आलेख
हरिवंश राय बच्चन: कथायात्रा के विभिन्न चरण
– डॉ. रूचिरा ढींगरा
कवि, आत्मकथाकार रूप में विख्यात बच्चन एक सफल कहानीकार भी हैं। इनकी पहली, पुरस्कृत कहानी ‘हृदय की आँखें’ सन् 1930 में ‘हंस’ में प्रकाशित हुई थी।- “मुझमें कहानीकार के बीज हैं और मैं अभ्यास करता जाऊँ तो संभव है किसी दिन कहानी के क्षेत्र में अपने लिए कुछ स्थान बना सकूँ।”1
उनके लिए कविता और कहानी में से कौनसी विधा अधिक उपयुक्त होगी, इसे लेकर वे दुविधाग्रस्त थे। उन्होंने लिखा….”जैसे कवि और कहानीकार मेरे अंदर परस्पर संघर्ष कर रहे हो और मैं अभी तक निश्चय नहीं कर सका हूँ कि विजय का सेहरा किसके माथे बांधूं।”2
सन 1935 तक मधुकाव्य रचने के साथ उन्होंने कहानियाँ भी लिखीं किंतु उन्हें प्रकाशित कर पाने में असफल रहे। उनकी 12 कहानियाँ प्रारंभिक रचनाएँ तीसरे भाग में और एक ‘निशा निमंत्रण’ काव्य संग्रह के प्रारंभ में संकलित हैं। उन्होंने अपनी कहानियों मे तदयुगीन समाज की समस्याओं यथा- बाल विवाह, विधवा विवाह, अंतरजातीय विवाह, रूढ़िग्रस्तता और अंधविश्वास, प्रेम विवाह आदि को अपना विषय बनाया।
प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी परिषद द्वारा आयोजित प्रथम गल्प सम्मेलन (1929) में पुरस्कृत व ‘हंस’ में प्रकाशित ‘माता और मातृभूमि’ बच्चन की एकमात्र देश प्रेम संबंधित कहानी है। अफगान के देशभक्त बलिदानी फौजी की बेवा अज़मतुन सरकार द्वारा दी जाने वाली धनराशि से जीवन निर्वाह करते हुए भी अपने पुत्र उमर को पारिवारिक कारोबार से हटाकर मिडिल तक शिक्षा दिलवाती है। माँ के अस्वस्थ रहने पर उमर शिक्षा बीच में ही छोड़ देता है किंतु अफगानी क्रांति के पश्चात मातृभूमि की सेवा न कर पाने के कारण दुखी होता है। पुत्र की दुविधाग्रस्त मानसिकता से परिचित अज़मतुन, मातृभूमि की सेवा के लिए उसे तैयार करने के लिए आत्महत्या कर लेती है। मृत्यु से पूर्व उमर के लिए संदेश में वह लिखती है- “जब मादरे-अफगानिस्तान को उसके बच्चे की ज़रूरत है, मैं तुम्हें अपने पास रखना नहीं चाहती। क्या अफगानिस्तान मेरी माँ नहीं है?……तुम्हें अब मैं एक बड़ी माँ की गोद में सौंप रही हूँ। तुम अब उस माँ की ख़िदमत करना। खुदाबंद करीम तुम्हारे बाजुओं में ताकत दे कि तुम अफगानिस्तान के दुश्मनों को जल्द हराओ….।”3
लेखक ने कहानी का प्रारंभ देश-प्रेम के संक्षिप्त वर्णन से किया है। अज़मतुन का शिक्षा और देश प्रेम, उमर का माँ और मातृभूमि के प्रति प्रेम, अफगानिस्तान की क्रांति, शासक अमानुल्लाह के सुधारों के प्रति अंधविश्वासी मुल्लाओं और जनता की प्रतिक्रिया आदि का व्यंग्यात्मक वर्णन कथा को विकसित करता है। मुस्लिम समाज में अनेक कुरीतियों (बालविवाह, दहेज, धार्मिक कट्टरता) व्याप्त थी, जिनका दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय आदि ने विरोध किया। विवेच्य कहानी में लेखक ने अशिक्षा, बालविवाह, धार्मिक संकीर्णता आदि पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की