मूल्यांकन
हिंदुस्तान टाइम्स के साथ मेरे दिन: पत्रकारिता जगत में व्याप्त राजनीति, संघर्ष और बेबसी की उम्दा अभिव्यक्ति- प्रीति ‘अज्ञात’
‘हिंदुस्तान टाइम्स के साथ मेरे दिन’, डॉ. ब्रजेश वर्मा द्वारा लिखित यह पुस्तक अपने शीर्षक के आधार पर संस्मरण का आभास अवश्य देती है पर ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। वस्तुतः यह पुस्तक न केवल उनके बल्कि पत्रकारिता जगत से जुड़े हुए अधिकाँश पत्रकारों की वस्तुस्थिति का जीवंत चित्रण है। यहाँ सत्ता के चाटुकारों, परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देने वाले पत्रकारों, संपादकों के किस्से हैं तो कर्मठ, जुझारू और अपनी शर्तों पर स्वाभिमान के साथ जीने वाले इंसान के संघर्ष की कहानी भी साथ चलती है।
हाँ, इतना अंतर अवश्य है कि उन्हें मोबाइल और हर जगह लैपटॉप, कैमरा साथ न होने के कारण अपनी रिपोर्टिंग को कार्यालय तक समय पर पहुँचाने के लिए जिन-जिन बाधाओं का सामना करना पड़ा, उन्हें पढ़कर आज के युवा पत्रकार स्वयं को भाग्यशाली अवश्य मानेंगे।
मूलत: यह पुस्तक बिहार एवं झारखण्ड के एक पत्रकार के, पत्रकारिता के प्रारंभिक दिनों से लेकर सेवानिवृत्ति तक के जीवन का लिखित दस्तावेज़ है। पत्रकार जिसे, ‘हाउस हसबैंड’ कहलाने में कोई संकोच नहीं हुआ करता था और जिसने आउटलुक में ‘इंडियन मेल’ नाम से छपे इसी विषय पर स्वयं पर लिखित एक आलेख में घर को सँभालने की बात बड़ी सरलता से कही थी। हालांकि इस बात पर उनके परिवार के सदस्य नाराज़ भी हो गए थे।
पत्रकारिता की दुनिया का कच्चा चिट्ठा खोलते हुए ब्रजेश जी बताते हैं कि उन दिनों ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के संवाददाता ख़बरों की जगह विज्ञापन का इंतज़ाम करते थे और पाठकों के पत्र ख़ुद संपादक बनाया करते। साइबर कैफे से रिपोर्ट बनाकर भेजने का खर्च भी पत्रकार की जेब से जाता था। वे लिखते हैं कि कैसे ‘जागरण’ के कार्यालय में उन्हें बैठने की जगह तक नहीं मिली और यह सिलसिला आगे भी कई स्थानों पर जारी रहा। इस तरह का व्यवहार बहुतों के साथ, बहुत-से अखबार किया करते थे और कुछ लोग ‘एडजस्ट’ भी कर लेते थे। पर उन्होंने हर बार नौकरी छोड़ देना ही उचित समझा। इस बात की पुष्टि उनका यह कथन भी करता है,
“मेरा विद्रोही मन मुझे बचपन से ही संकटों में डालता रहा है।”
यह उस पत्रकार की गाथा है जो ख़बर को जस-का-तस रखने में विश्वास करता है और कोई भी प्रलोभन उसे डिगा नहीं पाता। तभी तो अपने मित्र विश्वपति के तबादले को लेकर वे लिखते हैं कि उसने मुझसे कहा कि “स्वर्ग के चौकीदार बनने से अच्छा है कि नर्क का राजा बनकर रहो।”
इस पुस्तक का मूल वह घटना है जिसमें हिन्दी के प्रमुख समाचार-पत्र ‘नवभारत टाइम्स’ के अचानक बंद हो जाने पर उसका पत्रकार, उस समय के अंग्रेज़ी के सबसे बड़े समाचार-पत्र ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में नौकरी प्रारंभ करता है। वह अपने दोस्तों की मदद और ट्यूशन द्वारा अंग्रेज़ी सीखता है और अच्छी अंग्रेज़ी न होने और कमाई से ज्यादा खर्च होने पर भी वहाँ टिके रहने का दृढ़ निश्चय कर लेता है। मित्र की माताजी की प्रेरणा से अंग्रेजी को ‘सेकंड लाइन डिफेंस’ भी बनाता है। लोग जब ताना मारते तो वह उनसे घबराता नहीं था बल्कि हँसते हुए यह कह देता कि “इंग्लैंड का एक राजा ऐसा था जिसे भी अंग्रेज़ी नहीं आती थी।”
वे लिखते हैं कि उन्हें इनॉग्रेशन की रिपोर्ट तैयार करनी थी और इसकी स्पेलिंग तक नहीं आती थी। फॉर्म में बिज़नेस लिखना था तो उन्होंने बी लिखकर रनिंग कर दिया।
यह वाक्य पत्रकार के जुझारूपन के साथ, उसके शानदार ‘सेंस ऑफ़ ह्यूमर’ की ओर भी इंगित करता है।
यहाँ उस रोचक घटना का भी सन्दर्भ है जब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने हिन्दी को बढ़ावा देने की मुहिम छेड़ रखी थी और अंग्रेज़ी में अनुत्तीर्ण विद्यार्थी को भी उत्तीर्ण माना जाता था। उस समय की कहावत भी आप लिखना नहीं भूले, “अंग्रेज़ी में फेल तो कर्पूरी डिवीज़न में पास”
यहाँ यह सीख भी हाथ लग जाती है कि भाषा योग्यता में बाधक नहीं हो सकती।
बिहार सचिवालय में बिल्ली की रिपोर्ट का क़िस्सा अत्यन्त रोचक बन पड़ा है जहाँ वे लिखते हैं, जब सचिवालय में एक बिल्ली को पुरातत्त्व विभाग की ओर भागते देखा और उसका पीछा किया तो वह निदेशक के कमरे में जाकर ग़ुम हो गई। बातचीत में निदेशक ने बताया कि “किसी जमाने में सचिवालय में बिल्ली इसलिए पाली जाती थी कि फाइलों को चूहों से बचाया जा सके। उसके लिए बिहार सरकार का एक बज़ट होता था लेकिन अब नहीं होता!”
“उनके हाथ खजाना लग गया था।” उनका तात्पर्य ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ से था।
ब्रजेश जी मात्र अपनी निष्ठा, प्रतिबद्धता और मूल्यों की ही बात नहीं करते अपितु अपनी स्मोकिंग एवं कभी-कभार शराब की बुरी आदत को भी सहजता से स्वीकारते चलते हैं। एक स्थान पर तो यह भी बताते हैं कि कैसे उस दिन वह झगड़े के मूड में थे और किसी को पीटने की सोच रहे थे (यद्यपि उन्होंने ऐसा किया नहीं)। एक और जगह वह अपने वरिष्ठ से बदला लेने की सोचते हैं पर उसकी अचानक मृत्यु की ख़बर से बेहद आहत और दुखी हो जाते हैं। पुस्तक में इन घटनाओं का समावेश लेखक की ईमानदारी और संवेदनशीलता का द्योतक है।
कई घटनाओं के माध्यम से उन्होंने पत्रकारिता से जुडी विवशताओं और यदा-कदा प्राप्त सुंदर पलों को भी सहेजा है। एक जगह वे अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए कहते हैं “मीडिया के अन्दर की राजनीति आम लोग नहीं जानते।”
“एक पत्रकार अपनी ही रिपोर्ट नहीं देख पा रहा।”
उन्हें बेहद दुःख था कि कैसे 2014 में मोदी जी के दुमका आगमन पर उनके द्वारा लिखी गई रिपोर्ट को राँची के रिपोर्टर सौरभ के नाम से प्रकाशित किया गया। आगे लिखते हैं कि “छोटे शहर के हरेक पत्रकार का सपना होता है कि वह प्रधानमन्त्री को कवर करे।” यह एक वाक्य इस घटना से उपजी मायूसी की कहानी कह देता है।
इस पुस्तक में लेखक ने आत्मग्लानि से भरा एक किस्सा भी साझा किया है कि कैसे उन्होंने एक बार शिबु सोरेन से यह प्रश्न पूछा कि “आपने दुमका के लिए क्या किया।? और उनका जवाब “संपादक ने सिखाकर भेजा है?” …..सुनकर वे शर्म से गड़े रह गए थे।
प्रसन्नता भरे क्षण भी – “फ्रंट पेज पर न्यूज़ छपने से उत्साह कितना बढ़ जाता है!”
“रांची ऑफिस में मेरा स्वागत चीरूडीह के नायक के रूप में हुआ।”
कुल मिलाकर ‘हिंदुस्तान टाइम्स के साथ मेरे दिन’ पुस्तक को पढना न सिर्फ़ पत्रकारिता से जुड़े हुए हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है बल्कि इसमें रूचि रखने वालों के लिए भी उतनी ही जरुरी है जिन्हें इसमें सिर्फ़ ‘ग्लैमर’ नज़र आता है। यह भी संभव है कि पत्रकारिता जगत की गन्दी राजनीति के बारे में साफ़-साफ़ शब्दों में चर्चा करती घटनाएँ पढ़कर कुछ लोगों को शर्मिंदगी का अहसास हो पर उम्मीद यह है कि स्थितियाँ बेहतर हो जाएँ। और जो कर्त्तव्यनिष्ठ, ईमानदार पत्रकार हैं वे डॉ. ब्रजेश वर्मा के इस वाक्य को प्रेरणास्त्रोत बना चैन से जी सकते हैं –
“मुझे हजार बार जमीन के नीचे दफ़न किया गया, मैं हर बार फिर से बाहर निकल आया।”
मेरी राय है कि इस पुस्तक पर फ़िल्म बननी चाहिए। अशेष शुभकामनाएँ और बधाई!
– प्रीति ‘अज्ञात’
समीक्ष्य पुस्तक – हिंदुस्तान टाइम्स के साथ मेरे दिन
लेखक- डॉ. ब्रजेश वर्मा
प्रकाशन वर्ष- 2017
प्रकाशक- नोशन प्रेस प्रकाशन
मूल्य- रु.150/-
– प्रीति अज्ञात