ज़रा सोचिये
हम कहाँ जा रहे हैं?
मानव ने बेहद उन्नति की है। आदिमानव जिसे खाने-पहनने का भी ठीक से ज्ञान नहीं था, आज तो चाँद पर जीने की संभावनाएं तलाशी जा रही है। बौद्धिक उन्नति ने भौतिक उन्नति के द्वार खोले हैं। मनुष्य की दृष्टि व्यापक हुई है। सुविधाएँ बढ़ी हैं। मीलों की यात्राएं कुछ ही समय में तय हो जाती हैं। विश्व के किसी भी कोने में घटित घटना की जानकारी हाथों-हाथ मिल जाती है। दुनिया के किसी भी कोने में बैठे रिश्तेदार से बात करने के लिए ख़त का इंतज़ार नहीं करना पड़ता है। गर्मी, सर्दी से निजात पाने के अनेक उपकरण मौजूद हैं। इन सबके बीच क्या हम खुश हैं?
ज़रा-सी तकलीफ़ हमें मायूस कर देती है। अहंकार को ठेस पहुँचते ही हमें धक्का लगता है। कोई ‘तू’ कहकर बात करे तो भीतर से हिल जाते हैं। ज़रा-सी परिस्थिति विपरीत क्या हुई कि उग्र हो गये। काम बहुत बढ़ चुका है। हर पल भागना जारी रहता है। यह नहीं सोचते कि हम जा कहाँ रहे हैं? हम क्यों जी रहे हैं?
द्वेष- दुर्भावना के बादल मानव मन पर कब्जा कर चुके हैं। अकूत धन-दौलत हमें मानसिक शांति नहीं दे पाती है। ज़रा-सी ख़ुशी में उछल पड़ते हैं, ज़रा से ग़म में रो देते हैं। स्थायी ख़ुशी हासिल करने में अक्सर असफल रहते हैं।
स्वयं तक सिमट चुके हैं हम। हमारी व्यापक दृष्टि सिर्फ भौतिक सुविधाएँ जुटाने तक ही सीमित है। क्या यही जीवन है? ज़रा रुकें और सोचें कि हम कहाँ जा रहे हैं। हमारी खुशियाँ किस कोने में गुम है। मनुष्य की कीमत आंकी जा रही है। हमनें मनुष्य का मूल्यांकन शुरू कर दिया है। प्रशंसा करने पर सुकून मिलता है और निंदा करने पर तकलीफ़ होती है। यही हमारी ख़ुशी का पैमाना बन जाता है।
हम दूसरों में अपनी ख़ुशी तलाशते हैं। यही कारण है कि समता का अभाव हो गया है। सम रह पाना मुश्किल होता जा रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि मनुष्य चहुँओर से बंधा हुआ है। दूसरों की सोच से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा है। मुक्त होने की चाहत है लेकिन युक्ति नहीं है। मुक्ति की युक्ति भौतिक सुविधाओं में खूब खोज ली। लेकिन युक्ति मिली नहीं, क्योंकि जितनी सुविधाएँ जुटाते हैं प्यास उतनी ही बढ़ती जाती है।
दर्पण की भांति जीवन चाहिए। दर्पण स्वागत सबका करता है, संग्रह किसी का नहीं करता। सबसे अहम बात है कि हम प्रकृति से जुड़ें। प्रकृति की मनोरम छटा को निहारते जायें। प्रभात में उगते हुए सूरज को निहारें। रात में जगमगाते सितारों और चन्द्रमा को देखते जाएँ। कितना धवल, मनोहारी होता है चाँद। आपको लगेगा कि वह आपके लिए ही आसमान में आया है। उसकी शीतल चांदनी में आपके लिए प्यार बरसता है। किसी वृक्ष की छाँव को महसूस करें। निश्चित तौर पर संतोष की अनुभूति होगी। बहते पानी को निहारें, मन भी निर्मल हो जायेगा। साँझ के वक्त रेगिस्तान के खूबसूरत टीलों पर बैठकर स्वच्छ रेत से खेलने का सुकून तो कुछ अलग ही है। वहीं से अस्तांचल को जाते सूर्य को निहारना, सूर्य की किरणें रेत को सोने-सा बना देती है। पहाड़, झरने, खेत-खलिहान प्रकृति का हर रूप अद्भुत शांति देगा।
विडम्बना यह है कि हम नहीं जाते प्रकृति के बीच। हम महसूस नहीं करना चाहते प्रकृति से मिलने वाली ख़ुशी को। इसीलिए तो सवेरे सूरज की किरणों का स्वागत करने के लिए घरों के द्वार नहीं खोलते। प्रकृति से जुड़ने की बात या तो हमें मूर्खतापूर्ण लगती है या वक्त नहीं होने का बहाना।
समय नहीं होने के साधन भी मनुष्य ने अपनी अक्ल से जुटा लिए हैं। जीवन मोबाइलमय हो चुका है। हम काल्पनिक दुनिया में जीने के आदी हो गये हैं। सोशल साइट्स पर स्वयं को प्रदर्शित करने की होड़-सी लगी है। यहाँ भी मौलिकता तक तो बात ठीक है लेकिन कॉपी-पेस्ट साझा करना और पढ़ते रहना। ओह! कितना अनावश्यक है सब। युवाओं का दिनभर मोबाइल में गुम रहना आम हो गया है। न परिवार के सदस्यों से वार्तालाप, न बड़े-बुजुर्गों से मन की बात।
मोबाइल/इन्टरनेट के बहुतेरे नफे हैं लेकिन इसके अनावश्यक और अति उपयोग ने व्यक्ति को प्रकृति से तो तोड़ा ही है साथ ही लक्ष्य हीन भी बना दिया है। हमारे मौलिक चिंतन को बाधित कर दिया है। हमें बांध दिया है। पक्षियों के मधुर कलरव से दूर कर दिया है। दादी-नानी की कहानियों से वंचित कर दिया है। हम इस काल्पनिक दुनिया के सफर में बहुत दूर निकल चुके हैं। लौटना असम्भव नहीं है लेकिन लौटने में वक्त लगेगा।
– चन्द्रभान विश्नोई