हायकु
हायकु
कोसते रहे
समूची सभ्यता को
बेचारे भ्रूण
दौड़ाती रही
आशाओं की कस्तूरी
जीवन भर
नयी भोर ने
फड़फड़ाये पंख
जागी आशाएं
प्रेम देकर
उसने पिला दिए
अमृत घूँट
थका किसान
उतर आई साँझ
सहारा देने
किसे पुकारें
मायावी जगत में
बौराये लोग
बनाता रहा
बहुत-सी दीवारें
बैरी समाज
दम्भी आंधियाँ
गिरा गयीं दरख़्त
घास को नहीं
ढूँढते मोती
किनारे बैठ कर
सहमे लोग
इन्द्रधनुष
सुसज्जित गगन
मोहित धरा
सुबह आई
कलियों ने खोल दीं
बंद पलकें
खोल घूँघट
सहसा मुस्करायी
प्रकृति वधु
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला