हाइकु
हाइकु
हैरान धरा
उगाईं थीं फसलें
मकान उगा!
सिमटे घन
जब रूठ धरा से
कृषक मरा
आकार लघु
गंभीरता समेटे
होते हाइकू
समन्दर तू
मैं नदिया हूँ प्यासी
मुकद्दर है
आड़ी-तिरछी
किस्मत की लकीरें
समझूँ कैसे!
चारदीवारी
हुई असुरक्षित
रिश्ते विक्षिप्त
काँटों से भरी
है ये प्रेम डगर
डरे है मन
– अंजु गुप्ता