है। माता और मातृभूमि के मध्य चयन का द्वंद ही अंज़मतुम की आत्महत्या कहानी की चरमसीमा और अन्त है। अज़मतुन साहसी, देशभक्त, ममत्व से युक्त है। उसका बलिदान कायरता न होकर प्रशंसनीय है। उसका अंतिम संदेश उसके चरित्र को उद्घाटित करता है। उमर मेधावी, माँ और देश से अटूट प्रेम करनेवाला है। चरित्रोद्घाटन में वर्णात्मक और अन्यत्र व्यंग्य, पत्रादि शैलियों का अवलम्ब लिया गया है। भाषा तदनुसार है। [अरबी, फारसी, उर्दू (फि़र्के, कौम, रोज़गार, वफादार, रंज) अंग्रेजी (जॉन, ऑफ़, आर्क) हिंदी के तत्सम (मिथ्यांधविश्वास, सुश्रुत) आदि।] शब्दों के मध्य रिक्त स्थान छोड़कर (ख़ुद…अरे क्या करें…. क्यों) तथा ध्वन्यात्मक शब्दों को यथास्थान देकर नवीन शैली का उपयोग किया है, वह परिवर्ती प्रयोगवादी काव्य की विशेषता रही है। कोई भी देश अपने को धन्य तभी मान सकता है, जब कोई माँ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर अपनी संतान को मातृभूमि के प्रति उसके कर्तव्य से अवगत कराती है।
डॉ. जीवन प्रकाश जोशी का अभिमत है- “बच्चन की इस कहानी में उनका प्रचारात्मक घटिया स्तर का अंकन नहीं है। विचार, प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की अन्विति कलात्मक है, जो बच्चन की कहानियों में फिर नहीं अनुभव होती। यह प्रेमचंदीय कहानी कला की ऊँचाई का आदर्श है। सोचता हूँ बच्चन ऐसी ही कहानियाँ लिखते जाते तो….”।4
हृदय की आँखें, संकोच त्याग, अंचल का बंदी, चिड़ियों की जान जाए लड़कों का खिलौना, स्वार्थ आदि प्रेम-प्रधान कहानियाँ हैं। इनमें स्वच्छंदतावादी वृत्तियों-सौन्दर्य एवं प्रकृति का कल्पित चित्रण, रोमानियत तथा काव्यात्मक भाषा शैली मिलती है। हृदय की आंखें (1931) शिक्षित आधुनिक विचारों वाला ‘मैं’ पूर्व परिचित, शिक्षित, सुंदर लड़की से विवाह करना चाहता है। वह समाज जब तक उदार नहीं होता, अविवाहित रहने का निश्चय करता है।- “हमारे यहाँ तो विवाह इस तरह होते हैं कि दूल्हा-दुल्हन की पहली भेंट सुहागरात के दिन होती है। चाहे वे एक-दूसरे को पसंद हों या ना हों, उन्हें जीवन पर्यंत एक दूसरे को प्यार करने का स्वांग करना पड़ता है। मेरी अभिलाषाएं ऊंची थीं। मैं हिंदू विवाह को अन्याय पूर्ण रीति समझता था।”5
सुंदर के धोखे में सामान्य कन्या से विवाह होने से वह ख़ुद को ठगा अनुभव करता है। अपराध बोध से ग्रस्त कन्या की निश्छल स्वीकृति और आत्महत्या करने के प्रस्ताव के पश्चात हृदय की आँखों से उसके आत्मिक सौन्दर्य को परख उसे स्वीकारता है- “मेरा दृष्टि बिंदु उसके कपोलों पर से हटकर उसके हृदय के अंदर चला गया। वहाँ मुझे एक सुकुमार और सुकोमल हृदय के दर्शन हुए, जिसमें सिवा आत्म त्याग और बलिदान के कोई और भावना न थी।”6
कहानी प्रेमचंदीय कहानियों की भांति पात्र परिचय के साथ आरंभ होती है। आधुनिक दृष्टिकोण से उत्पन्न पीढ़ीगत टकराव स्पष्ट दिखाई देता है।- “शारीरिक सौंदर्य आत्मिक सौन्दर्य की छाया है, जिसका मन निर्मल, निर्विकार और निष्कपट होता है उसका शरीर भी दीप्तिमान, चित्ताकर्षक और मनोहर होता है।”7 यही चरमसीमा है जहाँ बच्चन की सौंदर्य दृष्टि में आए बदलाव (आत्मिक सौन्दर्य को महत्व देना) के संकेत मिलते हैं। नायक का परिवर्तित सौन्दर्यदर्शन ही शीर्षक की अनुगूंज है।- “सौंदर्य को देखने के लिए आँखें भी दो प्रकार की होती है। एक चेहरे के ऊपर और एक हृदय के भीतर…. ह्रदय की आँखें ऊपरी आँखों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय होती हैं।”8 आदर्श की प्रतिष्ठा करने के लिए लेखक ने नायक में प्रत्युत्पन्नमति और व्यावहारिकता लाकर उसका चरित्र बदला है। उसकी पत्नी की ग्लानि, अपराधबोध भी आदर्श है। शेष पात्रों में नायक के पिता का आविर्भाव दो पीढ़ियों के टकराव को दिखाता है। डॉक्टर जीवन प्रकाश जोशी ने इस संदर्भ में लिखा है- “एक तरह से बच्चन ने अपना किशोर युवक का जिया जीवन जिसको श्यामा के साथ हुए पहले विवाह के परिप्रेक्ष्य में पारिवारिक परंपरा, संस्कार और सामाजिक रूढ़ियाँ जकड़े हुए थीं, इस कहानी के कथ्य में उतार दिया है।”9
तत्सम (निर्विकार, अनिष्टकारी, मनोमालिन्य) तद्भव (खिलौना, बूढ़ी) अरबी उर्दू फारसी (हौसला, दकियानूसी, ज़िन्दगी) अंग्रेजी (फिलॉस्फी) के साथ लोहा मानना, चलता पर्जा होना, खरा सोना जैसे मुहावरों, वर्णात्मक, नाटकीय शैलियों के साथ रामचरितमानस की पंक्तियों के सुंदर प्रयोग से भाषा में जीवंतता और सहजता है।
संकोच त्याग (हंस, 1931) बसंत और प्रभा के प्रथम दृष्टि में होने वाले आकर्षण और प्रेम को अभिव्यक्त करती है। शिक्षित अध्यापक बनने के आकांक्षी बसंत का विवाह उपरांत के दायित्व और व्यय की कल्पना करके 4 वर्ष तक अविवाहित रहने का संकल्प प्रभा के सौंदर्य पर मुग्ध हो जाने के बाद ताश के पत्ते की तरह ढह जाता है। प्रभा भी पिता द्वारा निश्चित विवाह को टालकर चार वर्ष तक अविवाहित रहने का प्रण लेती है। कहानीकार द्वारा वर्णित समस्त प्रेम व्यापार सतही है। शीर्षक कथा का पूर्वाभास कराने वाला संक्षिप्त, कौतूहलपूर्ण है। बसंत निर्धन मेधावी है किन्तु उसमें अपने प्रेम को स्वीकार करने की अपेक्षित दृढता का अभाव है। उसकी इस कमी को प्रभा की दृढता, निर्भरता, व्यावहारिकता और बुद्धिमत्ता द्वारा दूर करने का प्रयास किया गया है। चरित्रांकन के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष पद्धतियों के अतिरिक्त नायक के आत्मचिंतन और प्रेमपत्रों का अवलंब लिया है। दोनों ही पात्र पाठकों पर अपेक्षाकृत प्रभाव डालने में अक्षम रहे हैं। कहानी के प्रारंभिक संवाद अत्यंत औपचारिक, संक्षिप्त हैं। प्रभा और बसंत के संवाद, बसंत की संकोची और भीरु प्रवृत्ति तथा प्रभा और उसके पिता की बातचीत प्रभा की चारित्रिक दृढ़ता और अंबा शंकर की सुलझे दृष्टिकोण की परिचायक है। नायक-नायिका के परस्पर संबोधन प्यारी-प्यारे सतही, अस्वाभाविक और हास्यास्पद हैं। विषयानुरुप सहज, सरल, सूक्तिमयी भाषा का प्रयोग है यथा- ‘स्मृतियाँ अमर हैं, प्रेम जहाँ खड़े होने की जगह पाता है वहाँ बैठने की जगह पाने का प्रयास करने लगता है।’ कहानी वर्णात्मक शैली में है। बसंत की मानसिकता को उभारने के लिए भावात्मक तथा प्रभा के पत्रों, पते और उद्धरणों में उद्धरण शैली का प्रयोग हुआ है। लेखक ने अंग्रेजी की काव्य पंक्तियों को देवनागरी में लिखने या अनुदित करने का प्रयास नहीं किया, जिससे शैली में शिथिलता आई है। डॉ. इंदुबाला दीवान के अनुसार- “बच्चन की रचनाओं में नारी की प्रतिष्ठा किसी देवी, सती या सामाजिक दृष्टिकोण से नहीं हुई…नारी पुरुष के सहज संबंध को रखकर ही हुई है।”10
अंचल का बंदी (माधुरी, 1932) मातृ-पितृ हीना मनोरमा, मुनीम हीराचंद के संरक्षण में पलती, संतानवत दुलार पाती है। पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव उसे उच्श्रृंखल और स्वच्छंद बना देता है। उसका मानना है- “बिना इस पारस्परिक प्रेम के विवाह एक व्यर्थ का बंधन होगा। उस अवस्था में सुख के सभी साधनों की उपस्थिति में भी जीवन दुखपूर्ण होगा। उसे प्राप्त करके वह किसी और बात की चिंता न करेगी।”11 वह सच्चे प्रेम की खोज में सनाढ्य युवक मनोहर को भिक्षुक रूप में भटकता देख मोहित होती है और घर लाकर अपना सचिव नियुक्त करती है। देश में क्रांतिकारी घटनाएँ होती हैं। हीरालाल मनोहर को क्रांतिकारी घोषित कर जेल भिजवाना चाहते हैं। मनोहर दूसरे शहर भाग जाता है, मनोरमा अपना नौलखा हार खोने की कल्पित कहानी सुनाकर उसका पता लगाती है और दारोगा को 500 रुपये देकर मनोहर को छुड़वा लेती है। अंत में वह मनोहर को सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराकर उससे विवाह कर लेती है। कथा अस्वाभाविक और अविश्वसनीय है, कहानी मनोहर और मनोरमा के प्रेम के साथ प्रारंभ, विभिन्न घटनाओं के साथ विकसित हो, मनोरमा द्वारा अपनी साड़ी के छोर से मनोहर की धोती को बांध देने पर समाप्त हो जाती है। अंत में सारी लांछना सहकर मनोहर का मनोरमा को स्वीकार करना, प्रेम विवाह के औचित्य को सिद्ध करने के लिए घटनाओं का मनचाहा आरोपण प्रतीत होता है। मनोरमा और मनोहर मुख्य पात्र हैं। हीरालाल घटनाक्रम को विकसित करने व मनोरमा के चरित्र को उठाने के लिए नियोजित हैं। मनोरमा के पिता उल्लिखित पात्र हैं। नारी अपने प्यार को पाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है, यह दिखाने के लिए लेखक ने उसके चरित्र में मनचाहे रंग भरे हैं। संवाद कथा विकास में सहायक और चरित्रोद्घाटक है। हीरानंद की दायित्व भावना और अवमानना जनित खिन्नता तथा नौकरों का अंधविश्वास उनके संवादों में मुखर है। मनोहर और मनोरमा के रोमानियत भरे संवाद अवश्य हास्यास्पद हैं। भाषा सहज, सरल, पात्रानुकूल है। नौकरों की भाषा में ग्राम्यता है। हीरालाल की भाषा बाद मे व्यंग्यात्मक हो जाती है- “कहो बेटी! फकिरवा आखिर भाग गवा ना? तेरा तो वह पारवेट सरकट्टी था न!”12 मुहावरों [लाठी भी न टूटी और साँप भी मर गया, पैरों के नीचे से धरती खिसक गई], सूक्तियों [प्रेम जताकर नहीं आता] ने भाषा को जीवंत बनाया है। कहानी के प्रारंभ और मध्य भाग में विवरणात्मक, मनोहर की बाह्य आकृति और उसके जादुई प्रभाव को दिखाने के लिए भावात्मक, मनोरमा के स्वप्न में स्वप्नशैली, पात्रों की परस्पर बातचीत में संवाद शैली का प्रयोग हुआ है।
