ग़ज़ल पर बात
हमारे आसपास की चीज़ों को समेटे एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल
– के. पी. अनमोल
कुछ रचनाएँ ऐसी होती हैं कि वे पढ़ी जाने के बाद अन्तस को झकझोर कर रख देती हैं। अक्सर ग़ज़लें खोजते-पढ़ते मेरे सामने ऐसी कई ग़ज़लें आयीं, जिन्होंने बरबस ही मुझे उन पर चर्चा करने के लिए बाध्य कर दिया। यह शायद उनका सामर्थ्य होता हो और हक़ भी कि वे हमारे ज़रिए और कई लोगों तक पहुँचे तथा अपने रचनाकार को उस महत्वपूर्ण रचना के लिए प्रशंसा मिले। इस बार ऐसी ही एक ग़ज़ल सिद्धान्त दीक्षित नाम के एक युवा ग़ज़लकार की सामने आयी। ग़ज़ल इतनी एकरस है कि कोई भी पाठक एक बार में उसे कई-कई बार पढ़ जायेगा।
जैसे किसी मन्दिर में लगाई हुई तस्वीर
है पर्स में माँ-बाप की रक्खी हुई तस्वीर
हमारी संस्कृति में माता-पिता को ईश्वर और गुरु के साथ सबसे ज़्यादा स्तुत्य माना गया है, इस बात का समर्थन करता हुआ बहुत प्यारा मत्ला हुआ है इस ग़ज़ल का। ‘मन्दिर में लगी आराध्य की तस्वीर’ और ‘पर्स में लगी माँ-बाप की तस्वीर’ में परस्पर तुलना कर इस बात को साबित किया गया है कि माँ-बाप का मर्तबा ईश्वर से ज़रा भी कम नहीं। यहाँ मत्ले में एक चित्रांकन (मंज़रकशी) भी है, जो प्रस्तुत चित्र को सहज ही आँखों के सामने ला खड़ा करता है।
रोने की कोई वज्ह मिली ही नहीं मुझको
आँखों में है जबसे तेरी हँसती हुई तस्वीर
रोने (दुख) और हँसने (ख़ुशी) को आमने-सामने रख; यहाँ यह भाव ज़ाहिर किया गया है कि जबसे तुझे (लौकिक- पार्टनर/ अलौकिक- आराध्य) इन आँखों में बसाया है, मेरे तमाम दुःख स्वतः ख़त्म हो गए हैं। यहाँ शेर में विरोधाभास अलंकार देखते ही बनता है।
माँ-बाप की परछाई अगर होते हैं बेटे
तो बेटियां ईश्वर की अता की हुई तस्वीर
बेटों को, जिन्हें यह मूढ़ दुनिया वाले बेटियों से श्रेष्ठ समझते आए हैं, उन्हें इस शेर में एक नसीहत दी गयी है कि बेटों को, तुम अगर इस लोक के ईश्वर (माँ-बाप) की झलक मानते हो तो यह भी सुन लो कि बेटियाँ उस लोक के ईश्वर का अता किया हुआ तोहफ़ा है। यानी यहाँ बेटियों की हिमायत कर यह समझाने का प्रयास किया गया है कि वे किसी नज़रिये से बेटों से कमतर नहीं।
इक धार्मिक उन्माद से कल रात वतन की
सपने में दिखी ख़ून में डूबी हुई तस्वीर
देश में अराजकता के माहौल का ख़ौफ़ ऐसा है कि अब तो सपनों में भी कई मर्तबा कुछ अनिष्ट देख हम सिहर उठते हैं। धर्म जो शांति और सुकून हासिल करने का एक ज़रिया था, वही अब उन्माद का आधार हो चुका है, इससे भयावह क्या हो सकता है भला!
तुमने जो बहुत पहले मुझे गिफ्ट किया था
अब भी है मेरी वॉल पे वो दी हुई तस्वीर
तोहफ़ों की क़ीमत वे ही समझते हैं, जिन्हें जज़्बात की एह्मियत पता हो। एक याद को बयां करते हुए शेर में नाज़ुक-सा एह्सास बाँधा गया है। बहुत ही संजीदगी से यहाँ ग़ज़लकार शाश्वत प्रेम को ले आया है और अपने मन की सुकोमल भावना को ख़ूबसूरती से उजागर कर बैठा है।
दीवार की मानिंद मुझे चाट रही है
इस दिल पे मेरे तेरी लगाई ही तस्वीर
‘दीवार की मानिन्द… चाट रही है’ यह ख़ूबसूरती है इस शेर की। दिल पे लगी मेहबूब की तस्वीर बराबर उसकी याद दिलाये जा रही है। जिस तरह दीवार लगातार नज़र के सामने होने पर आँखों पर तारी रहती है, ठीक उसी तरह यहाँ दिल पे लगी मेहबूब की तस्वीर भी लगातार उसके ख़याल, ज़ेह्न पर तारी रख रही है। एक रहस्यवाद लिए हुए है यह शेर।
ढल जायेगा जिस शक्ल में ढालोगे उसे तुम
‘सिद्धांत’ तो है पानी पे उभरी हुई तस्वीर
मक़्ते में ग़ज़लकार पानी की सबसे बड़ी ख़ूबी की मिसाल देकर; ख़ुद के मिज़ाज को उसके साथ जोड़ते हुए अपने व्यक्तित्व के लचीलेपन को ज़ाहिर करता है। पानी किसी भी पात्र में बहुत सहजता से आकार ले लेता है और अपना महत्व बनाए रखता है। व्यक्ति को भी यही चाहिए कि वह हर एक परिस्थिति में ख़ुद को फिट करके रखे और अपना वजूद बरक़रार रखे। आँधियों में जो पेड़ तनकर खड़े रहते हैं, वे टूट जाते हैं। सार यह है कि इंसान को वक़्त की नज़ाकत देखकर ख़ुद को उसके अनुरूप ढ़ालना चाहिए लेकिन हाँ, अपने वजूद को बा-वजूद रखते हुए।
मुश्किल लेकिन बहुत प्यारी बह्र 221 1221 1221 122 पर इतने ख़ूबसूरत अशआर पढ़, ग़ज़लकार को शब्बाशी देने का मन करता है। यहाँ ग़ज़ल में बिलकुल हमारे आसपास की चीज़ों को समेटकर बहुत ख़ूबसूरती से उन्हें अशआर में ढाल दिया गया है, जिनमें सरोकार भी हैं, फ़लसफ़े भी हैं, फ़िक्र भी है, सौन्दर्य भी है और नसीहत भी है। ग़ज़ल के हरेक शेर में हमारा दौर, हमारी परिस्थितियाँ मौजूद हैं। इसीलिए यह ग़ज़ल मेरे ख़याल में एक मुकम्मल ग़ज़ल है। इसके रचनाकार भाई सिद्धान्त दीक्षित को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
– के. पी. अनमोल