आधी आबादी: पूरा इतिहास
हिंदी साहित्य की आलोचना विधा को सम्मृद्ध करतीं: डॉ. मीना बुद्धिराजा
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव
समकालीन आलोचना के उभरते हुए समालोचकों में मीना बुद्धिराजा का नाम विशेष उल्लेखनीय है। वर्तमान समय में सभी ऑनलाइन और ऑफलाइन पत्रिकाओं में इनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं। इन पत्रिकाओ में पहल, आजकल, समालोचन, लमही, जनसत्ता आदि प्रमुख हैं। मीना जी का जन्म 31 जुलाई, सन 1967 ई. को हुआ है। वर्तमान समय में मीना जी एसोसोएट प्रोफेसर अदिति महाविद्यालय में कार्यरत हैं। इनकी निराला के आलोचनात्मक निबंध नामक पुस्तक प्रकाशित हुई है और अब तक इन्होंने सौ से भी ज्यादा लेख लिखकर हिंदी साहित्य की आलोचना विधा को सम्मृद्ध किया है।
साहित्य के संदर्भ में मीना जी कहती हैं कि साहित्य अंततः मानव मूल्यों को बचाने का ही महत्वपूर्ण प्रयास है। हर युग का साहित्य अन्याय, शोषण और विषमता के प्रतिरोध में खड़ा होता है। एक रचनाकार के लिए अपने सामाजिक, राजनीतिक, व्यवस्था के यथार्थ का प्रभाव और परिवेश के दबावों से परिवेश निरपेक्ष रहना संभव नहीं है। अन्यथा उसका साहित्य अपने रचना का प्रभाव और सार्थकता खोने लगता है।
मीना जी विषय पर बारीक पकड़ और रचना के लिए अनुभूति, कल्पना और विचार तीनों का गुम्फन अनिवार्य मानती हैं और यह जरूरी भी है। रचनाकार तभी लिख सकता है, जब उसके पास स्वयं की अनुभूति हो। अपनी अनुभूति को वह कल्पना और अपने विचारों पर कसकर ही किसी कृति का सृजन करता है। जाहिर-सी बात है, जब इन तीनों दृश्यों से किसी रचनाकार की समीक्षा की जाएगी तो सदैव उत्कृष्ट ही होगी। वस्तुत: मीना जी मानती हैं कि ‘साहित्य का मूल उद्देश्य सामूहिक अस्मिता के मूल उद्देश्यों को पूरा करने, जीवन में अदम आस्था और संकिर्णता, उसकी सीमाओं से मुक्त विराट जनजीवन कि वैश्विक दृष्टि में समाहित होता है।’ (जनसत्ता से सभार)
रचनाकारों को देखने की मीना जी की दृष्टि परंपरा और आधुनिकता के मध्य से गुजरती है। न वह पूरी तरह से परंपरा को छोड़कर चलती हैं और न ही आधुनिकता का इतना वरण है कि रचना का मूल ही नष्ट हो जाए। इनकी आलोचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कृति में परंपराओं को भी देखती हैं और वर्तमान परिस्थितियों के मध्य आधुनिकता के बीज भी तलाशती हैं। कृतियों में निहित संवेदना और उसका उद्देश्य लेखक की दृष्टि से तथा पाठक की दृष्टि से कैसे साहित्य को समृद्ध करेगा, इसकी पूरी पड़ताल करना वह अपना फर्ज समझती हैं। एक सफल आलोचक की यही पहचान है। मीना जी इस कसौटी पर खरा उतरती हैं।
जब तक हम किसी भी रचना के रूप विन्यास पर दृष्टि नहीं डालते हैं, तब तक उस रचना को समझ नहीं सकते। हर रचना को समालोचित करते हुए मीना जी इस पक्ष पर सदैव बल देती हैं। किरण सिंह द्वारा लिखित उपन्यास की पड़ताल करते हुए मीना जी कहती हैं कि रूप विन्यास आदि की दृष्टि से एक नया प्रयोग है। इसे न तो हम लंबी कहानी कह सकते हैं और न ही उपन्यास कह सकते हैं। इस दृष्टि से लघु उपन्यास कहना ज्यादा श्रेष्ठकर है। वह आगे कहती है कि “लोक प्रचलित कथानक और मुझको की पुनर्व्याख्या नए संदर्भ में करने के लिए लेखिका ने जिन नाटकीय युक्तियों और कथा प्रवाह का प्रयोग किया है, वह स्त्री जीवन से जुड़े सभी पक्ष और त्रासदी को जीवंत करने के लिए ही कार्य करते हैं।” (समालोचन से साभार)