‘चिड़ियों की जान जाए, लड़कों का खिलौना’ कहानी अन्तरजातीय प्रेम की असफलता को व्यंजित करती है। ईसाई धर्म स्वीकार कर ब्राह्मण आत्माराम और उनके पड़ोसी राधाचरण सैमुअल आत्माराम और हेनरी राधाचरण बन जाते हैं। आसाराम की पुत्री रुबिया और राधाचरण के पुत्र जैकब की बाल मित्रता प्रेम में परिवर्तित हो जाती है किंतु रुबिया के शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रयाग चले जाने पर वह पत्रों, चित्रों और रूमालों के आदान-प्रदान पर ही रुक जाता है। प्रयाग में ‘चम्पत चमत्कारी सभा’ के नाम से सक्रिय मनचले युवकों द्वारा जैकब के पत्र भी चम्पत किए जाने पर रुबिया पहले उसके प्रेम के प्रति आशंकित होती है और बाद में एक पत्र को [जैकब की लिखावट में लिखा गया] वास्तविक मानकर पत्र को सीने से लगाकर आत्महत्या कर लेती है। पत्र में लिखा था- मूर्ख रुबिया मेरे दिल में तेरे लिए कुछ भी प्यार नहीं है। क्यों खत भेज भेज कर मुझे परेशान करती है। मेरे पढ़ने-लिखने में खलल पहुंचता है। मुझे धमकी देती है कि मैं प्यार न करूँगा तो तू अपनी जान दे देगी। यह गीदड़ भभकी औरों को देना। मौत आएगी तो कहोगी कि ज़रा लकड़ी का बोझ उठाकर मेरे सिर पर रख दो। ख़बरदार अब कभी खत न भेजना। तुझे जो भूल गया जैकब।13 रुबिया और जैकब के पिता रुबिया के संस्कार के बाद जब कानपुर लौटते हैं तो जैकब भी रुबिया के पत्र को सीने से लगाए आत्महत्या कर चुका होता है । कथा वस्तु में गंभीरता का अभाव है। मनचले युवकों का प्रसंग कथा विकास के लिए थोपा गया है। आरोह अवरोह रहित सारी घटनाएं पूर्वनिर्धारित है । शीर्षक लम्बा है। लड़कियों की कल्पना चिडियों से और खिलौनों की गुलेल से की गई है जो स्पष्ट नहीं है । कहानी मे भी रुबिया , जैकब दो मुख्य पात्र हैं । इनके अभिभावक और मनचले युवक मात्र उल्लिखित है । रुबिया सुंदर , शिक्षित , प्रेम की प्रतिमूर्ति है , जैकब संवेदनशील आदर्श प्रेमी है। वर्णात्मक पद्धति से अंकित उनके चरित्र सामान्य कोटि के हैं । मनचले लड़कों की उद्दंडता का वर्णन स्वभाविक है ।संवाद कम , संक्षिप्त और कथा का पूर्वाभास कराने वाले हैं। कथाकार ने दैनंदिन व्यवहार में आने वाले तत्सम ( सार्थक , घनिष्ठ , दूषण ) तद्भव ( सटकर , ढेले ) उर्दू ( नजदीक , परेशान , कमजोर , शैतान ) अंग्रेजी ( चर्च , बोर्डिंग हाउस , , लेटर बॉक्स ) आदि शब्दों से युक्त मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है । धौलिया पुलाव मचाना , शामत का मारा , गीदड़ भभकी देना जैसे मुहावरे तथा बुझने से पहले चिराग की लौ एकदम बढ़ जाती है सूक्ति के प्रयोग ने भाषा में सजीवता , रोचकता और गतिशीलता प्रदान की है । वर्णात्मक, संवादात्मक, पत्रात्मक भावात्मक शैलियों का यथास्थान प्रयोग हुआ है। पत्रो के यथावत उद्घृत होने और संवादों में लैला मजनूं सी रोमानियत होने से कथा प्रवाह में शिथिलता आई है । आर्थर का गाना भी गरिमाहीन और ऊबाऊ है ; समग्रत: कहानी अति सामान्य कोटि की है। धार्मिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर आधारित …धार्मिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर आधारित कहानियों में ‘ धर्म परीक्षा’ और ‘ ठाकुर जी’ हैं ।
‘धर्म परीक्षा’ प्रारंभ में जाति से ब्राह्मण और कर्म से दफ्तर में ₹10 पाने वाला दरबान रामदिन महीने के अंत में घर के लिए जरूरी सामान लेने बाजार जाता है , जहां अहीर द्वारा मात्र ₹16 में कसाई को गाय बेचता देख रुक जाता है । अपनी सारी जमा-पूंजी देकर वह गाय खरीदने के लिए तत्पर होता है । वह पास खड़े आदमियों से कहता है -” देखो इतने हिंदू है । एक गाय की जान नहीं बचा सकते । कहलाते हैं राम कृष्ण के भक्त और कृष्ण ने जिन गौओ को बन बन चराया उनकी रक्षा नहीं कर सकते । कैसा कलयुग छाया है । कैसी दुनिया मतलब की हो गई है । जब तक छाती फाड़ फाड़ कर दूध पिलाए तब तक तो गऊ माता है । वही माता जब बूढ़ी हो जाती है तब कसाई के हाथ सौंप देते हैं । धिक्कार है ऐसे हिंदुओं को । ” (14 ) अंत में अहीर का हृदयपरिवर्तन होता है और वह गाय के गले में एक पोटली में ₹20 और एक पर्ची बांधकर और प्रति माह खर्च के लिए ₹10 देने का संकल्प करके चला जाता है। कहानी का प्रारंभ बिना किसी भूमिका के ब्राह्मण रामदास और उसके परिवार के परिचय से हुआ है ;अहीर और रामदास के तर्कवितर्क , ब्राह्मण का द्वंद कथा को विकसित करता है । कहानी को अपेक्षित उद्देश्य की दिशा देने के लिए लेखक ने ब्राह्मण दंपति की तकरार की योजना की है । अहीर की आत्मग्लानि और संकल्प चरम सीमा है । कहानी का अंत अंधविश्वास को बढ़ावा देने के कारण प्रभावहीन है। ” वही माखन मिश्री का खवैया , गऊओ का चरैया , कृष्ण कन्हैया , यह रूपए बांध जाता है। उसी ने ग्वाले का वेश धारण करके रामदास की धर्म परीक्षा ली थी । ” (15)
शीर्षक कथा की मूल संवेदना से जुड़ा है। संपूर्ण कथा के केन्द्र में ब्राह्मण प्रमुख पात्र है। संवाद पात्रानुकूल है यथा ब्राह्मणी की उक्ति ” आंख में अंजन करने भर को तो आटा है नहीं, इन्हें चीटियों के लिए आटा चाहिए”। ( 16) उनकी मानसिकता को प्रकाशित करती है। बरकत होना , शर्म से कटना , छाती फाड़ ना, दूध पिलाना मुहावरे तथा ‘मुंह मांगी तो मौत भी नहीं आती ‘ जैसी लोकोक्तियां लेखक की भाषा में रची बसी सी मिलती है। स्थान स्थान पर गौ हत्या विषयक टिप्पणियां युगीन विचारधारा से प्रभावित हैं । मानस से उद्धरण बच्चन जी के मानस के प्रति आस्था को अभिव्यक्त करता है । “सुर नर मुनि की याही रीती। स्वारथ लाय करें सब प्रीती।।” (17) “ ठाकुर जी’ कट्टर सनातनी धर्मी वृद्धा का पुत्र राजकुमार तदयुगीन आर्य समाजी सुधारों और मान्यताओं से प्रभावित होकर उसे अपनाने के लिए साम दाम दंड भेद की नीति अपनाता है । राजकुमार मां को भी आर्य समाजी बनाना चाहता था किंतु मानमनुहार से भी मां की विचारधारा में परिवर्तन करने में असफल रहने पर ठाकुर जी को छप्पर में छिपा देता है। मां के पूछने पर कहता है ” तुम्ही बताओ । ऐसे ठाकुर जी को पूजने से क्या फायदा जिनमें इतनी ताकत नहीं कि अपने से उठ बैठ सकें। स्वामी दयानंद कहते हैं कि जो मूर्ति पूजता है वह अनेय जन्म तक नरक में रहता है।” (18) कुछ दिन बाद वह ठाकुर जी को मृत घोषित कर गंगा में प्रवाहित कर देता है । ठाकुर जी को खोजने में असमर्थ वृद्धा मां के पानी में उतर जाने पर ठाकुर जी के मिलने की काल्पनिक कथा कहकर उन्हें बुला लेता है पर वृद्धा भीषण ज्वर और सन्निपात की अवस्था में उन्मादिनी की भांति नाचती , गाती ठाकुर जी को गुहारती अपने प्राण त्याग देती है। अपराध बोध से ग्रसित पुत्र आर्य समाज को छोड़ कर पुनः सनातन धर्मी बन जाता है। वह अपनी मां का मृत शरीर हनुमान घाट में ही प्रवाहित करता है और ठाकुर जी के स्थान पर माता का चांदी का अनंता स्थापित कर श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
कहानी वृद्धा और उसके परिवार की आस्थामय , संयमित और संतुष्ट जीवन के साथ प्रारंभ होकर पुत्र के आर्य समाज अपनाने के तर्क वितर्क और विभिन्न व्यवहारों के साथ विकसित होकर चरम सीमा पर पहुंचती है । ठाकुर जी को ढूंढने के लिए किए गए वृद्धा के विभिन्न प्रयास कथा को गति देते हैं । वृद्धा की उन्मादिनी अवस्था चरम सीमा है । पुत्र के ह्रदय परिवर्तन , क्षोभ ,ग्लानि को दर्शाने के लिए कहानीकार ने कहानी का अंत चरम सीमा पर ना करके आगे बढ़ाया है । शीर्षक संक्षिप्त , कहानी की मूल संवेदना और मुख्य पात्रों से घनिष्ठ रूप से संबद्ध है । वृद्धा और पुत्र दोनों वर्गगत पात्र हैं जो अपने-अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं । वृद्धा के ठाकुर जी को ढूंढने के प्रयास , उन्मादावस्था में प्राण त्यागना अस्वाभाविक और अविश्वसनीय है , संभवत लेखक इनका नियोजन पुत्र के हृदय परिवर्तन के लिए किया है।
बच्चन स्वयं आर्य समाज की कतिपय मान्यताओं को स्वीकार करते थे । ‘नए पुराने झरोखे ‘ में ‘अंग्रेजो के बीच दो साल ‘ निबंध में उन्होंने लिखा है -” शुरू जवानी में आर्य समाजी बनकर मैंने कुल में पूजे जाने वाले देवी देवता , माता भवानी से छुट्टी ली।” (19 ) वृद्धा की पुत्रवधू की योजना घर में दबघुटकर रहने वाली स्त्रियों की दशा को स्पष्ट करने तथा पर्दा प्रथा का खंडन करने के निमित्त हुई है । प्रत्यक्ष , परोक्ष पद्धतियों का प्रयोग करते हुए कहानिकार ने चरित्रों को उभारा है। वृद्धा के घर परिवार के परिवेश और जीवनचर्या का वर्णन सजीव और यथार्थ है । मुहावरों -( बखेड़ा होना , हक्का बक्का होना ) के प्रयोग से भाषा में सजीवता और जीवंतता आई है।यथाअवसर वर्णात्मक, नाटकीय, भावात्मक शैलियों का प्रयोग किया गया है।
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– डॉ. रूचिरा ढींगरा