हिंदी साहित्य का आदिकाल
हिन्दी साहित्य का नाथ सम्प्रदाय
– डाॅ. मुकेश कुमार
नाथ परम्परा के प्रवर्तक गुरु गोरखनाथ जी माने जाते हैं। परन्तु गोरखनाथ का कुछ भी ऐतिहासिक वृत्त नहीं मिलता। न उनकी जन्मतिथि का पता, न उनकी मृत्यु का। जन्मस्थान का भी कोई अता-पता नहीं है। उनके नाम पर लिखे गये संस्कृत ग्रन्थ की प्रामाणिकता संदिग्ध है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में “शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग ही था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे।”
वज्रयानी सिद्धों के भोगप्रधान योगसाधना की प्रतिक्रियास्वरूप विकसित साहित्य नाथ-साहित्य है, जिसमें हठयोग साधना का उपदेश दिया गया है। सब नाथों के प्रथम आदिनाथ शिव माने जाते हैं। डॉ. विवेकशंकर लिखते हैं- नाथ साहित्य के आदि प्रवर्तक चार महायोगी माने जाते हैं, जिसमें आदिनाथ स्वयं शिव हैं। इनके दो शिष्य हुए- जालंधरनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ। जालन्धर के शिष्य थे- कृष्णपाद (कान्यापद, कान्हया, कानफा) और मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य गोरख (गोरक्ष) नाथ थे। नाथपंथ को चलाने वाले गोरखनाथ हैं। गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित योगिसंप्रदाय को ‘बारहपंथी’ भी कहते हैं।’’
नाथपंथ के जोगी कान की लो में बड़े-बड़े छेद करके स्फटिक के भारी-भारी कुंडल पहनते हैं, इससे कनफटे कहलाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं शिव थे। उनके पश्चात् मत्स्येन्द्रनाथ हुए, जिनके आचरण का विरोध उनके शिष्य गोरखनाथ ने किया।
गोरखनाथ के समय पर हिन्दी साहित्य के प्रमुख आलोचकों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। जिसमें पं. राहुल सांकृत्यायन ने गोरखनाथ का समय 845 ई. माना है, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी उनका समय नवीं शती मानते हैं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल उनका समय 12-13वीं शती बतलाते हैं और डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल इन्हें ग्यारहवीं शती का मानते हैं तथा डॉ. रामकुमार वर्मा शुक्ल जी के मत से सहमत हैं। डॉ. नगेन्द्र हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखते हैं कि नवीन खोजों के अनुसार यही धारणा अधिक प्रबल हुई है कि गोरखनाथ ने ईसा की 13वीं शती के आरम्भ में अपना साहित्य लिखा था। उनके ग्रंथों की संख्या चालीस मानी जाती है, किन्तु डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने 14 रचनाएँ ही उनके द्वारा रचित मानी हैं। डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने गोरखबानी (1930) नाम से उनकी रचनाओं का एक संकलन भी संपादित किया हैं, जिसकी कई रचनाएँ साहित्य की सीमा में आती हैं और ‘सबदी’ को वह सबसे प्रामाणिक मानते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोरखनाथ जी की 28 पुस्तकों का उल्लेख किया है। मिश्रबन्धुओं ने गोरखनाथ को हिन्दी का प्रथम गद्य-लेखक माना है, जो उचित नहीं ठहरता।
गोरखनाथ ने हठयोग का उपदेश दिया था। हठयोगियों के ‘सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति’ ग्रंथ के अनुसार ‘ह’ का अर्थ है- सूर्य तथा ‘ठ’ का अर्थ है- चन्द्र। इन दोनों के योग को ही हठयोग कहते हैं। गोरखनाथ ने ही षट्चक्र वाला योगमार्ग हिन्दी साहित्य में चलाया था। इस मार्ग में विश्वास करने वाला हठयोगी साधना द्वारा शरीर और मन को शुद्ध करके शून्य में समाधि लगाता था और वहीं ब्रह्म का साक्षात्कार करता था। गोरखनाथ ने लिखा है कि धीर वह है, जिसका चित्त विकार साधन होने पर भी विकृत नहीं होता।
नो लख पातरि आगे नाचैं, पीछे सहज अखाड़ा।
ऐसे मन लै जोगी खेलै, तब अंतरि बसै भंडारा।।
नाथ-पंथियों का मुख्य सम्प्रदाय गोरखनाथी योगियों का है, जिन्हें ‘कनफटा’ या ‘दर्शनी साधु’ भी कहा जाता हैं। नाथ योगी मेखला, श्रृङी, सेली, गूदरी, खप्पर, कर्णमुद्रा, बागम्बर, झोला आदि चिह्न धारण करते हैं और कान फाड़कर कुण्डल पहनते हैं। नाथ-पंथ में बहुत से योगी गृहस्थ भी हुए, किन्तु उनकी मर्यादा बुद्धहीन मानी जाती है।
वास्तव में गोरख-पंथ सिद्ध-युग और संत युग की कड़ी के रूप में है। उनके ग्रंथों की प्रश्नोत्तरी शैली ने आगे के संत कवियों को प्रभावित किया। ‘गोरखबानी’ में आत्मा, मन, पवन, नाद, बिन्दु, सुरति आदि का विवेचन मिलता है।
‘‘गोरखनाथ के पदों की प्रामाणिकता के बारे में भी संदेह हैं, किन्तु वे भी कबीर के पदों की भांति प्रचलित हो गये हैं। इन पदों में साधना, नैतिकता, गुरु, महिमा, मन के संयम, काम-क्रोध या आसक्ति न होना, ब्रह्मचर्य, शारीरिक एवं मानसिक पवित्रता, माँस आदि का परित्याग आदि बातों पर प्रकाश डाला गया है। सिद्धों में तो कुछ वीभत्स और अश्लील परिपटियाँ चल पड़ी थीं, किन्तु नाथ पंथियों ने अपने को उनसे अलग रख हठयोग द्वारा ईश्वर प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाया। व्यावहारिक दृष्टि से उनका योगमार्ग पतंजलि के योगसूत्र पर आधारित था। दार्शनिक दृष्टि से उनमें शिव-भक्ति की भावना पाई जाती है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड को वे सत्ता मानते हैं।
शिव की इच्छा ही शक्ति है। यह शक्ति अणु-परमाणु में व्याप्त है। इच्छा, क्रिया और ज्ञान रूप में उसका अनुभव किया जा सकता है। वही शक्ति कुण्डलिनी के रूप में शरीर में व्याप्त है। नाथमार्गी के लिए इस शक्ति की साधना प्रधान पिण्ड अर्थात् काया है। शक्ति उद्बुद्ध करने का लक्ष्य है शिव और शक्ति का सामरस्य रूप सहज समाधि। योग की सिद्धि के लिए इस शरीर को जानना आवश्यक है। वास्तविक मोक्ष केवल कुण्डलिनी को उल्लसित करने या अन्य किसी अनुष्ठान से प्राप्त नहीं होता। जब सहज समाधि द्वारा मन से मन को देखा जाता है तब जो अवस्था होती है, वही वास्तविक मोक्ष है। डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय लिखते हैं, “गोरखनाथ ने जिस हठयोग का उपदेश दिया है, उसमें परम्परा के अनुसार प्राणायाम से वायु का निरोध कर सिद्धि प्राप्त करना ही मुख्य है। हठयोग प्राणवायु का निरोध कर कुण्डलिनी को उद्बुद्ध करता है, और षट्चक्रों को भेदता हुआ उसे सहस्रार या शून्य में मिलाता है। जहाँ शिव का निवास है वहीं कैलाश है। इसी प्रकार गोरखनाथ के अनुसार जो व्यक्ति चक्रों, नाड़ियों आदि को नहीं जानता, वह सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। शक्ति की जब शिव के साथ समरसता होती है तभी योगियों को कैवल्य पद वाली सहज समाधि प्राप्त होती है, जिससे बढ़कर कोई और आनन्द नहीं। और यह सब गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।”
नाथ-पंथी एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे। उनके सम्प्रदाय में मूर्ति-पूजा और बहुदेववाद के लिए कोई स्थान नहीं था। वे हमेशा परमात्मा को अपने हृदय में खोजने पर बल देते थे।
गोरख सिद्धांत संग्रह में नौ (9) नाथों के नाम इस प्रकार बताए गए-
1. नागार्जुन
2. जड़भरत
3. हरिश्चन्द्र
4. सत्यनाथ
5. भीमानाथ
6. गोरखनाथ
7. चर्पट
8. जलंधर
9. मलयार्जुन
डॉ. रामकुमार वर्मा ने नौ नाथों के नाम निम्न प्रकार से बताए-
1. आदिनाथ
2. मत्स्येन्द्रनाथ
3. गोरखनाथ
4. गहिणीनाथ
5. चर्पटनाथ
6. चौरंगीनाथ
7. ज्वालेन्द्रनाथ
8. भर्तृहरिनाथ
9. गोपीचंद नाथ
नोट- नागार्जुन एक प्रसिद्ध रसायनज्ञ थे, जिनका समय संवत् 702 माना जाता है।
उपरोक्त विवेचित नामों में नागार्जुन (प्रसिद्ध रसायनी) चर्पटनाथ, जालंधर की गणना सिद्धों में भी होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है कि जालंधर से ही सिद्धों से नाथों की परम्परा अलग हो जाती है। नाथ सम्प्रदाय से संबंधित आलोचकों के विचार निम्न प्रकार से हैं जो अतिस्मरणीय है।
राहुल सांकृत्यायन- “नाथंपथ सिद्धों की परम्परा का विकसित रूप हैं।”
डॉ. नगेन्द्र- “सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योगसाधना की प्रतिक्रियास्वरूप आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना प्रारम्भ हुई।”
