उभरते-स्वर
हाथी
मैं कभी उन्हें कंधों पर बिठाता हूँ
तो कभी झूला-झूलाता हूँ
कभी अपनी बाँहो में लेकर
घूमता हूँ हर बार साथ-साथ
उनकी सारे दिन हाजरी उठाकर
कितना परेशान हो जाता हूँ
जब लगा ख़ुद को बोझ में दबे पाकर
इतना ढोता क्यूँ हूँ?
उनके पथ का साथी हूँ
या कोई हाथी!
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दूर
अतीत से भविष्यत् तक, मैं
अपनी स्मृतियों को
यादों के झरोखों में ऊँड़ेलकर
जीवन के गीत में बींधकर
खींचकर,
चुपचाप घाव सहते हुए
दूर…..बेहद दूर
खुद को समेटे
वो हर घड़ी का
आभास करायेगी मुझे
जैसे जिंदगी
यादों के अंतिम छोर तक
– जालाराम चौधरी