आलेख
हरिशंकर परसाई की वैचारिकी और रचना प्रक्रिया: शिप्रा किरण
किसी भी लेखक की विचारधारा का निर्माण उसके अपने युग की परिस्थितियाँ ही करती हैं। विचारधारा को लेकर राजनीति विज्ञान से साहित्य तक यानी ज्ञान की लगभग सभी शाखाओं में बहसें और बातचीत होती रही हैं। अल्थुसे ने कहा है- “विचारधाराएँ एक विशिष्ट किस्म की अवधारणाओं को रखती हैं और उनका एक विशेष ऐतिहासिक संदर्भ होता है। उदाहरण के लिए ईसाईयत की विचारधारा, जनतंत्र की विचारधारा, स्त्री चेतना की विचारधारा, मार्क्सवाद की विचारधारा। विचारधारा मात्र का कोई इतिहास नहीं है, वह हमेशा से मौजूद रही है”।1 यह विचारधारा जैसे राजनीति विज्ञान में, धर्म-दर्शन में, समाज में मौजूद रहती है, वैसे ही साहित्य पर भी इसका कहीं न कहीं प्रभाव पड़ता ही है। खासकर जब हम हरिशंकर परसाई की रचनाओं से गुजरते हैं, तो हमें मार्क्सवादी विचारधारा की छाप स्पष्ट ही दिखाई दे जाती है।
वैसे यह भी कहा जाता है कि जरूरी नहीं कि लेखक की विचारधारा का सम्पूर्ण प्रभाव उसकी रचना पर दिखाई दे ही। “यह सवाल उठा है कि साहित्य और कला को विचारधारा के अंतर्गत मानना चाहिए या नहीं। अनेक मार्क्सवादी लोगों ने कहा कि साहित्य और कला को विचारधारा के अंतर्गत मानना उचित नहीं। खुद मार्क्स और लेनिन मानते थे कि बाल्जाक और तोलस्तोय की विचारधारा चाहे जो भी हो, वो महान लेखक हैं”।2 किन्तु परसाई के संदर्भ में देखें तो उनकी विचारधारा का उनकी रचनाशीलता में बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण योगदान है। उनकी विचारधारा ही उनकी रचना दृष्टि का निर्माण करती है। वही उनकी राजनीतिक दृष्टि को स्पष्ट भी करती है, तो वही उन्हें अपने समय, समाज और उसकी सतहों से जोड़ती भी है। परसाई की रचनाओं में अपने युग के साक्ष्य मिलते हैं और उसमें उनकी विचारधारा के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने उसी के माध्यम से भारतीय समाज को, भारतीय राजनीति को समझा और चित्रित किया है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने सच ही लिखा है- “हरिशंकर परसाई का साहित्य स्वातंत्रयोत्तर भारत की महागाथा है। वह अपने समय के इतिहास का विविधतापूर्ण जीवंत चित्र और दस्तावेज़ है”।3
फ्रांसीसी दार्शनिक के इस कथन से साहित्य और साहित्यकार के सामाजिक दायित्व और वैचारिक प्रतिबद्धता को समझा जा सकता है। लुई द बोनाल ने लिखा है- “किसी राष्ट्र के साहित्य को ध्यान से पढ़कर यह बताया जा सकता है कि उसकी जनता किस प्रकार की थी”।4 जनता को समझने के लिए परसाई ने अपनी विचारधारा को एक टूल के रूप में इस्तेमाल किया है। विचारधारा को वी.अफानास्येब के इस कथन द्वारा भी समझा जा सकता है। अपनी पुस्तक ‘मार्क्ससिस्ट फिलॉस्फी’ में वे लिखते हैं- “किसी निश्चित वर्ग की राजनीतिक, कानूनी, नैतिक, कलात्मक तथा अन्य दृष्टिकोणों और विचारों का सम्पूर्ण योग ही उसकी विचारधारा है। वे सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रतिबिम्बित करते हैं। उनके कार्य भी अलग अलग हैं”।5
इसी तरह विचारधारा को समझाने के लिए मैनेजर पाण्डेय ने मार्क्स-एंगेल्स के हवाले से लिखा है- “विचारधारा केवल विचारों की धारा नहीं है, उसमें विचार, आस्था, विश्वास और मूल्य-चेतना का भी योग होता है। अपने युग के यथार्थ से संबंध के रूप के अनुरूप ही विचारधारा का स्वरूप बनता है। एक विचारधारा शोषण और दमन का साधन बनती है तो दूसरी मुक्ति का माध्यम भी होती है”।6 यहाँ विचारधारा के सकारात्मक व नकारात्मक प्रभावों और रूपों को आसानी से समझा जा सकता है। मैनेजर पांडे लुई अल्थुसे की मान्यताओं को भी स्पष्ट करते हैं और लिखते हैं- “कला विचारधारा नहीं है लेकिन दोनों के बीच विशिष्ट संबंध होता है। कला उस विचारधारा को देखने, अनुभव करने और उसका बोध करने में हमारी मदद करती है जो यथार्थ की ओर संकेत करती हैं”।7 परसाई की कला, उनका साहित्य भी एक स्तर पर आकर विचारधारा की ओर संकेत अवश्य करता है। वैसे ही जब विचारधारा व विचारधारा के अंतर को देखते हुए परसाई की विचारधारा को समझें तो स्वाभाविक रूप से उनकी विचारधारा ‘सामाजिक विकास प्रक्रिया की प्रेरक शक्ति’ व ‘मुक्ति का माध्यम’ बन कर उभरती है।
वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद भी उन्होने वैचारिक जड़ता को नहीं स्वीकारा। जहां भी उन्हें असंगति या जड़ता दिखाई दी, उसका विरोध करते चले। उन्होंने तथाकथित मार्क्सवादियों की वास्तविकता का भी चित्रण किया- “सिगरेट को ऐसे क्रोध से मोड़कर बुझाता है, जैसे बुर्जूआ का गला घोंट रहा हो। दिन में यह क्रांतिकारी मार्क्स, लेनिन, माओ के जुमले याद करता है।रात को दोस्तों के साथ शराब पीता है और क्रांतिकारी जुमले दुहराता है। फिर मुर्गा इस तरह खाता है, जैसे पूंजीवाद को चीर रहा हो”।8 अपने समय की समस्त विरूपताओं को उन्होंने हर प्रकार के चौखटे से बाहर निकालकर गहराई से चित्रित किया है। उनकी विचारधारा ही उनकी पूरी रचना दृष्टि का निर्माण करती है। यह विचारधारा ही कहीं न कहीं उनकी संवेदना का विस्तार करती है और उनकी रचनाओं को और अधिक मानवीय और मनुष्यता के करीब ले जाती है।
विचारधारा और लेखक के संबंध पर बहसें होती रही हैं। कभी यह माना जाता रहा है कि विचारधारा के दायरे में सीमित साहित्यकार अपनी लेखनी के प्रति उतनी ईमानदारी नहीं बरत पाता तो कुछ विद्वान यह भी मानते रहे हैं कि लेखक की विचारधारा उसे अपने समाज की सही समझ के लिए कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है। वह रचना को एक सही दिशा देती है। विचारधारा के संबंध में दोनों पक्षों के अपने-अपने वृहत तर्क हैं किन्तु जब परसाई की बात आती है तो एक खास विचारधारा का उनकी रचनाओं के साथ आना स्वाभाविक सी बात है। परसाई ने स्वयं लिखा है- “संयोग से तभी मेरा संपर्क भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से हुआ और मार्क्सवादी दर्शन तथा साहित्य से मेरा परिचय हुआ”।9 यहीं से परसाई की विचारधारा एक ठोस रूप लेती हुई उनके लेखन का निर्माण करती हुई निरंतर प्रवाहित रही। उन्होंने मार्क्सवाद का विधिवत अध्ययन आरंभ किया। परसाई फिर लिखते हैं- “मैं श्रमिक आंदोलन से भी सम्बद्ध हो गया। तभी मेरा संपर्क मुक्तिबोध से हुआ और उन्होंने मेरे मार्क्सवादी विश्वासों को मजबूत तथा दृष्टि को बिलकुल साफ और महीन कर दिया”।10 मुक्तिबोध और उनके अन्य कुछ मार्क्सवादी साहित्यकार साथियों ने परसाई की विचारधारा को मजबूत किया और उन्हें नई रचना दृष्टि दी। परसाई इन साथियों के योगदान को स्वीकार करते हैं। उनकी यह दृष्टि ही उन्हें जीवनभर शोषितों और वंचितों के पक्ष में टिकाये रही। कांति कुमार जैन परसाई के विषय में लिखते हैं- “1947 परसाई के परसाई बनने का वर्ष था। अभी तक परसाई जी हरिशंकर थे, परसाई के रूप में उनकी पहचान नहीं बनी थी। 1947 के पहले तक जीवन और जगत को समझने की उनकी वर्ग-दृष्टि खुली नहीं थी। अभी उनकी आँखों का खुलना बाकी था। समाज में विषमता है- यह तो वह बचपन से ही देखते आ रहे थे, पर यह विषमता क्यों है? इसका ठीक-ठाक पता उन्हें नहीं था”।11
मार्क्सवाद ने हरिशंकर परसाई का परिचय उस विषमता से तो कराया ही, परसाई के भीतर विषमता के कारणों की पड़ताल करने की ताकत भी दी। तभी तो परसाई इस एक वर्ग दृष्टि को लेकर जीवनभर अन्यायकारी शक्तियों से जूझते रहे। विभिन्न अन्याय और विभेदकारी शक्तियों से जूझते-जूझते उनकी रचना दृष्टि दृढ़ से दृढ़तर होती गई। विषमता के कारणों की पड़ताल की प्रक्रिया में परसाई भयमुक्त होते गए और रचनाएँ विषम शक्तियों को चुनौती देने लगीं। तभी परसाई के जीवन के बहुत करीब रहे कान्ति कुमार जैन लिखते हैं- “मार्क्सवाद से हुई दोस्ती ने बताया कि परसाई लड़ो, लड़ो अपने लिए ही नहीं, दुनिया के लिए लड़ो, दुनिया को साथ लेकर लड़ो। लड़ने के लिए लेखन को हथियार बनाओ, तुम्हें कालजयी साहित्य नहीं लिखना है- जो साहित्य अपने समय के साथ नहीं है, वह समयजयी क्या होगा। सो पार्टनर स्तम्भ लिखो, कॉलम लिखो, और अंत में लिखो, कबीरा खड़ा बाजार में लिखो, तुलसीदास चन्दन घिसें लिखो, लिखने को हथियार बनाकर लिखो”।12 तभी परसाई विपरीत परिस्थितियों में भी लिखते रहे। पीते भी पर लिखते और भिड़ते रहे। खूब लिखते रहे और लड़ते रहे।
उनका लेखन शोषितों को बल देता रहा, तो शोषकों को भयभीत करता रहा। उनकी रचनाओं का निर्माण ही संकट की स्थितियों के बीच से होता रहा है। ये रचनाएँ उसी वर्ग के बीच से आती रही हैं, जो जीवनभर उत्पीड़ित रहा पर अपनी घनघोर जीजिविषा के बल पर लड़ता रहा और जीवन जीता रहा। परसाई अपनी रचनाओं से इसी उत्पीड़ित जनता की जीजिविषा को मजबूत करते रहे। परसाई की रचनाएँ रिक्शेवालों, टपरे वालों, खोमचे वालों, पल्लेदारों के बीच से निकलती हैं। परसाई उनके बीच बैठते, उनसे बातें करते, एक जमीनी कार्यकर्ता की तरह उनके अभावों को नजदीक से देखते-परखते, तब कहीं जाकर उनकी लेखनी को एक विषय मिलता। इसलिए परसाई के लेखन में कहीं आदर्श की कोई झलक या कोरी भावुकता नहीं दिखाई देती बल्कि वहाँ से एक कठोर और यथार्थ जीवन झाँकता है। वहीं से ‘रामदास’ और वहीं से ‘भोलाराम’ का सृजन होता है।
