उभरते-स्वर
हाँ, मैं मजदूर हूँ
कितना बेबस हूँ कितना मजदूर हूँ,
हाँ, मैं मजदूर हूँ, हाँ मैं मजदूर हूँ।
सड़क पर ही है अब आशियाना मेरा,
दूर है मंजिल पर न कोई ठिकाना मेरा।
अपने घर अपने बच्चों से दूर हूँ,
हाँ, मैं मजदूर हूँ, हाँ मैं मजदूर हूँ।
ना भूख, ना ही निवाले दिखे,
ना ही पैरों के अपने छाले दिखे।
अपने ग़म, अपने दर्द में चूर हूँ,
हाँ, मैं मजदूर हूँ, हाँ मैं मजदूर हूँ।
हाँ, ये तो सच है कि घर में रहना है अब,
पर ये तो बता और कितना सहना है अब।
एक बिस्किट पर जीने को मजबूर हूँ,
हाँ, मैं मजदूर हूँ, हाँ मैं मजदूर हूँ।
जिसने ख़ुद को फ़क़ीर कहा था कभी,
ग़रीब का हूँ बेटा ये कहा था कभी।
आज उसके लिए भी चश्मे-बद्दुर हूँ,
हाँ, मैं मजदूर हूँ, हाँ मैं मजदूर हूँ।
मेरा वक़्त आया न आयेगा कभी,
इन हालात को बदला न जायेगा कभी।
ग़म और बेबसी का मैं दस्तूर हूँ,
हाँ, मैं मजदूर हूँ, हाँ मैं मजदूर हूँ।
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दिल ही दिल में दूरियाँ मिटानी चाहिए
ग़म की चादर किसी के सर से हटानी चाहिए
इस बार ईद कुछ यूँ मनानी चाहिए
आँसुओं से भर गया है जिनका रुख़-ए-गुलज़ार
इक हँसी उनके चेहरे पर भी लानी चाहिए
गले लगाए इस बार यह ज़रूरी तो नहीं
दिल ही दिल में दूरियाँ मिटानी चाहिए
जो बन रहे हैं बाज़ार-ए-रौनक इस दौर में भी
सच कहूँ तो उनको शर्म आनी चाहिए
जो ईद हर बार ग़रीब मनाता है ‘अयाज़’
वैसी ही ईद इस बार सबको मनानी चाहिए
– अयाज़ क़ुरैशी