मीना जी रचनाकार के साथ पूरी विधा पर भी केंद्रित रहती हैं। वह कहती हैं कि “कहानी आज भी समकालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम बनी हुई है क्योंकि हमारे समय और परिवेश के विरोधाभास और व्यक्ति के अंतर्द्वन्द्व को इससे ज्यादा जीवंत रूप से कोई अभिव्यक्त नहीं कर सकता। अपने समय के परिवर्तनों के तनाव और दबावों से जूझे बिना कोई कथाकार नहीं रह सकता। इक्कीसवीं सदी की भावभूमि तकनीकी ज्ञान के अतिरेक और सूचनाओं के महाजंजाल और मुक्त बाज़ारवाद के बेतहाशा प्रभाव से आभासी यथार्थ के भ्रम में जीने का सबसे कठिन जटिल समय है। जिसने समाज की सरंचना ही नहीं, मानवीय संवेदनाओं और संबंधों का जो बिखराव और आघात किया है, वह आज का भयावह सच है। अतः आज हिंदी कहानी इन परिस्थितियों और आसपास के तीव्र बदलाव को दृष्टि में रखकर ही रची जा रही है।” यहाँ पर मीना जी कहानी विधा के वर्तमान परिदृश्य तक को पाठक के समक्ष ला देती हैं, जिससे पढ़ने वाला उस परिदृश्य में उस परिवेश से कहानी को जोड़ ले।
इसीलिए मन्नू भंडारी की कहानियों को विश्लेषित करते हुए वह परिवेश को केंद्र में रखते हुए कहती है कि “मन्नू भंडारी की कहानियों में अपने परिवेश की सुकृति के साथ, भोगा हुआ यथार्थ जिस सहज समृद्धि संरचना के प्रामाणिक किंतु परिचित एवं आत्मीय भाषा शिल्प में पाठकों तक संप्रेषित होता है, वह असाधारण है।” (आजकल, जून 2019, पृष्ठ- 27)
आज का यह सच है कि अब “स्त्री रचनाकार भी समकालीन यथार्थ की ठोस ज़मीन पर खड़े होकर ही तीव्र गति से बदलते सामाजिक, आर्थिक परिवेश के बीच युवा पीढ़ी के लिए उत्पन्न नई जटिलताओं के बीच उनकी त्रासदी को उतनी ही सच्चाई और जीवंतता से प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। स्त्री पुरुष के जेंडर भेद से ऊपर यह सशक्त कथाकार एक संवेदनहीन और रिक्त हो चुके समय में निस्वार्थ मानवीयता की खोज करती हैं।”
बारिशगर उपन्यास (लेखिका प्रत्यक्षा) के संबंध में मीना जी पूरी तरह से डूब जाती हैं और उपन्यास के मूल सार को स्त्री की दृष्टि से देखते हुए कहती हैं कि “प्रत्यक्षा मजबूती से अपनी सभी स्त्री नायिकाओं के साथ खड़ी हैं और वह पाठकों की संवेदनाओं का हिस्सा भी बनते हैं। परंपरागत लीक से हटकर दीवा स्त्री के अस्तित्व का जो नया भाष्य रचती है, उसमें चाहे जितनी भी स्वच्छंदता, उन्मुक्तता और खुलापन हो लेकिन पाठक कहीं भी उसके प्रति अनुदार नहीं होता है।” (समालोचन से साभार)
इसी प्रकार अल्पना मिश्र के उपन्यास ‘अस्थि फूल’ से गुजरते हुए वह बताती है कि “अस्थि फूल उपन्यास स्त्री विमर्श के सीमित दायरे से बहुत आगे की रचना है, जो झारखंड आंदोलन और विस्थापन के बहुआयामी पर्त तथा अर्थ के सवालों से जूझता, संघर्ष करता, अपनी जमीन, जंगल, खनिज संपदा, नदियाँ, पहाड़ और प्रकृति को बचाने के लिए लड़ता और इसी के बीच वहाँ की युवतियों स्त्रियों को बाजार में बेचे जाने की वास्तविकता को सामने लाने की दारुण कथा का महाआख्यान है।” (आजकल, मार्च 2020, पृष्ठ- 44)
आलोचना की एक बड़ी विशेषता है कि वह अपने साथ संदर्भ बहुत प्रस्तुत करता है। इससे समीक्षा का कार्य भी आसान हो जाता है और पाठक के लिए भाव को ग्रहण करने में भी सुलभता होती है। और एक अच्छे समालोचक का यह गुण मीना जी में भी विद्यमान है। प्रत्यक्षा के ‘बारिशगर’ उपन्यास की समालोचना करते हुए मीना जी विनोद कुमार शुक्ल की कविता तक पहुँच जाती हैं। विनोद कुमार से जोड़ते हुए वह प्रत्यक्षा के वैशिष्ट्य को रेखांकित करती हैं। यह तथ्य उनके कुशल समीक्षक के साथ उनके गहन अध्ययन का भी परिचायक है। वह कहती हैं कि दीवा के माध्यम से घर को अनेक अर्थों में खारिज करने और पुनः उपलब्ध करने की महत्ता का सभ्यता मूल विमर्श भी इस उपन्यास के कथा में पिरोया गया है, जैसे सुप्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी एक लोकप्रिय कविता में कहा है- ‘दूर से अपना घर देखना चाहिए।’ और इसके बाद वह पूरी कविता का उद्धरण और उपन्यास को एक साथ बांध देती हैं। दोनों रचनाओं का साम्य-वैषम्य सहजता से पाठक के समक्ष उपस्थित हो जाता है। यह आलोचक का वैशिष्ट्य बन जाता है।
राकेश रेणु की कविताओं से गुजरते हुए मीना जी कहती हैं कि रेणु की रचनाओं में जीवन के प्रति उत्कट प्रेम दिखता है, जो विभिन्न कैनवास पर विभिन्न रंगों के साथ उपस्थित होता है। अब एक रचनाकार के लिए उसकी रचनाओं को पाठकों के समक्ष खोलने के लिए इससे अच्छा उदाहरण दो पंक्तियों में और क्या दिया जा सकता है।
वस्तुतः मीना जी की यही विशेषता मुझे बहुत अच्छी लगती है कि वह कम शब्दों में समीक्षा को पूरी तरह से खोल देती हैं। हाँ, एक बात अवश्य खटकती है कि भाषा बड़ी उत्कृष्ट श्रेणी की है और शब्द कहीं-कहीं क्लिष्ट भी हैं, जो एक साधारण पाठक के लिए थोड़ी परेशानी बन सकते हैं। क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि हिंदी को पढ़ने वाला पाठक हिंदी का विद्वान ही हो। कुछ शब्द ऐसे हैं, जो कठिनता उत्पन्न करते हैं पर समीक्षा के दौरान वह कहीं भी अटपटे नहीं लगते हैं। अब यह मेरी दृष्टि का परिचायक है। यह संभव नहीं है कि सभी को ऐसा प्रतीत हो। परंतु भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति नहीं बल्कि अपने समय का गवाह भी होती है इसलिए उत्कृष्ट भाषा का प्रयोग अपनी उपयोगिता सदैव रखेगा। इस दृष्टि से यह मीना जी की कमी नहीं बल्कि खासियत को ही बताता है।
मीना जी की समीक्षा को पढ़कर भीतर तक यह महसूस होता है कि बिना आत्मीय लगाव के समीक्षा करना, वह भी इतनी भीतरी पर्त तक गुजर जाना संभव नहीं है। मीना जी की समालोचना की यह सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती है कि वह कृति और कृतिकार दोनों को पढ़ती हैं, उसे भीतर तक महसूस करती हैं, उससे एक आत्मीय संबंध बनाती हैं और उसके पश्चात उस पर लिखती हैं। जाहिर-सी बात है, समीक्षा का यह कार्य आसान नहीं है।