मुक्तिबोध की एक कविता है- ‘मुझे याद आते हैं’, जिसमें उन्होने यथार्थ को ‘पागल यथार्थ’ कहा है। इसी पागल यथार्थ को परसाई ने जाना और अनुभव किया। विश्वनाथ त्रिपाठी ने अनुभव के विषय में लिखा है- “संवेदना अनुभव से जुड़ी होती है। दूसरों के कष्ट को कल्पना से हम अपना लेते हैं। इस कल्पना का आधार हमारा अपना अनुभव होता है। कल्पना अनुभव भी की जाती है कि हम इस स्थिति में हों तो कैसा लगेगा”।13 परसाई के यहाँ यह अनुभव और कल्पना मिलकर उनकी संवेदना को उद्वेलित करते हैं। शोषित और गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों के बीच रहकर उन्होंने उनके दुख को अनुभव किया और उसे अपने दुख से, अपनी संवेदना से जोड़कर अपना लिया। इस दुख और अभावग्रस्तता के आगे उन्हें अपने दुख भी बहुत छोटे लगे। उन्हीं के संसर्ग ने परसाई को अपने दुखों के सम्मोहन से बाहर निकाला। कान्ति कुमार जैन ने परसाई के परसाई बनने की प्रक्रिया के विषय में लिखा है- “परसाई जनता की गलियों में जा रहे थे, जनता की टूटी तस्वीरें मढ़ रहे थे। जनता अपनी गलियों में सुबह से शाम तक जो भाषा बोल रही थी, वह उनका आदर्श था। अब परसाई जी विधिवत लेखक बन रहे थे- गद्य लेखक”।14
गद्य में भी गद्य का वह आखिर कौनसा रूप था, जिसने चुप्पी को विधिवत वाणी दी। शोषकों के खिलाफ सीधी-सीधी लड़ाई लड़ी। परसाई ने बालमुकुंद गुप्त, इंशाअल्ला खाँ, प्रेमचंद की परंपरा में लिखना शुरू किया। उन्हें विसंगतियों के साथ लड़ने के लिए एक हथियार की तलाश थी। परसाई को व्यंग्य का हथियार मिला। कहानियों, निबंधों और उपन्यास में व्यंग्य ने हथियार बन कर शोषण के खिलाफ आर-पार की लड़ाई लड़ी। परसाई जीवन भर सामाजिक-राजनीतिक हर स्तर पर विसंगतियों को चुनौती देते रहे। अब भी उनके व्यंग्य, उनकी रचनाएँ वर्तमान संकटकालीन स्थितियों पर वैसे ही सवाल खड़े करती हैं और वैसे ही प्रहार करती हैं।
संदर्भ सूची-
1. शब्द और कर्म- मैनेजर पाण्डेय, पृष्ठ. 14, वाणी प्रकाशन, संस्करण- 1998
2. लेखन कला और रचना कौशल- मैक्सिम गोर्की, पृष्ठ- 17, परिकल्पना प्रकाशन, प्रथम संस्करण- जनवरी 2006
3. हरिशंकर परसाई: व्यंग्य की व्याप्ति और गहराई- वेद प्रकाश, पृष्ठ- 7, साहित्य भंडार प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2013
4. वही
5. वही
6. शब्द और कर्म- मैनेजर पाण्डेय, पृष्ठ. 13, वाणी प्रकाशन, संस्करण- 1998
7. शब्द और कर्म- मैनेजर पाण्डेय, पृष्ठ. 14, वाणी प्रकाशन, संस्करण- 1998
8. परसाई रचनावली (1)- संपादक मण्डल- कमला प्रसाद, धनंजय वर्मा, श्याम सुंदर मिश्र, मलय, श्याम कश्यप, पृष्ठ- 169, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण- सितंबर 1998
9. तुम्हारा परसाई- कान्ति कुमार जैन, पृष्ठ- 52, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 2004
10. वही
11. तुम्हारा परसाई- कान्ति कुमार जैन, पृष्ठ- 53, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 2004
12. तुम्हारा परसाई- कान्ति कुमार जैन, पृष्ठ- 54, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 2004
13. देश के इस दौर में- विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ- 20, राजकमल प्रकाशन, पहला राजकमल संस्करण 2000
14. तुम्हारा परसाई- कान्ति कुमार जैन, पृष्ठ- 54, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 2004
– शिप्रा किरण