आलेख
हरिशंकर परसाई के साहित्य का समाज पर प्रभाव : जय भीम बौद्ध
व्यंग्य समाज का चिकित्सक है, चिकित्सक जैसे बिना राग द्वेष के मरीज के मर्ज को दूर करने का प्रयास करता है, उसी तरह व्यंग्य भी समाज की चिकित्सा करता है। व्यंग्य समाज मानक का एक्सरे है। व्यंग्य एक साहित्यक कला है। परसाई जी व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी भाषा सरल सोहाद्रपूर्ण और विचारोत्तेजक है। आपकी व्यंग्य का समाज पर गहरा प्रभाव है व्यंग्य साहित्य ने समाज को एक नई दिशा दी। जिससे समाज सशक्त और सभ्य, सुशील बनता जा रहा है। व्यंग्य कड़वी दवा की तरह है, जो खाने में कड़वी लगती है लेकिन जल्द असरकारक होती है। जिससे स्वस्थ समाज का निर्माण होता है। व्यंग्य में मानवीय सामाजिक अंतर विरोध विद्रूपताओं, असंगति पर आक्रमण किया जाता है। जो समाज को बुराईयों से निपटने की शक्ति देता है। परसाई जी की सामाजिक चेतना एक गहरे सामाजिक दायित्व का बोध कराती है। वे अपने लेखन को एक कर्म के रूप में परिभाषित करते हैं कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता। साहित्यकार और सामाजिक अनुभव के संबंधों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने लिखा है कि साहित्यकार का समाज से गहरा संबंध है। वह समाज से अनुभव लेता है, अनुभव में भागीदार होता है। बिना सामाजिक अनुभव के साहित्य रचा नहीं जा सकता, लफ्फाजी की जा सकती है।
साहित्यकार सामाजिक अन्वेषण भी करता है, उन छिपे कोणों का अन्वेषण करता है जो सामान्य चेतना के दायरे में नहीं आते हैं और फिर समाज से पाई इस वस्तु को रचनात्मक रूप देकर फिर समाज को लौटा देता है। जिसका सम्पूर्ण समाज पर प्रभाव परिलक्षित है। समाज में सभी प्रकार के स्वार्थी लोगों की धूर्तताओं तथा पाखण्डों का भण्डाफोड़ उन्होंने अपने साहित्य में किया है। आम जनता को भेड़-बकरी की तरह समझने वाले मक्कार तथा भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की कलई परसाई ने दृढ़ता के साथ खोली, अंधविश्वास एवं सामाजिक बुराईयों को उजागर कर जनता को एक नई दिशा दी। इनके व्यंग्य साहित्य ने जनता को हकीकत से वाकिफ कराया।
परसाई जी ने अपनी कलम को यथार्थ की भूमि पर ही टिकाया है जो हमारे समाज की पुरानी मान्यताएं हैं, समाज को दूषित कर रही है और समाज वर्ग-भेद कर रही हैं। पूंजीवादी व्यवस्था, दहेज प्रथा को बढ़ावा दे रहे हैं जैसी ज्वलंत समस्याओं पर अपनी लेखनी चलाकर समाज को जाग्रत किया है। वे उदान्त जीवन मूल्यों के प्रति समर्पित साहित्यकार हैं। परसाई जी ने अपने हर व्यंग्य में लड़ाई लड़ी है वे व्यक्ति, समाज और समूचे राष्ट्र की भीतरी कक्षाओं में घुसते हैं और गुथी हुई, उलझी हुई गांठों भरी व्यवस्था में विसंगतियों और विडंम्बनाओं को सामने लाते हैं तो ऐसा लगता है जैसे एक कुशल डाॅक्टर की तरह इतिहास और समाज के बीमार, जर्जर शरीर और प्राण की डाइग्नोसिस करते हैं। परसाई जी का लेखन हमारी बेहद तात्कालिक और जरूरी दुनिया से रूबरू है और हमें इससे मुठभेड़ की ताकत देता है जो समकालीन मनुष्य के सुन्दर और उदारता के साथ उसके विकृत हास्यपद्व को भी उघाड़ता है और साहित्य को सजीव और प्रबोध बनाता है। समसामायिक घटनाओं के प्रति सर्वाधिक सजग और पैनी दृष्टि व्यंग्यकार की होती है। भविष्य में इतिहासकार, इतिहास की प्रमाणिक जानकारी के लिए तात्कालिक व्यंग्य साहित्य का संबल (प्रतीक) ग्रहण करेगा। परसाई जी मध्यम वर्गीय ढोंग, दोहरे मानदण्डों, झूठी शान, प्रतिष्ठा, काईयापन आदि को अपनी भाषा द्वारा बुरी तरह लहूलुहान किया है तथा आम आदमी को चेताने का भी काम किया है। इसलिए समाज पर उनके साहित्य का गहरा प्रभाव दिखाई देता है जो समाज को एक नई रोशनी व नई दिशा और दशा में लाकर खड़ा करता है। यही उनके साहित्य की अमिट छाप है।
संदर्भ ग्रंथ-
1. गद्य के विविध रूप: माजदा असद
2. हरिशंकर परसाई के व्यंग्यों में वर्ग चेतना: डाॅ. आभा भट्ट
3. हिन्दी गद्य विधाएं: डाॅ. राजेन्द्र मिश्र
– जयभीम बौद्ध