“कवि कर्म एक मानवीय गतिविधि है, जिसमें मनुष्यता निवास करती है।” कवि के संदर्भ में यह उक्ति मीना जी की परिपक्वता का परिचायक है। वास्तव में देखा जाए तो वाकई में कविता का कार्य मनुष्य बनाना ही है। कुमार अंबुज की कविताओं से गुजरते हुए मीना जी इसी पड़ताल को केंद्र में रखती हैं।
कवियों के संदर्भ में बात करते हुए मीना जी दो-तीन तत्वों पर विशेष तौर पर ध्यान देती हैं। पहला है- कविता की मूल संवेदना और कवि की संप्रेषण क्षमता, दूसरा है- कृतिकार और कथित का परंपरा से कहाँ जुड़ाव हो रहा है। इन दोनों तत्वों को सामने रखकर वह कविता का मूल्यांकन करती हैं। कथा साहित्य के संदर्भ में भी इन दो तत्वों का समावेश करती हैं। इसके साथ ही मीना जी की आलोचना की एक और सबसे बड़ी विशेषता है, वर्तमान संदर्भ में प्रचलित विभिन्न विचारों, वादों आदि को साथ में रखकर कृति का मूल्यांकन। भाषा और भाव की दृष्टि से मूल्यांकन बड़े सधे हुए होते हैं और कहीं भी अतिरिक्तता का एहसास नहीं होता है। परिपक्व समालोचक की यह खासियत होती है, जो मीना जी में है।
कवयित्रियों के संदर्भ में मीना जी का नजरिया एकदम स्पष्ट है। “कविता में स्त्री और स्त्री में कविता की बात अगर की जाए तो हिंदी कविता के समकालीन परिसर में स्त्रीवाद के वैचारिक और गंभीर अस्मिता विमर्श की दृष्टि से स्त्री के पक्ष में बोलने वाली कविता अपना विशेष महत्व रखती है। स्त्री विमर्श के समकालीन दौर के संघर्ष का चित्र अलग-अलग रूप में कविताओं में हो रहा है। अनामिका एक अस्तित्व के रूप में स्त्री होने को कभी करती नहीं बल्कि गरिमा के साथ स्त्री होने को स्वीकारती हैं। क्योंकि एक रचनाकार के रूप में स्त्री का व्यक्तित्व अपनी अस्मिता के होने को भी सभी भेद-प्रभेदों के बीच से निकलकर, गुजर कर अपनी पहचान बना पाता है और फिर एक विशिष्ट मनोविज्ञान को रचता है, जिसे समग्रता से अनुभव किए बिना न तो कोई एहसास होता है न विचार, न कल्पना, न अंतर्दृष्टि।” (साहित्य समर्था, वर्ष 3, अंक 9, अक्टूबर-दिसंबर 2019, पृष्ठ- 27)
एक अच्छे आलोचक के साथ-साथ मीना जी अच्छी कवयित्री भी हैं और इनकी भाषा का स्तर वही है, जो समीक्षा का रहा है। भाषा में वही परिपक्वता विचारों में वही घनापन इनकी कविताओं में भी हमें देखने को मिलता है। एक उदाहरण देखा जा सकता है-
आधुनिक होने की आड़ में
अमानवीय हो जाने की यंत्रणा
अब सामूहिक नियति है
नैतिकता पर बहस अब निरर्थक है
सबकुछ तय करेगा बाज़ार ही
मीना जी का मानना है कि कविता वैयक्तिक अंतर्लाप है पर अभिव्यक्ति के बाद वह मानव और समाज की हो जाती है। जाहिर-सी बात है, जो रचनाकार इतना सचेत है, उसकी कविताएँ कितनी सचेत होंगी। यह कहने की आवश्यकता नहीं।
निराश अँधेरों के विरूद्ध
स्मृतियों और स्वप्नों में
कुछ रंगो को
आखिर फिर भी बचा लेते हैं
किसी उम्मीद को
हारते हुए लिखने का
जोखिम
बचाए रखना जरूरी है
इस बचाए रखने की उम्मीद के साथ हम यह आशा करते हैं कि मीना जी अपने सृजन से हिंदी साहित्य को और समृद्ध करेंगी।
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव