आलेख
हिंदी का शेक्सपियर: रांगेय राघव
(17 जनवरी 1923 — 12 सितंबर 1962)
कम लोग यह जानते होंगे कि हिन्दी साहित्य का यह अनूठा व्यक्तित्व वस्तुत: तमिल भाषी था, जिसने हिन्दी साहित्य और भाषा की सेवा करके अपने अलौकिक प्रतिभा से हिन्दी के ‘शेक्सपीयर’ की संज्ञा ग्रहण की। रांगेय राघव (तिरूमल्लै नंबकम् वीरराघव आचार्य) को एक प्रगतिशील चिन्तक और रचनाकार के रूप में याद किया जाता है। आजीवन रचनारत रहकर कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज, आलोचना, संस्कृति, इतिहास आदि विधाओं में लगभग 150 पुस्तकों की उन्होंने रचना की, जिनकी चर्चा आज भी किसी न किसी रूप में होती है। यूँ राघव ने अपनी रचनाशीलता का परिचय 1936 के आसपास लिखी अपनी पहली कहानी ‘देवोत्थान’ के माध्यम से दिया था, जो सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
1941 में रांगेय राघव ने अंग्रेजी साहित्य, दर्शन तथा अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा 1943 में एम.ए. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त करने के बाद पहला शोध-कार्य किया नाथपंथी गोरखनाथ पर, जिस पर उन्हें पीएचडी की उपाधि प्राप्त हुई तथा शोध-प्रबंध ‘गोरखनाथ और उनका युगनाम’ से 1963 में प्रकाशित हुआ। 1943-1946 की अवधि में उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘घरौदा’ (1947) की भी रचना की, जिससे उनका उपन्यासकार रूप सामने आया। उसके बाद तो उनके कुल 38 उपन्यास एक-एक कर सामने आते गए, जिनकी रचना 1946-1962 के दौर में उन्होंने की। इसी प्रकार उनके उसी दौरान लिखे 10 कहानी-संग्रह, 7 काव्य-संग्रह, 3 नाटक तथा इतिहास, दर्शन, संस्कृति और आलोचना आदि की लगभग 17 पुस्तकें प्रकाश में आयीं। उनका ‘तूफानों के बीच’ शीर्षक से लिखा एक रिपोर्ताज 1946 में प्रकाशित हुआ था, जो 1943 के बंगाल के अकाल पर आधारित है। इसके अलावा ‘महायात्रा’ नामक गद्यात्मक कृति दो खंडों में इसी दौरान प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के दोनों खण्ड 1960 और 1964 में छपे थे। जब भी उनकी समाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि से लिखी गयी रचनाओं और लेखों का वैचारिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाता है तो उनमें कहीं-कहीं विवाद की स्थितियाँ भी उभरकर सामने आती हैं, जिनको आधार बनाकर कुछ आलोचकों ने उनकी आलोचना भी की है। उदहारण के लिए उनका यह कथन कि “तुलसी ने हिन्दी का प्रयोग जनहित के लिए के लिए उतना नहीं किया, जितना कि ब्राह्मणवाद के पुन:संगठन के लिए” (रांगेय राघव ग्रंथावली-10, 218) उनको विवादास्पद बनाता है। इसी प्रकार उनका यह मानना भी उचित प्रतीत नहीं होता कि “रामनाम के प्रताप से जूठन बीनकर खाने वाला तुलसीदास जीवन-काल में ही उन्हीं उच्च वर्ग के कंधों पर डोलने लगा, हाथी पर चढ़ने लगा।”
उल्लेखनीय है कि रांगेय राघव ने मध्यकाल के सगुण और निर्गुण संतों की तत्कालीन समाज में भूमिका को लेकर भी चिन्तन और विश्लेषण किया था। संतों की भूमिका को लक्ष्य कर रांगेय राघव ने ठीक ही लिखा है- “हमारा समाज जर्जर है, गलित है। इसके आधारों को पहले ठीक करना होगा।” समाज के दृष्टिकोण से संतों ने जो काम किया वह अनजाने ही फायदे का साबित नहीं हुआ, जिनके लिए उन्होंने आवाज लगायी थी। बीच में चतुर तथा उच्च लोगों ने उनके नाम की आड़ में अपना स्वार्थ साधा। रांगेय राघव भक्तिकाल के संत कवियों में जिनकी ज्यादा प्रशंसा करते थे। वे थे भारतीय संत-परंपरा के सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण संत-कवि कबीर। जिनकी प्रखर व्यंग्यपूर्ण उक्तियों को आज भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाता है, जितनी उनके समय और बाद के समयों में लिया जाता था।
वैसे रांगेय राघव में काम करने की अद्भुत क्षमता थी। वह दो दिन में कोई पुस्तक लिख सकते थे अथवा किसी पुस्तक का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद कर सकते थे। कहा तो यह जाता है कि उन्होंने शेक्सपीयर के सभी नाटकों का हिन्दी रूपान्तर एक या दो दिनों के अंतराल पर किया था। इससे भी उनकी रचना और अनुवाद क्षमता का स्पष्ट पता चलता है। अपनी सुप्रसिद्ध कहानी ‘ग़दर’ की रचना उन्होंने एक ही दिन में की थी। हालाँकि कहानी तथा उपन्यास के कथानकों का चुनाव वे काफी सतर्कतापूर्वक करते थे। यही कारण है कि वे अल्पायु होने के बावजूद हिन्दी साहित्य को अधिकाधिक श्रेष्ठ रचनाएँ देने में समर्थ हुए। अमृत राय ने उनके इसी गुण को याद करते हुए ठीक ही लिखा है कि “जितना काम दूसरा आदमी अस्सी बरस की आयु पाकर भी न पूरा कर पाता, उतना उसने उन्तालिस वर्ष में ही कर डाला था।”
जहाँ तक रांगेय राघव के उपन्यासों की बात है, यह जानना ज़रूरी है कि वे, उपन्यासकार के रूप में कितने सफल रहे हैं। इस प्रसंग में उनके तीन उपन्यासों को खासतौर पर देखा जाना चाहिए। वे तीन उपन्यास हैं- ‘मुर्दों का टीला’ (1948), ‘कब तक पुकारूँ’ (1957) और उनका अंतिम दिनों का लिखा उपन्यास ‘पतझर’ (1962)। ऐसा प्रायः कम होता है कि उपन्यासकार शुरू में ही किसी अच्छे उपन्यास की रचना कर डालता है। यही राघव के बारे में भी कही जा सकती है, कारण कि उन्होंने जो उपन्यास बात आसपास लिखे उनमें उतनी प्रौढ़ता नहीं होने के कारण उनकी अपेक्षित चर्चा नहीं हो पायी। उनके पहले उपन्यास ‘घरौंदे’ से लेकर 1962 में प्रकाशित उनके अंतिम उपन्यास ‘आखिरी आवाज़’ तक का अवलोकन किया जाय तो उपन्यासों से कहीं अधिक चर्चा, उनके इतने कम उम्र में प्रखर लेखनी की हुई। उन्होंने ‘मुर्दों का टीला’ के अतिरिक्त ‘पक्षी और आकाश’ ‘चीवर’, ‘अंधेरे के जुगनू’ आदि कई ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखे लेकिन उनकी चर्चा नहीं के बराबर हुई। दूसरी ओर ‘देवकी का बेटा, ‘लखमा की आंखें, ‘रत्ना की बात’ और ‘लोई का ताना’ जैसे उपन्यासों की रचना उन्होंने क्रमशः कृष्ण, विद्यापति, तुलसी और कबीर के जीवन-प्रसंगों को आधार बनाकर की। इन उपन्यासों पर भी कम ही लिखा गया है।
उनमें सर्वाधिक चर्चा उनके उपन्यास ‘कब तक पुकारूँ’ की हुई, जिसमें दलित विमर्श को प्रमुखता के रेखांकित किया गया है। उनके उपन्यास ‘पतझर’, ‘घरौंदे’, ‘सीधा सादा रास्ता’, ‘हुजूर’, ‘राई का पर्वत’, ‘राह न रुकी’ आदि हों या ‘ग़दर’ और ‘पंच परमेश्वर’ जैसी कहानियाँ, सबके परिवेश और पात्र जयपुर, भरतपुर, आगरा जैसे नगरों अथवा वैर, बादोनी आदि गाँवों के आसपास से ही लिए गए है, जो इस बात के सूचक हैं कि रांगेय राघव अपनी रचनाओं में यथार्थ परिवेश, घटनाप्रसंग अथवा चरित्रों के चित्रण पर ज़्यादा ज़ोर देते थे। उनके एतिहासिक उपन्यासों के बारे में कहा जाता है कि वे उनमें तथ्यों, घटनाओं का विरोध ढंग से करते थे। उन्होंने एक जगह लिखा भी है- “मेरे पात्र इतिहास की जिस अवस्था में हैं वैसा ही सोचते हैं- वैसा ही करते हैं।” इसके विपरीत अपने सामाजिक उपन्यासों में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्थितिओं को केंद्र में रखकर अपने कथा चरित्रों का निर्माण और विकास दिखलाते हैं। उनका मानना है कि “आगे का रास्ता बनाने के लिए हमें इतिहास की अच्छाइयों को ही प्रस्तुत करना चाहिए, किंतु इस प्रकार हम क्रम-विकास के उस रूप को नहीं दिखा सकते, जिसमें से मनुष्य ने यात्रा की है।” (महायात्रा- पृ.470)
इस दृष्टि से देखा जाये तो रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूँ’ जैसे कथित आंचलिक अथवा सामाजिक उपन्यास की रचना में उन आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों की निर्णायक भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता, जिसको लेकर रांगेय राघव पूरी तरह आश्वस्त थे कि ये स्थितियाँ किसी भी समय की सच्चाइयों को सामने लाने में सहायक बनती हैं। ‘कब तक पुकारूँ’ नटों की ज़िन्दगी पर आधारित उपन्यास होने के कारण उसमें उनकी वास्तविक जीवन-स्थितियों के जीते-जागते चित्र अंकित हुए हैं। उपन्यास में आजादी के तुरंत बाद की स्थितियों का चित्रण उपस्थित किया गया है। रिपोर्ताज शैली में लिखे गए इस उपन्यास का विस्तार 447 पृष्ठों में फैला हुआ है, जिसमें उक्त सारे पात्रों के जीवन-संघर्ष और अन्तर्विरोध एक-एक कर सामने आते हैं । ऊँच-नीच, नस्ल-भेद, जात-पाँत आदि सबकी आलोचना करता है और कहता है- “यह जात-पाँत सब आदमी के बनाए हुए बंधन हैं। दुनिया में एक मुल्क अमरीका है। वहाँ काले हब्शी रहते हैं। उन पर अत्याचार होता है, क्योंकि वहाँ के बाकी हुकूमत करने वाले लोग गोरे रंग के हैं।’ (पृ. 355)।
यूँ रांगेय राघव की कविताओं की चर्चा भी अक्सर की जाती है। उनके छह काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं- अजेय खंडहर (1944), पिघलते पत्थर (1946), मेधावी (19470, राह के दीपक (1948), पांचाली (1955) और रूपछाया (1956)। उनका एक अन्य काव्य-संग्रह (श्यामला) अभी तक अप्रकाशित है, जिसकी चर्चा कभी-कभार देखने को मिल जाती है। यदि इन संग्रहों की कविताओं को लेकर रांगेय राघव के कवि-व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाए तो निश्चित रूप से उनका एक अभिनव स्वरूप उभरकर सामने आएगा, जिसमें क्रांतिकारी चेतना के साथ-साथ जीवन के सहज और सुन्दर भाव-बोध के दर्शन आसानी से हो सकेंगे। कवि त्रिलोचन ने कभी उनकी कविताओं को लक्ष्य कर कहा था कि “रांगेय राघव की विशेषता है उनकी अकुंठित बौद्धिकता।” इसी अर्थ में उनके कवि रूप की चर्चा भी की जाती रही है।
स्पष्ट है कि रांगेय राघव अपने उक्त विचार बिन्दुओं के ज़रिए कविता, कवि और मनुष्य के भाव-रूपों को साक्षात्कार करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कविता और कवि का सरोकार व्यापक जीवन से है। तथा जिसमें मनुष्य की समस्त भाव-सम्पदा मौजूद रहती है, जिसमें न तो राजनीति से परहेज है और न विचारधारा से। यहीं रांगेय राघव अपनी यथार्थवादी जीवन दृष्टि और चेतना तथा कलात्मक संस्कृति की भी सूचना देते हैं। चूंकि वे प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित थे इसलिए उनके साहित्य का विकास इसी की रोशनी में हुआ था।
रांगेय राघव अपनी कविताओं के ज़रिए भी वही काम कर रहे थे, जो व्यापक जनता के हित में था। उन्होंने अपनी ‘नास्तिक’ शीर्षक कविता में यह कहते हुए कि ‘श्रद्धा में गति रुक जाती है/ क्योंकि अंत स्वीकार है, उसी सान्त अर्थात मनुष्य जीवन को स्वीकार करने की बात उन्होंने कही थी। उनका इसी अर्थ में यह भी कहना था कि- “तुम सीमाओं के प्रेमी हो मुझको वही अकथ्य है / मुझको वह विश्वास चाहिए जो औरों का सत्य है।’ जाहिर है रांगेय राघव ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास करते हुए भौतिक में अपने विश्वास और निष्ठा की अभिव्यक्ति करना लक्ष्य मानते थे।
रांगेय राघव का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और साधना का जीवन था, जिसमें उनके रचनाशील व्यक्तित्व की विशालता उन्हें समकालीन लेखकों के बीच अलग से रेखांकित करते हुए एक भिन्न धरातल पर स्थित कर देती है। प्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव ने कहा है – ‘‘उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही कमाल था कि सुबह यदि वे आद्यैतिहासिक विषय पर लिख रहे होते थे तो शाम को आप उन्हें उसी प्रवाह से आधुनिक इतिहास पर टिप्पणी लिखते देख सकते थे। रांगेय राघव हिंदी के बेहद लिक्खाड़ लेखकों में शुमार रहे हैं। उन्होंने करीब-करीब हर विधा पर अपनी कलम चलाई और वह भी बेहद तीक्ष्ण दृष्टि के साथ। मात्र 39 वर्ष कि अल्पायु में उनका यह विपुल साहित्य उनकी अभूतपूर्व लेखन क्षमता को दर्शाता है। रांगेय राघव के बारे में कहा जाता रहा है कि “जितने समय में कोई पुस्तक पढ़ेगा उतने में वे लिख सकते थे। वस्तुतः उन्हें कृति की रूपरेखा बनाने में समय लगता था, लिखने में नहीं।” अगर उनके समग्र साहित्य का सम्यक मूल्यांकन प्रस्तुत किया जाये तो इसमें संदेह नहीं कि वे राहुल संकृत्यायन, प्रेमचंद और यशपाल की तरह ही विश्व साहित्य में अपनी गरिमापूर्ण उपस्थित दर्ज कराने में समर्थ सिद्ध होंगे।
– नीरज कृष्ण