डॉ. रामकुमार वर्मा- “नाथों का समय 12वीं सदी से 14वीं सदी के अन्त तक है।”
हजारी प्रसाद द्विवेदी- “नाथ पंथ या नाथ सम्प्रदाय के सिद्ध-मत, सिद्ध-मार्ग, योग-मार्ग, योग-सम्प्रदाय, अवधूत मत, अवधूत सम्प्रदाय इत्यादि नाम भी प्रसिद्ध हैं।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल- “नाथपंथ के इन जोगियों ने परम्परा साहित्य की भाषा या काव्य भाषा से, जिसका ढाँचा नागर अपभ्रंश या ब्रज था, अलग एक सधुक्कड़ी भाषा का सहारा लिया, जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था। देशभाषा की इन पुस्तकों में पूजा, तीर्थाटन आदि के साथ हज, नमाज आदि का उल्लेख भी पाया जाता है। इस प्रकार की एक पुस्तक का नाम हैं- ‘काफिरबोध’ नाथों ने स्वयं को योगी कहा है।’’
गोरखनाथ का सम्प्रदाय नाथ सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। इसे सिद्धमत, सिद्धांतमार्ग, योगमार्ग, योगसम्प्रदाय, अवधूत भी कहा गया है। गोरखनाथ भक्ति-विरोधी थे। इसलिए तुलसीदास का यह कथन महत्वपूर्ण है कि- “गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग।”
ऽ नाथपंथियों की भाषा ‘सधुक्कड़ी’ भाषा थी, जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिये हुए राजस्थानी का था।
ऽ गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में गुरु महिमा, इंद्रिय-निग्रह, प्राण-साधना, वैराग्य, मन-साधना, कुण्डलिनी-जागरण, शून्य-समाधि आदि का वर्णन किया है।
ऽ मत्स्येन्द्रनाथ का वास्तविक नाम विष्णु शर्मा माना जाता है। इनकी लिखी संस्कृत रचना ‘काल ज्ञान निर्णय’ का सम्पादन प्रबोधचन्द्र बागाची ने किया है।
ऽ नाथ का अर्थ- प्रभु, अधीश्वर, स्वामी, पति, इष्टदेव, संरक्षक, नाथ पंथियों की उपाधि विशेष।
ऽ षष्ठ्चक्र- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, आज्ञा, सब्स्रार चक्र (विशुद्ध)।
ऽ षष्टांग योग- आसन, प्राणायाम, प्रत्याहर, धारणा, ध्यान, समाधि।
गोरखनाथ की 14 प्रामाणिक रचनाएँ
सबदी
पद
सिष्यादरसन
प्राणसंकली
नरवैबोध अभैमात्राजोग
आत्मबोध
पन्द्रहतिथि
सप्तवार मछीन्द्रगोरखनाथबोध
रोमावली
ग्यानतिलक
ज्ञानचौतीसा
पंचमात्रा
चौरंगीनाथ- गुरुगोरखनाथ के परम शिष्य थे। इनका लिखा महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘प्राण संकली है।’
गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित बारह पंथ
सतनाथ
रामनाथ
धरमनाथ
लक्ष्मनाथ
दरियानाथ
गंगानाथ
बैराग
रावल या नागनाथ
जालंधरिया
आईपंथ
कपिलानी भजनाथ
ऽ नाथों का मानना है कि जो शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है। अर्थात् ब्रह्मांड में जितनी भी चीज़ें हैं, उन सब में ब्रह्म का अंश है। गोरखनाथ ने लिखा भी है कि ‘जोई-जोई पिंडे सोई ब्रह्मांडे।
ऽ नाथों का तंत्र बोद्ध सिद्धों का वीभत्स तंत्र नहीं था। चमत्कार वे भी करते थे, पर उनका चमत्कार योगजन्य था। वे ब्रह्मचर्य और योगाभ्यास पर अधिक बल देते थे।
ऽ नाथ सम्प्रदाय की मुख्य विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ)
ब्रह्मचर्य का पालन, जात-पांत, कर्मकांड का विरोध, नारी भोग का विरोध, शून्य समाधि, नाड़ी साधना, कुंडलिनी, इंगला, पिंगला, षटचक्र आदि की साधना का प्रचार-प्रसार, रहस्यात्मकता, प्रतीक और रूपक का प्रयोग, सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग।
संदर्भ
1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास।
2. डॉ. बच्चन सिंह, हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास।
3. सं. डॉ. नगेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास।
4. डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास।
5. डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिन्दी साहित्य का इतिहास।
6. डॉ. विवेक शंकर, हिन्दी साहित्य।
7. उमेश तिवारी, सूचनापरक हिन्दी साहित्य।
8. सरस्वती पाण्डेय, गोविन्द पाण्डेय, हिन्दी भाषा एवं साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास
9. रमेश ठाकुर, आदिकालीन हिन्दी साहित्य (वस्तुनिष्ठ)।
– डाॅ. मुकेश कुमार