हस्तक्षेप
हम जिसे ओढ़ते-बिछाते हैं
(हिन्दी तग़ज़्ज़ुल में जनोन्मुख वैचारिक सरोकारों की इस शानदार मौलिक परम्परा: दुष्यन्त से जोशी तक, पर एक संक्षिप्त तब्सिरा…बरास्ते ‘पत्थरों के शहर में’)
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न सिर्फ भारतीय, बल्कि वैश्विक साहित्यिक-सृजनात्मकता की सरज़मीं पर भी, कोई भी थोड़ा सजग, जागरूक पाठक अपने स्तर पर ही आसानी से इस तथ्य की प्रामाणिक तस्दीक़ व पुष्टि कर सकता है, और व्यवहार-क्षेत्र में भी सोदाहरण इसकी बानगियां गिना सकता है, कि तग़ज़्ज़ुल ही वह ज़मीन है जहाँ आज के सम्पूर्ण वैश्विक-साहित्य-जगत में काव्य-रचना के क्षेत्र में स्पष्ट परिलक्षित हो रहे खालीपन के दौर में भी रचनात्मकता की एक अत्यंत संतोषप्रद और खुशनुमा गहमा-गहमी न सिर्फ बरकरार ही है, बल्कि निरंतर उत्तरोत्तर परिष्करण और परिवर्धन की ओर भी उन्मुख है; और कि ग़ज़लनिगारी ही वह जमीन हैं जहाँ आज की तारीख में साहित्यिक-सर्जनात्मकता की मशाल सबसे ज्यादा रौशनी देती हुई जल रही है। बल्कि आज की तारीख में तो आम-रुचि के पाठकों के दिलो-दिमाग में भी साहित्यिक काव्याभिव्यक्ति के प्रति उत्तरोत्तर बढती जा रही उदासीनता और अलगाव, और साथ-साथ अभिव्यक्ति के एक सिम्फ-विशेष के रूप में भी कविता के महत्व और उसकी गुणवत्ता के दिन-ब-दिन अवरोह-पथ पर ही ढलकते जा रहे होने, के परिणामस्वरूप कुछ आलोचक तो आज दबे स्वरों में यह प्रतिस्थापना भी देते सूने जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में ग़ज़ल ही काव्य का न सिर्फ सर्वाधिक लोकप्रिय बल्कि सर्वाधिक मान्य विकल्प भी होगा।
तो ये तो बात इसकी हुई कि वर्तमान साहित्यिक रचनात्मकता के परिदृश्य में ग़ज़ल है कहाँ पर! अब प्रस्तुत आलेख-विशेष के विषय-विशेष और दृष्टांत-विशेष को दृष्टिगत और संदर्भगत रखते हुए इसके साथ मैं यह जोड़ना चाहूंगा यहां, कि पाठकीय खुशकिस्मती से जब भी आपको मौक़ा मिलता है डॉ. राकेश जोशी जैसे कलमकारों की ग़ज़लगोई से- भावों को ऐसी अकूत गहराई में जाकर और संवेदनाओं को इस गहनता के साथ पकड़ने और फिर उसे सद्यः सम्प्रेषित कर पाने में निष्णात एक कवि की कृति से- होकर गुजरने का: तब आप दिल ही दिल में सिर्फ यही महसूस करते हैं कि हिन्दी में ग़ज़ल-रुपी इस अपेक्षाकृत नई साहित्यिक विधा के समस्त पुरानी विधाओं को पीछे ठेलते हुए साहित्यिक-सर्जना के तल पर सर्वोपरि स्थान प्राप्त कर लिया होना किसी भी दृष्टि से साहित्य की रंच-मात्र भी क्षति नहीं है, वरन वास्तविक मायनों में यह साहित्यिक काव्यात्मकता को पूर्ण पाठकीय उदासीनता से पीड़ित होते हुए अंतत: एक दिन बस नाम-मात्र भर ही बची रह जाने वाली अवश्यम्भाविता से बच सकने के लिए सबसे असरदार व्यवहारिक प्राविधि है।
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ग़ज़ल सिम्फ (विधा) के प्रति पाठकों और साहित्यकारों दोनों के इस बढ़ते हुए आकर्षण और ऐसी दीवानगी को जन्म देने वाले कारक होने के श्रेय के हक़दार तत्वों में यदि पहला तत्व है अन्य विधाओं की अपेक्षा ग़ज़ल का आम लोगों के साथ तेजी से बढ़ता हुआ जुड़ाव, तो दूसरा तत्व निःसंदेह रूप से यही है कि इस विधा को अच्छी-खासी संख्या में सबसे बेहतरीन साहित्यिक-प्रतिभाओं की ताज़ादम और ताज़ा खयाल रचनाधर्मिता का लाभ मिला है। हम यह भी देखते हैं कि ये दोनों वजहें ही दरअस्ल वे कारक हैं जिन्होंने ग़ज़ल-नामक इस सिम्फ-ए-सुख़न के पारम्परिक स्वरूप- यानी उर्दू-तग़ज़्ज़ुल, और इसके इस अपेक्षाकृत अत्यंत-हालिया रूप- यानी हिन्दी-तग़ज़्ज़ुल, के मध्य न सिर्फ भाषा और लिपि के स्तर पर ही, बल्कि उनकी सामान्य केन्द्रीय-सोच, अभिव्यक्ति की शैली, सामाजिक-साहित्यिक मूल्यों के प्रति आस्था के स्वरूप-विशेष, और विषय-विविधता के स्तर पर भी पर्याप्त भिन्नता बनाये रखी है। … … और भिन्नता भी ऐसी कि अत्यंत श्लाघनीय व खुले-हाथों स्वागत-योग्य।
कहना न होगा, आदरणीय डॉ. राकेश जोशी का यह विलक्षण ग़ज़ल-संग्रह: ‘पत्थरों के शहर में’, ही है ‘हस्तक्षेप’ के प्रस्तुत प्रकरण की केन्द्रीय विषय-वस्तु!
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आज के दौर की साहित्यिक हिन्दी-कविता की मुख्यधारा के चन्द निर्विवाद रूप से सर्वमान्य और सर्व-प्रतिष्ठित कवियों में से एक पद्मश्री-विभूषित कवि श्री लीलाधर मण्डलोई, ने डॉ. राकेश जोशी के इस ग़ज़ल-संग्रह के लिए लिखे बेहतरीन आमुख को शीर्षक दिया है: ‘दुष्यंत की परम्परा को आगे बढ़ाती ग़ज़लें’। अपने आप में यह शीर्षक ही बहुत कुछ कह देता है डॉ. जोशी के इस संग्रह की प्रशंसा में; और यहाँ हम ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं कि इस कथन के एक हरसंभव सरल, सहज और सर्वछादी पल्लवन के प्रयास में ही लगाएं अपनी ऊर्जा।
दुष्यंत की परम्परा को आगे बढ़ाती ग़ज़लें कहने से क्या अभिप्राय है, सबसे पहले यह देखें: तो, दुष्यंत नाम है ग़ज़ल को हिन्दी की विधा बनाने वाले एक युगदृष्टा रचनाकार का; न सिर्फ हिन्दी में इसे लाने वाले, बल्कि स्वयं हिन्दी भाषा और साहित्य की काव्यात्मक-सृजनशीलता को कल्पनातीत ऊँचाइयों तक पहुँचाने वाले, रचनाकार भी रहे दुष्यंत। हिन्दी साहित्य जगत हमेशा उनका कर्जदार रहेगा।
ऐसे तो ग़ज़ल उर्दू की धरोहर है, परन्तु सच तो यह है कि उर्दू ग़ज़लियत की भावभूमि इश्क और माशूक की रूमानियत तक ही संकीर्ण रह गई है युगों-युगों तक। दुष्यंत कुमार उर्दू की इस धरोहर को न सिर्फ हिन्दी में लेकर आये, बल्कि उसे इस पारम्परिक पहचान से मुक्त कर व्यापक धरातल भी प्रदान किया। ग़ज़ल को आभिजात्य संस्कृति के मंच से उठा कर जन संस्कृति के मंच पर खड़ा किया। उनकी गज़लें उनके ह्रदय में रहने वाले उन करोड़ों उपेक्षित, अवहेलित, मौन, सहनशील, अदम्य जिजीविषा से परिपूर्ण, बेबस ‘झुनझुना’- रूपी इंसानों की मुखर आवाज़ हैं, जो लोकतंत्र की विडम्बना से बेहाल है। दुष्यंत कुमार ने ग़ज़लें लिखीं, और उनका सबसे मौलिक योगदान यह है कि उन ग़ज़लों में उर्दू गजल का परम्परात रूप नहीं है, वरन स्वातंत्र्योत्तर विसंगति और आम आदमी के जीवन का कटु त्रासद यथार्थ है। गज़लकार ने अपने एकमात्र ग़ज़ल-संग्रह ‘साए में धूप’ की भूमिका में इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है– “सिर्फ पोशाक या शैली बदलने के लिए मैंने गज़लें नहीं कहीं। उसके कई कारण हैं, जिनमें सबसे मुख्य है कि मैंने अपनी तकलीफ को…उस शदद तकलीफ, जिससे सीना फटने लगता है, ज्यादा से ज्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए ग़ज़ल कही है।”
ज़ाहिर है, अपने सृजन-कर्म के वैचारिक परिधि की व्यापकता के पैमाने पर डॉ. राकेश जोशी को निःसंदेह ही दुष्यंत की परम्परा को नए विस्तार और नए कलेवर देने की कोशिश में लगे चन्द सर्वाधिक समर्थ और सशक्त नामों के रूप में चिन्हित किया जा सकता है: और कुछ के आधार पर नहीं भी, तो केवल विवेच्य संग्रह- पत्थरों के शहर में- में संग्रहित ग़ज़लों के आधार-मात्र पर ही। दुष्यन्त की परिपाटी पर चलते हुए ही, डॉ. जोशी की ग़ज़लें भी फ़क़त प्रेमी-प्रेमिका के संवादों, संलापों, प्रियतमा के हुस्न, हुस्न-ओ-इश्क की गुफ़्तगू और उनकी दुरभिसंधिओं, शबाब और शराब का वर्णन, प्रियतमा के गिजाल (हिरन) नेत्रों के कटाक्ष, नायक-नायिका के अंग-प्रत्यंग का चित्रण एवं हाव-भाव-अनुभाव की परीधि से बद्ध न रहकर वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के नफ़ीस खुरदरे सच को क्या ही असरदार बेबाकी से व्यक्त करती हैं; बल्कि डॉ. जोशी की ग़ज़लों को बड़ी आसानी से हम समाज के ‘दर्द का इतिहास’ के चन्द सर्वाधिक अधिमानित पाठों में से एक के तौर पर पढ़ सकते हैं। डॉ. जोशी अपनी ग़ज़लों में हर तरह के संदर्भों, दिशाओं, समस्याओं, सरोकारों और विसंगतियों पर बात करते हैं। इनकी ग़ज़लें प्रेमिका से नहीं, बल्कि प्रतिद्वंद्विओं, राजनेताओं, भ्रष्ट अधिकारियों, संवेदनशील-हृदयों से भी उतनी ही शिद्दत से बात करती है, जितनी कि अपने ‘वैयक्तिक’ आप से; इनके ग़ज़लों की उड़ान विश्वव्यापी है।
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डॉ. जोशी की ग़ज़लें हमारी चेतना को उद्बुद्ध करती हैं, हमें हमारे अधिकारों और कर्तव्य के प्रति सजग और सचेत करती हैं। जैसे, ग़ज़लकार कहते हैं कि हमारे देश की आज जो स्थिति है, उसके मूल में कहीं न कहीं हमारी चुप्पी का भी बड़ा योगदान है; और तब, देश आज़ाद हुए आज सत्तर साल हो गए होने के बावजूद भी अभी तक भूख, महंगाई, अभाव, लोकतंत्रीय विडम्बना से संत्रस्त आमजन के लिए डॉ. जोशी का सन्देश ये होता है, कि:-
आज फिर से भूख की और रोटिओं की बात हो
खेत से रूठे हुए सब मोतिओं की बात हो
जिनसे तय था ये अंधेरे दूर होंगे गाँव के
अब अंधेरों से कहाँ उन सब दीयों की बात हो
जिनको तुमने था उजाड़ा, कल तरक्की के लिए
आज फिर उजड़ी हुई उन बस्तियों की बात हो
डॉ. जोशी की ग़ज़लें स्वातंत्र्योत्तर जनविरोधी व्यवस्था के प्रतिकार में हुंकार की अदम्यता के ज़ोर पर उच्चरित एक प्रभावशाली और अनदेखी-अनसुनी न की जा सकने वाली आवाज़ें हैं- जन-विरोधी राजनीति और स्वार्थी, असंवेदनशील समाज के हमेशा ख़िलाफ़। उनकी ग़ज़लें समकालीन समस्याओं से सीधा मुठभेड़ करने को और हमेशा ही समकालीन समय के स्वार्थपरक शासन व्यवस्था, अराजक सामाजिक व्यवस्था और विषम आर्थिक व्यतिरेक को निरूत्तर करने को उद्धत जान पड़ती हैं:-
जब हकीकत सामने है, क्यों फसाने पर लिखूं
ये है बेहतर, दर्द में डूबे ज़माने पर लिखूं
खेत पर, खलिहान पर, मैं भूख-रोटी पर लिखूं
बंद होते जा रहे हर कारखाने पर लिखूं
फूल-भँवरे और तितली की कहानी छोड़कर
आदमी के हर उजड़ते आशियाने पर लिखूं
संग्रह की अधिकाँश ग़ज़लों से गुज़रते हुए आपको यह स्पष्ट तौर पर महसूस होता है कि ग़ज़लगोई को डॉ. जोशी जनविरोधी, असंवेदनशील, दमनकारी व्यवस्था के विरूद्ध एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं…और मानवीय सरोकारों की पक्षधरता कमोबेश इस संग्रह की सभी ग़ज़लों का मूल स्वर है। लेकिन, प्रशंसा सिर्फ इसी बात में नहीं कि इनकी ग़ज़लों का यह जनवादी स्वर बेहद सूक्ष्म, सटीक, बेलौस, बेचैन कर डालने की हद तक चुभता-हुआ और पर्याप्त से ज्यादा असरकारी भी है; बल्कि यह भी कि चरम निराशावाद से ओत-प्रोत वस्तुस्थितियों के दरमियान भी, ग़ज़लकार ने छोटे-से-छोटे और कमज़ोर-से-कमज़ोर आशा के तिनकों पर से ध्यान हटाया नहीं होता है कभी। वे व्यक्ति और समाज की चेतना उद्बुद्ध करने के पक्षधर हैं… समाज की बुराइओं के खात्मे के लिए छोटी-से-छोटी आहूति को भी महत्व दिए जाने के पक्षधर हैं। अपनी पूर्ण जनवादी क्रांतिकारिता में डॉ. जोशी की ग़ज़लें एक मशाल हैं, जिसके प्रकाश में आप स्पष्ट देखते हैं ग़ज़लकार की ये आस्था, कि जनविरोधी ताकतों को न केवल जनता चाहे तो नेस्तनाबूद ही कर दे, बल्कि लोकतंत्र में ‘लोक’ को उसका सही स्थान और वाजिब हक़ दिलाने की बात भी अभी बेमानी कतई नहीं है… बस शर्त यही कि जनता नेत्रहीन और कर्णहीन ही न बनी रहकर अपने मौलिक अधिकारों और व्यक्ति की अस्मिता के पुनर्प्रतिष्ठा लिए क्रांति और हंगामें से बचे-फिरते चलने की अपनी कायर मानसिकता को त्याग दे-
हालातों से ऐसे डरना, अच्छी बात नहीं है
सबकुछ सहना, कुछ न करना, अच्छी बात नहीं है
लड़ना सीखो, मरना सीखो, हक़ की बात करो हरदम
आँसू बनकर बहते रहना, अच्छी बात नहीं है
अगर नहीं है सर पर छत, तो बीच सड़क पर सो जाना
दबकर यूँ फुटपाथ पे मरना, अच्छी बात नहीं है
इस जंगल में नई इमारत, उगती है हर रोज़ मगर
नहीं कहीं कोई झील, न झरना, अच्छी बात नहीं है
नेताओं के लिए जनता महज वोट-बैंक है… आजादी- उपरान्त राजनीति का जो रूप सामने आया, वह बेहद भयावह था। जन-उद्धारक कुर्सी पर बैठकर ‘जनहित’ की आड़ में ‘स्वहित’ में व्यस्त हो गए, और भूख, गरीबी, बेकारी, अभाव को निरंतर झेलने को अभिशप्त आम-आदमी सत्तासीनों के आश्वासनों को सच में परिणत होने की आशा लिए ही काल-कवलित होता चला गया! भारत आज भी एक गरीब देश के रूप में ही चिन्हित हैं विश्व-पटल पर। और साथ में यह भी, कि विकास भी खूब हो रहा है; मगर क्या ही अजीब तरह का विकास: जो सम्पन्नों को और संपन्न ही बनाता चला जा रहा है, विपन्नों को और विपन्न ही। जैसे कि दुष्यंत कुमार ने किस तल्ख़ लहजे में अभिव्यक्त किया था इन पंक्तियों में कि “जब से आज़ादी मिली है/ मुल्क में रमजान है।” एक ऐसी ही तल्ख़ हकीकत को क्या ही मारक लहजे में बयां किया है डॉ. जोशी ने इन पंक्तियों के माध्यम से:-
हमें हर ओर दिख जाएँ, ये कचरा-बीनते बच्चे
भूलाये किस तरह जाएँ, ये कचरा बीनते बच्चे
तरक्की की कहानी तो सुनाई जा रही है पर
न इसमें क्यों जगह पाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
यही है क्या वो आज़ादी कि जिसके ख्वाब देखे थे
ये कूड़ा ढूंढती माएं, ये कचरा बीनते बच्चे
वो जिनके हाथों में लाखों-करोड़ों योजनाएं हैं
उन्हें भी तो नज़र आएं, ये कचरा बीनते बच्चे
डॉ. जोशी की ग़ज़लें मानवीय मूल्यों के क्षरण से उत्पन्न तमाम समकालीन समस्याओं से सीधा मुठभेड़ करती हैं… और बाज़ारवाद के द्रुत विकास से नैतिक मूल्यों के हाशिये पर चले गए होने से उत्पन्न कुत्सा, सामाजिक बोध के मरणासन्न अवस्था में पहुँच गए होने की गलीज़ सामाजिकता से भी। पूंजी-पोषित सभ्यता की जो नींव आज़ादी के समय पड़ी, उसका परिणाम व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक अलगाववाद के रूप में हुआ। व्यक्ति इतना स्वकेन्द्रित हो गया है की मन की खिड़कियाँ भी बाहर के शोर का कारण जानने के लिए न तो उद्विग्न ही है, न ही ऐसा करने की सलाह ही देने को उद्धत:-
जो खबर अच्छी बहुत है, आसमानों के लिए
वो खबर अच्छी नहीं हैं आशियानों के लिए
भूख से चिल्लाये वो तो, खिड़कियाँ तू बंद कर
शोर ये अच्छा नहीं है, तेरे कानों के लिए
हक़ की बातें करने वालों के लिए पाबंदियां
और सुविधाएं लिखीं हैं बेजुबानों के लिए
इस नए युग की कहानी में नहीं होगी फसल
खेत सारे बिक गए हैं, अब मकानों के लिए
स्वातंत्र्योत्तर-काल की जनता की ऐसी ही विडम्बनात्मक स्थिति का चित्रण करती अनेक ग़ज़लें हैं इस संग्रह में… जिनमें सब में एक समान मूल स्वर यह ज़रूर नज़र आता है कि डॉ. जोशी हमेशा ही नैराश्य को विकल्प समझे जाने के विरोध में ही होते हैं। विकट से विकट स्थिति भी उनके लिए संघर्ष की ही पृष्ठभूमि है। एक तरफ वह आमजन है जो अन्न की आस में कई फ़ाक़े बिताकर मर जाता है, और दूसरी तरफ वे राजनेता हैं जो संसद में इस मुद्दे को उछालकर एक-दूसरे पर छींटाकशी करते हैं… भूख जैसे संवेदनशील मुद्दे के प्रति ऐसा संवेदनहीन रवैय्या… मानो इनके लिए भूख, ग़रीबी कोई सामाजिक अभिशाप नहीं, वरन सिर्फ एक मुद्दा है… और देखिये किस मारक-तल्खी के अंदाज़ में इस सत्य को स्वर दिया है ग़ज़लकार ने:-
नगर की जनता अब तक भूखी-प्यासी है
खबर तुम्हारी बहुत पुरानी-बासी है
तुमको है क्या याद तुम्हारे राजमहल तक
सड़क हमारे गाँव से होकर आती है
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हिन्दी की ग़ज़लनिगारी पर बहुतेरी अत्यंत उत्साहवर्धक प्रतिस्थापनाएँ दी गईं हैं इधर के वर्षों में- और यह सब हिंदी साहित्य की सरज़मीं पर ग़ज़ल-नामक इस सिम्फ (विधा) की प्रखर उत्पादकता के मद्देनज़र। स्पष्टतया, भारतीय काव्य की सभी विधाओं में आज ग़ज़ल पर्याप्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी है- तो ऐसा अन्य कारणों के अलावा एक तो इस कारण से भी कि ग़ज़ल एक ऐसी रसपूर्ण और कोमल काव्य-शैली है, जिसका सौंदर्य सभी प्रकार के पाठकों और श्रोताओं को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। विगत चार दशकों में हिंदी-काव्य में ग़ज़ल ने अपनी ख़ासी पहचान बनाई है। अभी तक यह धारणा बनी हुई थी कि ग़ज़ल का सृजन केवल उर्दू में ही संभव है, लेकिन हिंदी-ग़ज़लकारों ने हिंदी में बेहतरीन ग़ज़लें लिखकर इस धारणा का सद्य-खंडन कर दिया है।
आज हिंदी-ग़ज़ल अपनी विकास-यात्रा में परिपक्वता प्राप्त कर चुकी है; और अब यह समीक्षकों और लेखकों के लिए तर्क-वितर्क, आलोचना और प्रत्यालोचना का विषय बनी हुई है। यहाँ तक कि प्रारम्भ में जो हिन्दी की ग़ज़लें हुआ करती थीं- उसमें भी उर्दू ग़ज़लों का व्यापक प्रभाव देखा जाता था। यही कारण था कि जब पहली बार शमशेर ने पारंपरिक रूमानी संस्कार से ऊपर उठकर ग़ज़ल रचना की, तो डॉ. राम विलास शर्मा ने उसे यह कहकर खारिज कर दिया था कि “ग़ज़ल तो दरबारों से निकली हुई विधा है; और इसीलिए यह तो प्रगतिशील मूल्यों को व्यक्त करने में ही अक्षम है!” ज़ाहिर है, आज स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है; क्योंकि हिन्दी वालों ने ग़ज़ल को सिर्फ स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि उसका नया सौन्दर्य शास्त्र भी गढ़ डाला है। परिणामत: आज ग़ज़ल उर्दू की ही नहीं, हिन्दी की भी एक सर्वमान्य और सर्व-चर्चित विधा है।
डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि आज की हिन्दी-ग़ज़ल महज़ उर्दू-ग़ज़लगोई की एक पिछलग्गू चीज़ के रूप में अस्तित्व में नहीं है, वरन इसके रचनाकारों ने हिंदी-तग़ज़्ज़ुल के लिए बिल्कुल ही एक नए तरह के मिज़ाज, अलग शैली, अलग संस्कार ही गढ़ डाले हैं। निम्नलिखित दो कथनों के जरिये इस बात को और स्पष्ट करते हैं: ज्ञान प्रकाश विवेक का कहना है कि “हिन्दी कवियों द्वारा लिखी जा रही ग़ज़ल में शराब का ज़िक्र नहीं होता, जिक्र होता है गंगाजल में धुले तुलसी के पत्तों का, पीपल की छाँव का, नीम के दर्द का, आम-आदमी की तकलीफों का। हिन्दी भाषा में लिखा जा रहा हर शेर ज़िंदगी का अक्स होता है। बहुत नज़दीक से महसूस किये गए दर्द की अभिव्यक्ति होता है!” लेकिन सबसे उत्साहवर्धक प्रतिस्थापना तो दी है फैज़ अहमद फैज़ ने… कि “ग़ज़ल को अब हिन्दी वाले ही ज़िन्दा रखेंगे, उर्दू वालों ने तो इसका गला घोंट दिया है।”
अब साहित्य की दुनिया के इन दो श्रद्धेय नामों द्वारा दिए गए ऊपर के उद्धरणों के बाद यहाँ मेरे जोड़ने के लिए तो कुछ रह नहीं जाता इसमें। सो, मैं बस यही कहते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा, कि फैज़ यदि आज जीवित होते, और उन्होंने पढ़ी होती डॉ. राकेश जोशी की लगभग सत्तर ग़ज़लों के इस संग्रह ‘पत्थरों के शहर में’ को, तो निःसंदेह उन्हें इसमें अपने ही कहे की पूर्ण-रुपेण पुष्टि नज़र आती… और वे फिर से कहते, कि “हाँ… लेकिन हिन्दी वाले न सिर्फ ज़िन्दा रखेंगे तग़ज़्ज़ुल को, बल्कि इसी चाल से चलते-चलते, और डॉ. जोशी जैसे विलक्षण-प्रतिभा-सम्पन्न और भाषाई तौर पर बेहद नफ़ीस ग़ज़लकारों की फ़नकारी के दम पर, एक दिन यह उस ऊंचाई को भी प्राप्त कर ही लेगी जिस ऊंचाई को ग़ालिब और मीर के हाथ में कभी उर्दू ग़ज़लियत प्राप्त की थी।”
– राकेश कुमार