आलेख
हिंदी सिनेमा के आईने में ‘थर्ड जेंडर’: निकिता जैन
कहते हैं कि साहित्य समाज का आईना होता है अर्थात साहित्य समाज का परिचय उस कुरूप चेहरे से करवाता है, जिसे समाज ने अपनी कृत्रिम परम्पराओं के श्रृंगार से ढँका हुआ है। साहित्य के अलावा सिनेमा का भी यही कार्य है। सिनेमा भी समाज की बनायी हुई उन कमज़ोर परम्पराओं को धराशायी करने का प्रयास करता है, जो कि समाज की उन्नति में बाधक हैं। हालाकि भारतीय सिनेमा की बात की जाए तो यहाँ ऐसी फिल्में कम ही बनती हैं जो सच्चाई के अधिक निकट हों या जो सड़ी हुई परम्पराओं को जड़ से उखाड़ फेंकने का दम रखती हों। इसका सबसे पहला कारण है हमारे भारतीय दर्शक जो समाज के संवेदनशील मुद्दों के प्रति उदासीन हैं और फिल्मों में दिखाई जाने वाली कहानी उनके लिए केवल मनोरंजन से अधिक कुछ भी नहीं है। दूसरा कारण है हमारे भारतीय निर्माता एवं निर्देशक अच्छी एवं गंभीर फिल्म बनाने से ज्यादा रूचि इस बात में रखते हैं कि फिल्म अपने बजट से दोगुना कैसे कमाएगी।
21वीं सदी में रहते हुए भी हमारी सोच उतनी परिपक्व नहीं हो सकी, जितना हम सोचते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ‘थर्ड जेंडर’ के प्रति हमारा रवैया। थर्ड जेंडर का नाम सुनते ही हमारे चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान आ जाती है क्योंकि ‘थर्ड जेंडर’ के लोगों को हम इंसान मानते ही नहीं हैं। हमारे लिए इंसान का मतलब है ‘स्त्री या पुरुष’ बस! अब इसके बाद जो भी हैं वो या तो भगवान की गलती है या फिर उनके पिछले जन्म के कर्म ऐसे हैं जिन्हें ये रूप मिला। समाज एवं हमारे इस व्यवहार का ही ये नतीजा है कि आज जब भारतीय न्याय व्यवस्था ने भी ‘थर्ड जेंडर’ को कानूनी रूप से मान्यता प्रदान कर दी है, इसके बावजूद अभी भी हम इस वर्ग को समाज का हिस्सा नहीं मान पा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि साहित्य एवं सिनेमा दोनों माध्यम इस वर्ग के प्रति उदासीन रहे हैं। अर्थात दोनों ही माध्यमों ने ‘थर्ड जेंडर’ पर विचार-विमर्श देर से शुरू किया है।
अगर हिंदी सिनेमा के सौ वर्षों पर एक नज़र डालें तो हम देखेंगे कि अधिकतर फिल्में ‘थर्ड जेंडर’ जैसे संवेदनशील मुद्दे का परिहास उड़ाती हैं। ‘थर्ड जेंडर’ जिसे हम आम भाषा में किन्नर या हिजड़ा बोलते हैं, इन्हें फिल्मों में या तो भयावह रूप में चित्रित किया गया है या फिर ऐसे रूप में जिसके कारण दर्शक हमेशा लोट-पोट होकर हँसते थे। दरअसल कमी केवल साहित्य या सिनेमा की नहीं है बल्कि हमारी भी है कि हम कभी भी इन हँसाने वाले चेहरों के पीछे छुपे दर्द को नहीं समझ पाए। हमारे लिए हिजड़े का एक ही मतलब था जो ख़ुशी के अवसर पर ताली पिट-पिट कर कुछ पैसे के ऐवज में अपनी दुआएं दे जाएँ। समाज से अलग हाशिये पर पड़े रहने की उनकी पीड़ा और दर्द को न तो कभी हम देख पाए, न ही महसूस कर पाए।
हिंदी सिनेमा की अगर हम बात करें तो सन् 1974 में आई फिल्म ‘नया दिन नयी रात’ में संजीव कुमार ने यूँ तो नौ किरदारों को निभाया था लेकिन उनके द्वारा अभिनीत ट्रांसजेंडर के किरदार को शायद ही कोई भूल पाया है। अगर गौर किया जाए तो शायद ये ऐसी पहली फिल्म होगी, जिसमें एक मेन लीड एक्टर ने इस प्रकार का किरदार निभाया हो। ये बात और है कि इस फिल्म में ट्रांसजेंडर की समस्याओं को उस रूप में चित्रित नहीं किया गया है लेकिन हिंदी सिनेमा में ‘थर्ड जेंडर’ से सम्बंधित मुद्दों के लिए एक रास्ता खुल चुका था, हालांकि इसे आकार लेने में कई साल लग गए। इस फिल्म के बाद कई फिल्में आयीं, जिनमें हास-परिहास या हीरो-हीरोईन की मदद के लिए ऐसे किरदारों को फिल्म में जान-बूझकर डाला जाता था। एक-दो इमोशनल डायलॉग और चार-पांच सीन तक ही सीमित रहता था ‘ट्रांसजेंडर’ का किरदार। सन् 1977 की फिल्म ‘अमर अकबर अन्थोनी’ का एक मशहूर गाना ‘तैय्यब अली प्यार का दुश्मन हाय-हाय’ काफी मशहूर हुआ था। फिल्म में ऋषि कपूर अपनी प्रेमिका के पिता को सबक सिखाने के लिए कुछ एक किन्नरों को पैसे देकर उनके साथ मिलकर ये गाना गाते हैं।
स्पष्ट है कि हिंदी फिल्मों को हिट कराने में शुरू से ही इस वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। महेश भट्ट द्वारा निर्देशित सुपरहिट फिल्म ‘सड़क’ में सदाशिव अमरापुरकर ने ‘महारानी’ के किरदार को सदियों के लिए यादगार बना दिया था। इससे पहले ‘ट्रांसजेंडर’ का ये रूप हिंदी सिनेमा में शायद ही देखने को मिला हो। इस फिल्म के साथ ही देह व्यापार का वो कड़वा सच भी हमारे सामने आता है जिसने ‘किन्नरों’ को भी नहीं बख्शा था। हालाकि फिल्म में ‘महारानी’ एक क्रूर एवं देह व्यापार को बढ़ावा देने वाली शख्सियत के रूप में उभरती है लेकिन उसकी मजबूरी का पता तब चलता है जब वह कहती है- “रोने से अगर तकदीर बदलती तो मैं अपनी नहीं बदल लेती, लोगों ने मुझे नामर्द कहा, हिजड़ा कहा! लेकिन मैं इस सच को कभी नहीं बदल पायी कि मैं हिजड़ा हूँ।” फिल्म का ये संवाद किन्नर होने के दर्द को बखूबी दर्शाता है। ज़ाहिर-सी बात है कि कोई अपनी मर्ज़ी से ‘ट्रांसजेंडर’ होना नहीं चाहेगा। ये तो प्रकृति का खेल है। लेकिन दुःख इस बात का है कि समाज ने कभी भी ‘थर्ड जेंडर’ की भलाई के लिए कदम नहीं उठाये। उन्हें मजबूर कर दिया अपना एक अलग समाज बनाने को जहाँ पर न तो उनके अधिकार हैं और न ही इज्ज़त। उनसे सहानुभूति रखने के बजाय उल्टा उनकी इस परिस्थिति के लिए हम उनको ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं। शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप को पूजने वाले हम ‘किन्नरों’ को गाली देने से नहीं हिचकते। सड़क पर चलते हुए या गाड़ी में बैठे हुए इनकी शक्ल देखते ही हमें गुस्सा आ जाता है। मन एक अजीब सी कड़वाहट से भर जाता है लेकिन कभी क्या किसी ने उनकी आँखों में छुपी बेबसी को देखा, किसी ने ये सोचा कि क्यूँ ये गुस्सा हम अपने आप पर नहीं दिखाते, जिन्होंने इनके पूरे अस्तित्व को ही समाज से बहिष्कृत कर रखा है।
यह बात हम भली-भांति समझते हैं कि इंसान अच्छे बुरे होते हैं न कि एक विशेष धर्म या जेंडर। लेकिन अधिकतर फिल्मों में ‘थर्ड जेंडर’ के नेगेटिव रूप को ही चित्रित किया है। आश्चर्य की बात यह है कि इस नेगेटिव रूप को हम किन्नर समाज का असल रूप ही मान बैठे थे। हमारी इस नकारात्मक धारणा के आईने में तरेड़ डालती है सच्ची घटना पर आधारित महेश भट्ट की फिल्म ‘तमन्ना’। इस फिल्म में केवल ‘ट्रांसजेंडर’ जैसे संवेदनशील मुद्दे को ही नहीं उठाया गया बल्कि यह भी दिखाया गया है कि इंसानियत किसी विशेष वर्ग या धर्म की जागीर नहीं है, जो कुल एवं धर्म के साथ ही आएगी। परेश रावल ने ‘किन्नर’ के किरदार को इस फिल्म में जीवंत कर दिया है। पराये की बेटी को अपनी बेटी मानकर पालना, पूरे किन्नर समाज से उस अनजान लड़की के लिए लड़ना, जिससे उसका कोई नाता नहीं था, इंसानियत की एक अनूठी मिसाल है। इस फिल्म में एक साथ कई मुद्दों की ओर दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया गया। यह फिल्म उन सभी ‘ट्रांसजेंडर्स’ का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्हें समाज की मुख्यधारा से अलग कर दिया गया है लेकिन उन्होनें कभी-भी स्वयं को इस समाज व इंसानियत से अलग नहीं समझा। इस फिल्म की खूबी ये है कि ये फिल्म किसी लेखक की कोरी कल्पना नहीं है बल्कि सच है। समाज के द्वारा दी गयी नफरत में भी यह इंसानियत का फूल खिला रहे हैं- फिल्म का यही सन्देश है।
‘तमन्ना’ फिल्म के बाद हिंदी सिनेमा में कुछ बदलाव देखने को मिलता है। थर्ड जेंडर को लेकर कई सशक्त फिल्मों का निर्माण किया गया। 1997 में ही रिलीज़ हुई ‘दरमियाँ: इन बिटवीन’ कल्पना लाज़मी द्वारा निर्देशित फिल्म थी। कल्पना लाज़मी ने बड़ी ही खूबसूरती के साथ 1940 के दशक की फ़िल्मी दुनिया की सच्चाइयों को प्रदर्शित करते हुए एक सिने तारिका की निजी ज़िन्दगी को परदे पर प्रस्तुत किया है। फिल्म में एक ओर किरण खेर एक मशहूर हीरोइन हैं। समय की मार ने उनकी चेहरे की झुर्रियों के साथ उनकी मुश्किलों को भी बढ़ा दिया है। दूसरी तरफ उनकी अपनी ही संतान जो कि ‘किन्नर’ है। लेकिन हालात ऐसे बदलते हैं कि उसी संतान को मजबूर होकर अन्य किन्नरों के साथ मिलकर न केवल नाचना-गाना पड़ता है बल्कि अपनी इज्ज़त को भी नीलाम करना पड़ता है। फिल्म में केवल ‘किन्नरों’ की ज़िन्दगी में आने वाली मुश्किलों को चित्रित नहीं किया गया है बल्कि ये भी दिखाया गया है कि एक माँ चाहते हुए भी उसकी परवरिश एक सामान्य बच्चे की तरह नहीं कर पाती है। एक ओर अपनी संतान को समाज की नज़रो से बचाकर रखना उसकी मजबूरी है ताकि उसके दामन में कोई दाग न लगे तो दूसरी ओर माँ की वो पीड़ा जो उसे अपने बच्चे से अलग नहीं होने देती।
