रचना समीक्षा
हांडी का एक चावल: डॉ विनय भदौरिया के एक गीत का विश्लेषण
– मनोज जैन मधुर
नहीं पता है
मेरा बेटा
कब घर आता है
घर को छोड़
शेष दुनिया से
उसका नाता है
आईपैड लैपटॉप कभी
मोबाइल हाथों में
जाने क्या करता रहता है
जग कर रातों में
घरवालों को-
छोड़ सभी से
वह बतियाता है
विश्वग्राम की ताजा खबरें
उसकी मुट्ठी में
घर में क्या होता है
जाए चूल्हे-भट्ठी में
ट्विटर और
फेसबुक में अब
उसका खाता है
नभ गामी
उड़ान के आगे
दूर हुए सब अपने
दादी माँ के
पाले-पोशे
चूर हुए सब सपने
देख नदी में
खालिश रेती
जी भर आता है
– डॉ. विनय भदौरिया
जीवनदायिनी नदियों के सदानीरा सौंदर्य को जिसने जी भर निहारा हो, वह भला, नदी के इस वीभत्स रूप को कैसे देख सकता है! बात यहाँ समाप्त नहीं होती, यह तो आने वाले भयाभय समय की एक पदचाप भर है, जिसके प्रतिबिम्ब में समूचे पर्यावरण के दर्शन स्वतः ही होते हैं।
गीत के रचाव में कवि ने अनेक स्थलों ऐसी ही अनेक पदचापें छोड़ी, जो पाठक को सुनने या पढ़ने के उपरान्त ठिठक कर कुछ गुनने को विवश करती हैं। इसे हम कवि की रचना प्रक्रिया का उच्चतम प्रतिदर्श भी कह सकते हैं।
उक्त पंक्ति के गाम्भीर्य भाव बोध को महसूस करने के लिए हमें पिछली दो-तीन पीढ़ियों के कालखंड में लौटना होगा। यह वह समय था, जहाँ सामाजिक ताना-बाना आज से एक दम उलट हुआ करता था! समरसता के इस युग में संवेदनाओं के धरातल पर अर्थ की प्रधानता भले ही न हो पर रिश्तों में गर्माहट ज़रूर थी। लोगों में परस्पर प्रेम, सहयोग, तीज त्योहारों को मिलजुल कर मनाने और एक-दूसरे के सुख-दुख बाँटने की स्वस्थ्य और उजली परम्परा पूरे गीत को पढ़कर बरबस याद आती है।
गीत का आरंभ रिश्तो के छीजने से होता रिश्तों की यह छीजन सामयिक सन्दर्भ में सिर्फ किसी एक घर की कहानी नहीं बल्कि घर-घर की कहानी है। स्थितिजन्य कटाव से उपजे एक असहाय पिता के आंतरिक ताप को इन पंक्तियों से बख़ूबी महसूस किया जा सकता है-
नहीं पता है/ मेरा बेटा/ कब घर आता है
घर को छोड़/ शेष दुनिया से/ उसका नाता है
आईपैड, लैपटॉप कभी/ मोबाइल हाथों में/
जाने क्या करता रहता है/ जगकर रातों में/
घर वालों को छोड़/ सभी से/ वह बतियाता है/
इससे ज्यादा और त्रासद स्थिति क्या होगी! आजकल के बच्चे घर में होते हुए भी घर के नहीं होते, ग्लोबलाइजेशन के चलते प्रतिस्पर्धा चरम पर है और हम इस प्रतिस्पर्धा में तिल-तिल होम होते जा रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की अंगुलियों पर कठपुतली जैसे नाचने के लिए विवश भर हैं। हमारा अस्तित्व इससे ज्यादा और कुछ हमारे हाथ में होता भी तो नहीं है। घर परिवार से असंपृक्तता की शर्त पर आज की जनरेशन का दुनिया से सीधा जुड़ाव बाहरी स्तर पर सुखाभाष तो हो सकता है पर माँगलिक तो बिल्कुल भी नहीं। द्रष्टव्य है गीत का अगला बंध और गीत में प्रयुक्त फ्रेज चूल्हे-भट्टी का सामयिक सन्दर्भ में एक दम संगत और दुरुस्त प्रयोग
विश्व ग्राम की ताजा खबरें / उसकी मुट्ठी में/
घर में क्या होता है / जाए चूल्हे भट्टी में /
ट्विटर और फेस बुक में अब/ उसका खाता है/
संस्कारों की पहली पाठशाला भले ही माँ को कहा जाता हो पर संस्कारों के बीजारोपण में दादा-दादी, नाना- नानी माता- पिता ,के अलावा नैतिक शिक्षा एक और कड़ी थी जो हमारे पाठ्यक्रमों में शिक्षा सह पाठेयत्तर गतिविधियों का जरूरी हिस्सा हुआ करती थी, यह मजबूत कड़ी हमें हमारी जड़ो से जोडे रखती थी, आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने सबसे पहले इस मजबूत कड़ी पर प्रहार किया,इस कड़ी के टूटते ही हम अपनी स्वस्थ्य परम्परा और संस्कारों से कट गए फिर भाषा से कटे फिर बोली से और बानी से छद्म आधुनिकता ओढ़े हम उत्तरोत्तर उच्श्रृंखल होते चले गए परिणामस्वरूप हमने अपने विनाश को खुद ही आमंत्रण दे दिया।आज का युवा बिना संघर्ष के ही सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है।
जिन आँखें ने दो पाटों के बीच अथाह जल राशि को निर्वाध बहते देखा हो जब वही आँखे नदी में खालिश रेती देखने को विवश हो !
तो जी का भर आना तो स्वाभाविक है!
नभ गामी उड़ान के आगे /
दूर हुए सब अपने/
दादी मां के पाले -पोशे
चूर हुए सब सपने/
देख नदी में खालिस रेती/
जी भर आता है/
अपने मनोहारी भावों को अभिव्यक्त करने के लिए कवि ने जिस छन्द का आधार लिया है उसका नाम है हरिपद/विष्णु पद छन्द पूरे गीत में एकाध स्थान को छोड़कर छन्द का अच्छा और निर्दोष निर्वहन हुआ है।
गीतकार डॉ. विनय भदौरिया जी को उनकी श्रेष्ठ कृति अन्तराएँ बोलती हैं के लिए हार्दिक बधाई।
कृति: अन्तराएँ बोलती हैं
कवि: डॉ. विनय भदौरिया
प्रकाशन वर्ष: 2019
प्रकाशक: अनुभव प्रकाशन
मूल्य: दो सौ रुपये मात्र
– मनोज जैन मधुर