हायकु
हायकु
सूरज टाँके
धूप के पीले बूटे
झील चुनरी
चाँद सी रोटी
नीली झील की थाली
रात परोसे
ख़्वाबों की उम्र
लम्हों की रिश्तेदारी
काँच-सी टूटी
नैनों में कथा
एकाकीपन व्यथा
कोई न सखा
कोने में खड़ी
अनुभवों से मढ़ी
बाबा की छड़ी
स्वप्न पाहुन
पलकों की देहरी
मनायें जश्न
तंग शहर
बदलाव की हवा
रूठ के बैठी
ले आये टेसू
सांझ की देहरी पे
लाल काँवर
ताल पहने
काई की पैरहन
चिढ़ायें बच्चें
पहन चश्मा
माँ जैसी लगती हूँ
खुश होती हूँ
– आभा खरे