समाज के अजीब नियमों पर एक तीखा व्यंग्य इस फिल्म द्वारा किया गया है कि अगर कोई माता-पिता अपनी ‘किन्नर’ संतान को अपने पास ही रखकर उसका पालन-पोषण करना चाहते हैं तो उनसे यह अधिकार क्यूँ छीन लिया जाता है? क्यूँ उस बच्चे को समाज की उन अंधेरी गलियों में ही ज़िन्दगी बिताने के लिए मजबूर किया जाता है? ऐसे ही कई प्रश्नों को केंद्र में रखकर फिल्म उसके जवाब खोजने का प्रयास करती है। इसके साथ ही किन्नर समाज में प्रचलित जिस्मफरोशी को भी एक समस्या के रूप में प्रतिपादित किया गया है कि कैसे समाज के ठेकेदार दिन के उजाले में इनको गालियाँ देते हैं तथा रात के अँधेरे में इनकी ही इज्ज़त को तार-तार कर देते हैं। जिस सामाजिक व्यवस्था के अंग होने पर हमें गर्व महसूस होता है, जिस परंपरा का हम दंभ भरते हैं उसी संस्कृति की फिल्म में धज्जियाँ उड़ाई गयी हैं।
थर्ड जेंडर पर बेस्ड अधिकतर फिल्में ज़हन में एक सवाल छोड़ जाती हैं कि क्या सच में हम लोग इंसान कहलाने लायक हैं?
सन् 2005 में आई फिल्म ‘शबनम मौसी’ कई मायनों में ट्रांसजेंडर्स पर बनी हुई फिल्मों से अलग थी। 1994 में ‘थर्ड जेंडर’ को वोट डालने का अधिकार प्राप्त हुआ तथा ठीक उसके पांच साल बाद भारतीय इतिहास में पहली बार किसी ट्रांसजेंडर को एम.एल.ए. चुना गया। यह किन्नर समाज की ऐतिहासिक जीत थी। शबनम मौसी की इसी कहानी को फिल्म में दिखाया गया है। किन्नर से एम.एल.ए. तक के उनके सफ़र को परदे पर आशुतोष राणा ने जीवंत कर दिखाया। सिनेमाई आलोचकों की दृष्टि से फिल्म असफल भले ही रही हो लेकिन समाज में आये इस परिवर्तन ने ‘थर्ड जेंडर’ के लिए कई मार्ग खोल दिए। हिंदी सिनेमा भले ही देर से इस वर्ग की ओर मुखातिब हुआ हो लेकिन अब इस मुद्दे को बड़ी गंभीरता के साथ फ़िल्मी परदे पर प्रस्तुत किया जा रहा है। सन् 2011 में आई फिल्म ‘क्वीन्स! डेस्टिनी ऑफ़ डांस’ इस बात का प्रमाण है कि केवल इस वर्ग की समस्याओं को ही केंद्र में नहीं रखा जा रहा बल्कि उनके जीवन जीने के ढंग, उनकी इच्छाओं, उनके सपने को भी फिल्म में चित्रित किया जा रहा है। ‘थर्ड जेंडर’ मुद्दे को उसके मुकाम तक पहुँचने में बहुत वक़्त लगेगा। हालाँकि अब कई अधिकार इस वर्ग को दे दिए गए हैं लेकिन आज भी किन्नर समाज मुख्यधारा से अलग ही है। इसे मुख्यधारा में शामिल करने का कर्तव्य न केवल फिल्मों का है बल्कि हमारा भी है कि हम समय-समय पर इनसे जुड़े मुद्दों को उठाते रहें तथा इन्हें एक नए संसार से रूबरू कराएँ क्योंकि फिल्में समाज का वह दर्पण हैं जो कि हमारे प्रतिबिम्ब को ही प्रदर्शित करती हैं इसलिए पहल हमें ही करनी होगी।
– निकिता जैन