राधिका की तरह मिसफिर होने की समस्या । यह सभी नायिकाएं भारतीयों के अन्तर्विरोध और विषमता का प्रतीक बन जाती है।
नारी की प्रताड़ना घर हो या बाहर दोनों स्थलों पर है। तीसरी दुनिया का मसीहा जैसी कहानियाँ घर की देहरी के भीतर नारी कैसे प्रताडित है इसकी कलई खोलती हैं। घर के बाहर का शोषण व पीडा नारी को भीतर तक तोड़ देता है। अमेरिका और भारत में नारी शोषण की भिन्नता को रेखांकित करते हुए सुषम कहती है कि – “स्त्री के प्रति जैसा अन्याय सामाजिक धरातल पर हम यहाँ भारत में देखते हैं, काम की दुनिया में हम वैसा ही अन्याय वहाँ भी देखते हैं । वहाँ घर की दुनिया में स्त्री ने बराबरी कर ली है।“ (युद्धरत आम आदमी : दिसम्बर 2015, पृ० 64) अपनी इसी विचार को केन्द्र में रखते हुए हवन में नारी के सामाजिक एवं बाह्य संघर्ष की महागाथा को कहा है तो लौटना उपन्यास में नारी की भीतरी छटपटाहट और कसक की व्यंजना को कलमबद्ध किया है।
सुषम के साहित्य में दाम्पत्य सम्बन्धों की प्रगतिशीलता देखने को मिलती है। ऐसा नहीं है यहाँ सम्बन्धो में दरार नहीं है पर इनमें एक खुलापन अवश्य है | लौटना में पात्र के माध्यम से सुषम कहती है – “अगर वह उसका पति है तो क्या? पति होने मात्र से कोई तुम्हारे तन मन का पूरा अधिकारी तो नहीं हो जाता। और अगर किसी शास्त्र के अनुसार हो भी जाता है तो मानने को मीरा क्यो बाध्य हो।” लौटना उपन्यास पृ० 151)
यह आधुनिकता सिर्फ पुरूष पात्रों में ही नही अपितु स्त्री पात्रों में भी है। इसका कारण है सुषम की सभी स्त्री पात्र शिक्षित और परिपक्व है। लौटना उपन्यास में मीरा कहती है- विजय मैं तुम्हे कितना भी प्यार करूँ तुम मेरे जीवन के अन्तिम सत्य नहीं हो सकते है। मेरा व्यक्तित्व हमेशा कुछ और मांगता रहेगा। तुमसे बाहर तुमसे हटकर। तुम मेरे जीवन की धुरी नहीं बन सकते । मेरे जीवन की अपनी धुरी मेरी अपनी आइडेंटिटी है ।”
सुषम की यह विशेषता है कि वह पात्रों के द्वारा मुक्ति की बात करती है। सुषम के कुछ पुरुष पात्र रूढ़िवादी भारतीय पुरुषों से इतर है। गाथा अमरबेल का पात्र विश्वा इसका सबसे बड़ा प्रमाण है जो पत्नि की स्वतंत्रता को सहज रूप में लेता है।
दाम्पत्य सम्बंधो में सुषम की नारी दृष्टि एकदम साफ है। नारी को पति कम जीवन साथी की चाह ज्यादा प्रबल है। नारी देह के सन्दर्भ में काम प्रवृत्ति को सुषम बड़ी सहजता से लेती है। पर यह नारी देह शोषण का शिकार होता रहता है इसकी भी पडताल वह करती है। देह शोषण की कई पर्त इनकी रचनाओं में खुलती है। कहीं रामानन्द (इतर उपन्यास) जैसे पुरूष है जो धर्म की आड में जारी देह शोषण का खेल खेलता है तो कहाँ जुनेजा (हवन उपन्यास) जैसे पात्र है जो प्रेम के नाम पर धोखा और छलावा करते है।
नारी को सहारा देने के नाम पर उसके स्त्रियोचित कोमल स्वभाव के कारण पुरुष आसानी से छलता है। नारी जिसे प्रेम समझता है वह पुरुष का देह प्राप्ति का खेल भी होता है। विभक्त कहानी में नायिका नेता के प्रेम में जीती है और वह पत्नि और बच्चों के रहते प्रेम के नाम पर भोग करता रहता है। जुनेजा भी गुड्डो के साथ यही करता है। जब गूड्डो पूछती है कि उसके मन में कोई अपराध बोध नहीं तो जुनेजा बड़ी साफगोई से कहता है कि पत्नी का स्थान अलग है और प्रेमिका का स्थान अलग। पर जल्द ही गुड्डो को अहसास हो जाता है कि दोस्ती और प्रेम जैसे शब्द सिर्फ देह प्राप्ति का साधन है।
सुषमा के नारी पात्र शिक्षित, विद्रोही और स्त्रियोचित लाचार भी है। नारी चित्रण में सुषम मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता को सदैव साथ रखती है। सुषम अपने मनोवैज्ञानिक लेखन के द्वारा सामाजिक सत्य और यथार्थ का अन्वेषण ही नहीं करती है बल्कि नारी मन की गहन प्रस्तुती भी करती हैं।
उपन्यासों से इतर सुषम की कहानियों अलग लय की है। काला लिबास में भारतीय संस्कृति प्रेम है तो सड़क की लय कहानी में ड्रांइविंग का तथ्य। अवसान कहानी में मानवीय धरातल है तो संगीत पार्टी कहानी में वर्ण विशेष पर फोकस है। सुषम की कहानियों में घटना और विचार का फैलाव नहीं है। एक केंद्र बिंदु है और उसी की अभिव्यक्ति।
कविताओं में सुषम का रंग का व्यंग्यात्मक है। संतो की बानी : बुश की विदेश नीति का एक उदाहरण हम देख सकते है —
टोनी बुश दोउ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी बुश आपने टोनिय नाव डुबाय।
सुषम की कवितामों में भी प्रवासी का ही दर्द अभिव्यक्ति पाता है। प्रवासी का एक खत जैसी कविताएं इसकी अभिव्यक्ति करती हैं —
यह भी लगा था कि जिन
दिशाओं की खोज में हम आए
थे
उन्हे टटोल भी लिया
जिन चुनौतियों ने हमें
भड़काया था
अपनी जमीन से हटाया था
अब बेमतलब है उनका होना
या फिर उनके जवाब हम दे चुके
सुषम के निबन्ध हिन्दी की दशा और दिशा आधारित होते है। अमेरिका में हिन्दी, जापान का हिन्दी संसार, प्रवासी भारतीयों का साहित्यिक उपनिवेशवाद, प्रवासियों में हिन्दी : दशा और दिशा आदि निबंध अपने वैचारिक परिपक्वता के साथ उत्कृष योगदान का भी उदाहरण प्रस्तुत करते है।
सुषम आज हमारे बीच में न होते हुए भी अपने साहित्य के माध्यम से हमारे बीच में है। मेरे यह शब्द श्रद्धांजलि सुमन है।
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव