आलेख
हिन्दी काव्य साहित्य में साॅनेट के व्याख्याता कवि त्रिलोचन शास्त्री: डॉ. पिंकी गुप्ता
संघर्ष एवं जिजीविषा के कवि त्रिलोचन शास्त्री प्रगतिवाद के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने साॅनेट जैसी पाश्चात्य गीतिकाव्य की एक जटिल विधा में लोक राग-रंग भरकर, अपनत्व प्रदान कर अनूठे कौशल के साथ उसे काव्य साहित्य में प्रतिष्ठित कर सम्पूर्ण हिन्दी काव्य साहित्य को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि प्रदान की है।
साॅनेट इटैलियन शब्द sonetto का लघु रूप है। यह धुन के साथ गायी जाने वाली कविता है। ऐसी छोटी धुन, जो मेण्डोलिन याल्यूट (एक प्रकार का तार वाद्ययंत्र) पर गाई जाती है।
साॅनेट के जन्म के सम्बन्ध में शोधकर्ताओं का यह मत रहा है कि साॅनेट ग्रीक से जन्मा होगा परन्तु इसे पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जाता। ग्रीक epigram इटैलियन साॅनेट के अत्यधिक निकट दृष्टिगोचर होता है, इसी कारण यह मान्यता प्रचलित है कि प्राचीन वकम (सम्बोधन गीत) का ही इटैलियन छाया रूप है।
साॅनेट का वास्तविक स्वरूप तेरहवीं शती के मध्य में प्रकट हुआ, जिसे इटली के अनेक प्राचीन कवियों ने रचा। साॅनेट जैसी इन कविताओं में लोक बोली का प्रयोग किया गया है। तेरहवीं सदी में पूरी दक्षता के साथ का गुुइ़त्तोन (fraguittione) ने साॅनेट्स की रचना की, जो साॅनेट के प्रणेता माने जाते हैं। इसके बाद इटली में पेटार्क (petrarca) ने साॅनेट रचे। इस समय साॅनेट के स्वरूप निर्धारण हेतु अनेक प्रयोग किये गये किन्तु गुइ़त्ताेिनयन के साॅनेट ही आदर्श रूप में प्रस्तुत किये जाते रहे। पेट्रार्का और दान्ते ने गुइ़त्तोनियन साॅनेट में बदलाव भी किये। बाद में इसे तास्सो (tasso) और इटली के अन्यान्य कवियों ने अपनाया और साॅनेट इटली की विरासत बन गया।
कालान्तर में साॅनेट को फ्रांस के पूर्व कवियों तथा इंग्लैंड के सरे (Sarrey) और स्पेन्सर (spenser) ने अपनाया। जर्मनी में पैट्रार्कन शैली के साॅनेट रचे गये और धीरे-धीरे अंग्रेजी के साॅनेट को मौलिक मानने की धारणा भी बनती गई। इसे स्पेन्सर के अतिरिक्त सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन, बर्ड्स्वर्थ और कीट्स आदि ने रचा।
स्पेन्सर ने साॅनेट को परिपक्व अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने इटैलियन और आरम्भिक साॅनेट रचनाओं को मिलाकर नया साॅनेट फार्म तैयार किया, जिसे शेक्सपियर और मिल्टन ने नहीं अपनाया क्योंकि इसमें छांदिक स्वातन्त्रय नहीं था। जैसे पैटार्का के लिए गुुइत्तोइन ने मार्ग बनाया उसी तरह शेक्सपियर ने सरे, स्पेन्सर और सिडनी के रचे गये साॅनेट्स को मार्गदर्शक के रूप में देखा।
इस प्रकार साॅनेट रचना की चार कोटियाँ निर्धारित की जा सकती हैं-
(1) पेटार्कन
(2) स्पेन्सरियन
(3) शेक्सपीरियन
(4) मिल्टानिक
भारत में सर्वप्रथम साॅनेट का प्रयोग माइकेल मधुसूदन दत्त ने किया। रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने भी साॅनेट लिखे ‘एक मानुषी’ में नारी पर उन्होंने लिखा है-
शुधु विधतर सृष्टि ना तूमि नारी
पुरूष गोडेछे तोमाय शौदज्य-संचारी। 1
हिन्दी में साॅनेट बीसवीं सदी में आया। हिन्दी के जिन कवियों ने साॅनेट को अपनाया उनमें जयशंकर, समित्रानन्दन पंत, रामविलास शर्मा, बालकृष्ण राव, शंभुनाथ सिंह एवं प्रभाकर माचवे के भी नाम उल्लेखनीय है।
साॅनेट इन रचनाओं के कविता कर्म के केन्द्र में नहीं रहा। त्रिलोचन शास्त्री ही मात्र एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपने काव्य में इसका सफल एवं व्यापक प्रयोग किया। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करते हुए वे साॅनेट के पथ पर दौड़ते चले आये हैं! त्रिलोचन शास्त्री के शब्दों में-
इधर त्रिलोचन साॅनेट के ही पथ पर दौड़ा
साॅनेट साॅनेट साॅनेट साॅनेट क्या कर डाला
यह उसने भी अजब ताशा। मन की माला
गले डाल ली। इसे साॅनेट का रस्ता चैड़ा
अधिक नहीं है। कसे कसाये भाव अनूठे
ऐसे आये जैसा किला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को।
गेय रहे, एकान्विति हो। उसने तो झूठे
ठाट-बाट बाँधे हैं। चीज़ किराये की है।
स्पेन्सर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वरधारा है। उसने नई चीज़ क्या दी है! इ
साॅनेट ने मजाक भी उसने खूब किया है।,
जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यग्ंय का छिड़क दिया है।‘ 2
त्रिलोचन शास्त्री ने एक विजातीय छन्द का अनूठे कौशल के साथ प्रयोग कर उसे हिन्दी साहित्य की एक
मूल्यवान निधि के रूप में में संचित कर लिया है। साॅनेट पर उनका अद्भुत एकाधिकार दिखाई देता है। इसी कारण त्रिलोचन एवं साॅनेट एक दूसरे प्र्याय बन गये हैं। हिन्दी साहित्य मंे साॅनेट के एक समर्थ कवि के रूप में उनकी एक विशिष्ट पहचान बन चुकी है।
त्रिलोचन शास़्त्री के अब तक प्रकाशित साॅनेट्स की संख्या कुल 538 है। ‘दिगन्त’, ‘शब्द’, ‘फूल नाम है एक’, उसजनपद का कवि हूँ और ‘अनकहनी भी कुछ कहनी है’ ये उनके पाँच साॅनेट संग्रह हैं। महाकुंभ पर लिखे गये उनके साॅनेट ‘अरधान’ कविता संग्रह में मिलते हैं। ‘तुम्हें सौंपता हूँ ’ और ’ताप के ताए हुए दिन’ कविता संग्रहों में भी कुछ साॅनेट संग्रहित हैं। ‘मेरा घर’ काव्य संग्रह में त्रिलोचन के कुछ अवधी साॅनेट संग्रहित ैं।
त्रिलोचन शास्त्री ने सन् 1950 के आस-पास साॅनेट लिखना आरम्भ किया साॅनेट के तुक विधान और चरणों के विभाजन में उन्होंने पेट्रार्कन, शेक्सपीयरन और मिल्टन शैली का सहारा लिया है। पेटार्क ने अपने साॅनेट में अष्टक एवं षष्टक का विभाजन किया है। शेक्सपियरन शैली में चार-चार पंक्तियों की तीन चतुष्पदियाँ हैं एवं अन्तिम दो पक्तियाँ स्वतन्त्र रहती हैं। मिल्टन के साॅनेट अष्टक एवं षष्टक का विभाजन भी है वं पूरी चैदह पंक्यिाँ बिना किसी विभाजन के भी प्रयुक्त की गई हैं। त्रिलोचन शास्त्री ने अपने अधिकांश साॅनेट्स पेटार्कन एवं शेक्सपीयरन शैली में ही लिखे हैं।
त्रिलोचन के साॅनेट के प्रत्येक चरण में चैबीस मात्रिक ध्वनियाँ पाई जाती है। जिसे हिन्दी में रोला छन्द कहते हैं। रोला एक प्राचीन मात्रिक छन्द है। इसे जन छन्द भी कहते हैं। यह छन्द कुण्डलियों में प्रयुक्त होकर काफी लोकप्रिय हुआ है। यह चैबीस मात्राआंे का होता है। यह मात्रिक सम छन्द है, इसके चारों चरणांे में मात्राओं का क्रम समान होता है। इसके प्रत्येक चरण में ग्यारह या तेरह के विश्राम से चैबीस मात्राएँ होती है। त्रिलोचन ने रोला को ज्यो का त्यों स्वीकार नहीं किया है वे रोला के ऊपर न केवल साॅनेट का एक अनुशासन कायम करते हैं बल्कि उसके मात्रिक अनुशासन एवं आन्तिरक लय को बनाये रखते हुए उसकी पारम्परिक सहज गेयता को भंग कर देते हैं। रोला की सरल गेयता काफी हद तक गद्यात्मक लय तक पहुँच जातीहै। इस संदर्भ में राजेश जोशी लिखते हैं कि- ‘‘रोला का यह रचाव त्रिलोचन की अपनी अलग पहचान बनाता है। यह छन्द से मूुक्ति की बजाय छन्द की ही मुक्ति का प्रयास है।’’3 त्रिलोचन शास्त्री साॅनेट रचना में पूरे वाक्य को अपनाते हैं और वाक्य एक चरण से दूसरे चरण में फिसलते हुए चलते हैं। जैसे एक दूसरे हाथ पकड़कर चल रहे हों। त्रिलोचन शास़्त्री रोला छन्द के चैबीस मात्रिक छन्द को तो अपनाते हैं किंतु कुछ अपवादों को छोड़कर प्रत्येक चरण में और तेरह पर विश्राम नहीं है। यह गति भंग भी नहीं हैं, निरन्तर चैबीस मात्रिक लय हैं जो साॅनेट के चैदहवें चरण मंें जाकर ही विश्राम पाती है। अनेक अष्टपदियों चैथे और आठवें चरणान्त पर भी विश्राम आता है और फिर द्विपदी आती है। कुछ अपवादों को छोड़कर पहला चरण दूसरे में फिसलकर ही विश्रान्ति पाता है। रोला का यह नवीन रूप कवि की प्रतिभा को दर्शाता है। त्रिलोचन के पास ऐसी क्षमता है कि वे उसे अपनी काव्य वस्तु के अनुरूप ढाल देते हैं। त्रिलोचन द्वारा विनम्रता से साॅनेट के संदर्भ में ‘‘किराये की चीज है’’ कथन के संदर्भ में राजेश जोशी लिखते हैं कि – ‘‘रोला में आकर त्रिलोचन का साॅनेट उनकी अपनी सम्पत्ति बन गया है, अब वह किराये का मकान नहीं है।’’4
त्रिलोचन शास्त्री ने अपने साॅनेट भाव, विचार, कथा, चरित्र चित्रण एवं दर्शन की भूमियों पर रचे हैं। जो गोचर हैं वह तो यहाँ दृश्यमान है ही, अगोचर भाव रूपों की छाया भी है-
चैदह चरणों में मैने चैदह भुवनों को
यथा शक्ति नापा है। यह केवल बातूनी
की बकवास नहीं है। समझ के लिए दूनी
शक्ति चाहिए। दौं-दौं गिरते हुए घनांे को
क्या मालूम, निहाई में कितनी दृढ़ता है।
भूमि गर्भ में कसमसा रही जो ज्वाला,
धवल धाम अभ्रकष हो या पर्वत माला,
कभी किसी को कब गिनती है। यदि चिढ़़ता है
क्षुद्र मनुष्य अहंकृत – हुंकृति में अपनी तो
क्या कर लेगा। विश्व यथा क्रम चलाया जा रहा,
संस्कृत-स्रोत इसी छाया में ढला जा रहा,
सबको ही है नई तपस्याएँ तपनी तो।
जो जो गोचर रहे चराचर वे सब आए
और अगोचर भाव रूप छाया से छाए। 5
त्रिलोचन के सानेट्स की मुख्य विशेषता यह है कि वे रोमानी चेतना से अलग भौतिकवादी समाज तथा ठेठ सामाजिक यथार्थ को रूपायित करने में संधर्षरत दिखाई देते हैं। विषय वस्तु की विविधता त्रिलोचन की बहुत बड़ी उपलब्धि है। अपने साॅनेट्स में वे व्यक्ति-सत्य के माध्यम से समाज सत्य को दर्शाते हैं। दिगन्त के एक सानेट के माध्यम से त्रिलोचन ने सामाजिक स्थिति का अत्यन्त सुन्दर क्लासिकल वर्णन किया है।
ध्वनि ग्राहक हूँ मैं समाज में उठनेवाली
घ्वनियाँ-पकड़ लिया करता हूँ इस पर कोई
अगर चिढे़ तो उसकी बुद्धि कही है खोई
कहना यही पड़ेगा अगर न हो हरियाली
कहाँ दिखा सकता हूँ ? फिर आँखों पर मेरी
चश्मा हरा नहीं है। यह नवीन ऐयारी
मुझे पसन्द नहीं है। जो इसकी तैयारी
करते हो वे करें। अगर कोठरी अंँधेरी
है तो उसे अंँधेरी समझाने कहने का
मुझको है अधिकार। सिफारिश से सेवा से
गला सत्य का भी न घोटूँगा। मेवा से
वरंब्रूहि न कहँूगा और न चुप रहने का।
लड़ता हुआ समाज, नई आशा-अभिलाषा,
नये चित्र के साथ नई देता हूँ भाषा 6
त्रिलोचन शास्त्री के इस शेक्सपीयरिन पद्धति के साॅनेट में कवि का गहरा आत्वविश्वास परिलक्षित होता है इस साॅनेट में कवि ने अपने अनुभवों की सम्पूर्ण पूँजी को पूरी ईमानदारी के साथ दर्शाया है।
इसी प्रकार त्रिलोचन ने पेटार्कन शैली के अनुसार भी साॅनेट लिखे, परन्तु उन्होंने पेटार्कन शैली का पूर्ण रूप से अनुसरण नहीं किया। पेटार्कन शैली की विशेषता यह रहती है कि साॅनेट में किसी को उद्बोधित किया गया रहता है या प्रेम सम्बन्धी वर्णन रहता है कभी-कभी प्रेमिका को सम्बोधित साॅनेट भी मिलते हैं। त्रिलोचन शास्त्री ने पेटार्कन पद्धति के उद्बोधन को स्वीकार किया तथा व्यक्ति के माध्यम से समाज कल्याण को चित्रित करने का प्रयास किया। उनके साॅनेट्स में प्रेम के अतिरिक्त प्रकृति सम्बन्धी वर्णन भी देखने को मिलते हैं। पेटार्कन शैली पर आधारित त्रिलोचन के ‘शब्द’ नामक संग्रह के साॅनेट में उनके जीवन दर्शन की झलक मिलती है।
जब तक जीवन शेष रहेगा तब तक धारा
इसी तरह निर्बाध बहेगी जीत-हार का
अभिनय भी रात दिन रहेगा, घृणा-प्यार का
रंग हृदय पर छाप छोड़ कर पथ पर न्यारा
रूप रचेगा, रात्रि दिवस के चक्कर द्वारा
आकांक्षाएँ वेश बदलकर नए भार का
प्रतिशर पर आरोप करेगी, कहीं सार का
पता न होगा और जगत में मारा मारा
मौन फिरेगा फूल, उसे कोई न पूछेगा
इसका कुछ विश्वास नहीं, पूछेगा
कोई क्यों, उससे क्या अर्थ मिलेग, कहीं खिलेगा
कहीं प्रसन्न विकास करेगा किस को देगा
स्वप्नों के संकेत, सत्य की आभा खोई
अंधकार के सिन्धु बीच क्या यान मिलेगा। 7
कवि का जीवन दर्शन यह संकेत करता है कि शरीर में प्राण तत्व रहने तक हार-जीत का अभिनय चलता रहेगा एवं जीवन धारा निर्बाध गति से बहती रहेगी। त्रिलोचन की सूक्ष्म दृष्टि एवं कलपना द्वारा साॅनेट में विश्वास झलकता है। समाज में नवीन परिवर्तन की भावना उन्हें व्यग्र करती है-
हाथों के दिन आऐगें। कब आएँगे
यह तो कोई नहीं बताता करने वाले
जहाँ कहीं भी देखा अब तक डरने वाले
मिलते हैं, सुख की रोटी वे कब खाएँगें
सुख से कब सोएँगे उसको कब पाएँगे
जिसको पाने की इच्छा है डरने वाले
डर-डर कर अपना घर भरने वाले
कहाँ नहीं हैं हाथ कहाँ से क्या क्या लाएँग ?
हाथ कहाँ हैं वंचक हाथों के चक्के में
बंधक हैं बंधुए कहलाते हैं, धरती है
निर्मय पेट पले कैसे इस उस मुखड़े की
सुननी पड़ जाती है, धौंसों के धक्के में
कौन जिए जिन सासों में आया करती है
भाषा किसको चिन्ता है उनके दुखड़े की। 8
त्रिलोचन के साॅनेट का यह रूप जीवनवादी दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है उनके साॅनेट में रूप-रस, राग-बन्ध, जीवन-जगत, प्रकृति, सौन्दर्य, प्रेम एवं मानवीय समृद्धि के सुपरिचित शब्द कर्म दृष्टिगत होते हैं, जिसमें स्मृतियों का भव्य रेखांकन संग्रहित है। ’फूल नाम है एक’ साॅनेट संग्रह में त्रिलोचन प्रकृतिक बिम्बों को अत्यन्त सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत करते हैं-
निर्झर झीने बादल सरक रहे। हैं
जैसे हल्का धुआँ हो जरा इनसे ऊपर
काले-काले स्थिर बादल हैं जैसे तट पर
धारा की छोड़ी मिट्टी, अविराम सहे हैं
जिसने हाथ चपल लहरों के साथ वहें हैं
विषम उभार, स्वरों के क्रम हैं, कंकड़ पत्थर
धारा के रेले से जैसे तैसे बच कर
ठहर गए हैं कर्दम के आख्यान कहे हैं।
मेघ छितिज में पड़े प्रशान्त,दही की आँठी
जैसे सूरज के प्रकाश ने तोड़ा घेरा
दूर बाग बस्ती कछार बांजर का फेरा
प्रेम पूर्ण कर वृष्टि धुले दृश्यों की गाँठी
में अपनी स्मृति बांधी फिर परिकों की माँठी
से धन के उठे चातक ने पिउ पिउ टेरा। 9
तुक योजना साॅनेट की कला का एक अविच्छिन्न अंग होती है। साॅनेट का रूप सौष्टव काफी हद तक तुकों से निर्धारित होता है। त्रिलोचन की तुक योजना कई विशेषताओं से परिपूर्ण है। उन्होंने तुकों को मिलाने हेतु संस्कृत एवं प्रचलित हिन्दी से शब्द गृहण करने के साथ ही विभिन्न बोलियों से शब्द ग्रहण किये हैं, परन्तु उनका उद्देश्य सिर्फ तुकों को मिलाना नहीं अपितु शब्दों के भाव तथा अर्थ के सौन्दर्य एवं शक्ति में वृद्धि करना भी उनका उद्देश्य रहा है।
त्रिलोचन ने हिन्दी की खड़ी बोली में ही साॅनेट नहीं रचे अपितु उन्होंने अवधी में भी साॅनेट लिखे हैं। बोली में साॅनेट का प्रयोग विरूद्ध का जामंजस्य कहा गया है। अवधी बोली में साॅनेट एक उदाहरण दृष्टव्य है-
कहने कहने जेस तुलसी तेस केसे अब होये।
कविता केतना जने किहेन हैं, कहि हैं,
अपनी-अपनी विधि से ई भव सागर तारि है
हम हूँ तौ अब तक एनहीं ओ नहीं कैं ढोये,
नाई सोक सरका तब फरके होई के रोय।
जे अपनइ बूडत आ ओसे भला उबरि हैं
कैसे बूडइ वाले। संग.-संग जरिहैं मरिहैं
जे, ओनही जौं हाथ लगावइं तउ सब होये।
तुलसी अपुना उबरेन औ आन कॅ उबारेन।
जने-जने कई नारी अपने हाथे तोयेन,
सब कई एक दवाई राम नाम में राखेन,
काम क्रोध पन कई तमाम खट राग नेवारेन,
जवन जहाँ कलिमा रही ओकाॅ खूब धोयेन।
कुलि आगे उतिरान जहां तेतना ओई भाखेन। 10
त्रिलोचन की शब्द सम्पदा में प्रचलित हिन्दी के शब्दों के साथ संस्कृत अवधी इत्यादि के शब्द भी है। इन शब्दों के प्रयोग में उन्होंने अत्यन्त कुशलता का परिचय दिया है। संस्कृत के शब्दों के प्रयोग से त्रिलोचन ने भाषा में नाद सौन्दर्य ही नहीं उत्पन्न किया अपितु भाषा के स्तर को भी उच्चता प्रदान की है। उन्होंने अपने समर्थ शब्द संयोजन के माध्यम से हिन्दी के भाषा स्तर को वैशिष्टता प्रदान की है। इसी के साथ उनके साॅनेट्स में तत्सम शब्दों का अधिकाधिक, प्रयोग हुआ है।
चन्द्रवली सिंह त्रिलोचन के साॅनेट्स के गेय तत्व के सन्दर्भ में लिखते हैं कि-’’त्रिलोचन के साॅनेटों में मधुरता है लेकिन वह स्निग्ध और कोमल स्वरों का नहीं। उसमें चिन्तन के दृढ़ कठोर स्नायु हैं। रोला हिन्दी का अत्यन्त गेय छन्द रहा है, लेकिन त्रिलोचन ने उसमें जानबूझ कर उसमें भावों की इकाइयों को एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति में खीच कर संगीत की समानान्तर इकाइयों की जगह यतियों की विविधता का सौन्दर्य पैदा किया है। इस तरह वे तुकों के बन्धन में रहकर भी अंग्रेजी के अतुकान्त काव्य में संगीत अनुच्छेद (अमतेम चंतंहतंची) की सृष्टि कर सके हैं। ……..त्रिलोचन के बिम्ब उनकी आस्था की ही भांति उन्नत सिर और उन्नत बाहु हैं। जीवन की छोटी सी छोटी स्थिति को नाटकीय आकस्मिकता से स्वप्न लोक का विस्तार और भव्यता देने की जो शैली हम निराला में पाते हैं, उसे त्रिलोचन के साॅनेटों में भी देख सकते हैं ………त्रिलोचन के साॅनेटों का संगीत बाॅसुरी या जल तरंग का नहीं है बल्कि वाणी का है, जिसके माधुर्य में ओज भरी टंकार है, जिसमें स्वरों की गूँजें एक दूसरे से टकराकर और फिर एक होकर वितान सी तन जाती है। 11
त्रिलोचन शब्दों का महल खड़ा करने के लिए ईट बनाने के साँचे की खोज में उन्होंने संस्कृत और हिन्दी के छन्दों के साथ साॅनेट को भी अपने लिए सिद्ध किया है, जिसमें सबकी बोली-ठोली लाग-लपेट, टेक, भाषा, मुहावरा, भाव आचरण और भोली-भूली इच्छाएँ समाहित हैं। आवारा गृही, सभ्य-असभ्य, शहराती और देहाती सभी प्रकार के मनुष्यों को त्रिलोचन अपने चैदह चरणों के भुवन से सादर आमन्त्रित करते हैं-
महल खड़ा करने की इच्छा है शब्दों का
जिसमें सब रह सके लेकिन साँचा
ईट बनाने का मिला नहीं है, अब्दों का
समय लग गया, लेकिन काम चलाऊ ढाचाँ
किसी तरह तैयार किया है। सबकी बोली-
ठोली लगा लपेट, टेक भाषा मुहावरा
भाव, आचरण, इंगित विशेषता फिर भोली
भूली इच्छाएँ, इतिहास विश्व का विखरा
हुआ रूप-सौन्दर्य भूमिक, स्वर धारा की
विविध तरंग भंग मरती लहराती गाती
चिल्लाती इठलाती फिर मनुष्य आवारा
गृही असभ्य, सभ्य शहराती या देहाती-
सबके लिए निमंत्रण है अपना जन जानें
और पधारे इसको अपना ही घर मानें। 12
त्रिलोचन के साॅनेट्स में गीतों सी गहरी संवदेनशीलता, जीवन की मार्मिक अनुभूति, सौन्दर्य प्रतीतियाँ एवं वह क्लासिक निखार है जो अन्य रचनाकारों में कम मिलता है। साॅनेट्स से त्रिलोचन को ख्याति भी मिली एवं आलोचना भी। कुछ लोगों ने साॅनेट को विजातीय माना है। यदि साॅनेट को विजातीय माना जाय तो उपन्यास एवं कहानी को विजातीय मानना चाहिए, क्योंकि ये विधाएँ भी पश्चिम की देन है। यह एक विडम्बना ही है कि कुछ लोग रूप वाद के विरोधी हैं। त्रिलोचन ने इतावली एवं अंग्रेजों के अभिजात्य में पली बढ़ी पश्चिमी गीति काव्य की कठिन विधा को लोक वाणी में ढाल कर उसे हिन्दी का जातीय छन्द बनाकर, इतना उन्मुक्त एवं सफल प्रयोग किया। जो अब उनकी एवं हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि बन गयी है। इस सन्दर्भ में कवि केदारनाथ सिंह ने सत्य ही लिखा है- ’’साॅनेट जैसे विजातीय काव्य रूप को हिन्दी भाषा की सहज लय और संगीत में ढालकर त्रिलोचन ने ऐसी नयी काव्य विधा का अविष्कार किया है जो लगभग हिन्दी की अपनी विरासत बन गई है। ‘‘13 त्रिलोचन ने अपनी प्रतिभा से साॅनेट के तंग रास्ते को हिन्दी साहित्यकारों के लिए काफी चैड़ा बना दिया है। जिसके लिए साहित्य जगत उनका सदा आभारी रहेगा।
सन्दर्भ-
1.उद्धृत- कमला कान्ता, दिविक रमेश साक्षात् त्रिलोचन पृ0 27-28
2.त्रिलोचन शास्त्री दिगन्त पृ0 11
3.उद्धृत- गोविन्द प्रसाद त्रिलोचन के बारे में पृ0 198
4.उद्धृत- महावीर अग्रवाल सापेक्ष पृ0 257
5.त्रिलोचन शास्त्री अनकहनी भी कुछ कहनी है पृ0 100
6.त्रिलोचन शास्त्री दिगन्त पृ0 22
7.त्रिलोचन शास्त्री शब्द पृ0 71
8.त्रिलोचन शास्त्री फूल नाम है एक पृ0 98
9.त्रिलोचन शास्त्री फूल नाम है एक पृ0 77
10.त्रिलोचन शास्त्री मेरा घर पृ0 77
11.उद्धृत- गोविन्द प्रसाद त्रिलोचन के बारे में पृ0 75
12. त्रिलोचन शास्त्री ताप के ताए हुए दिन पृ0 53
13.उद्धृत- गोविन्द प्रसाद त्रिलोचन के बारे में पृ0 210
– डाॅ. पिंकी गुप्ता