ग़ज़ल पर बात
(आज हिंदुस्तानी परिवेश और ज़ुबान में ख़ूब ख़ूब ग़ज़लें कही (लिखी) जा रही हैं। अब तो हम यह भी कह सकते हैं कि इस विधा में हमारे पास ढेरों मुकम्मल ग़ज़लकार भी हैं। लेकिन फिर भी इस विधा में आलोचनात्मक कार्य और बड़े आलोचक का अभाव अखरता है। इस बात को ख़्याल में रखते हुए ‘हस्ताक्षर’ के माध्यम से एक हिमाकत करने जा रहा हूँ।
यह बहुत अच्छे से जानते हुए कि अभी ग़ज़ल या ग़ज़ल के सृजन पर बोलने की हैसियत कतई नहीं रखता, फिर भी यह सोचते हुए कि कोशिश तो करनी ही होगी।
कॉलम ‘ग़ज़ल पर बात’ में किसी एक समकालीन ग़ज़लकार की ग़ज़ल पर बात करने की कोशिश करूँगा। आप सबसे ख़ासकर ग़ज़ल से जुड़े मनीषियों से सहयोग की अपेक्षा रखता हूँ।)
हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब को आगे बढ़ाती एक ज़रूरी ग़ज़ल: के. पी. अनमोल
आज ‘ग़ज़ल पर बात’ में महाराष्ट्र के नौजवान शायर भाई मोहसिन आफ़ताब केलापुरी की ग़ज़ल पर बात हाज़िर है।
2222 2222 2222 222 यानि फ़ेलुन फ़ेलुन/ फ़ेलुन फ़ेलुन/ फ़ेलुन फ़ेलुन/ फ़ेलुन फ़ा बहर पर कही गयी एक बहुत ही शानदार और सार्थक ग़ज़ल हुई है। मतला-ता-मक़्ता उम्दा ख़यालात से सजी इस ग़ज़ल के हर इक शेर पर मन वाह-वाह कर उठता है।
धरती अम्बर एक बराबर सोना पीतल इक जैसे
मेरी आँख से देखो ज़मज़म और गंगाजल इक जैसे
बहुत ही उम्दा मतला हुआ है। ‘गंगाजल’ और ‘ज़मज़म’ के प्रतीकों के माध्यम से शायर यहाँ पूरे दो समुदाय और उनकी मान्यताओं को ले आए हैं। ‘ज़मज़म’ इस्लाम धर्म के अनुयायियों के अनुसार ‘गंगाजल’ की तरह ही पवित्र पानी होता है। शायर यहाँ इन दोनों प्रतीकों के माध्यम से दोनों धर्मों की मान्यताओं की बात कर रहे हैं कि उनकी नज़र में दोनों ही समुदायों की मान्यताएँ बराबर आदर योग्य हैं।
कितना उम्दा और सार्थक ख़्याल पिरोया है शेर में…..वाह्ह्ह
जैसी करनी वैसी भरनी अंत भला तो सब ही भला
सब्र हो चाहे मेहनत हो वो दोनों के फल इक जैसे
एक फ़िलोस्फी लिए बहुत ही सही और सार्थक शेर हुआ है यह। कितनी अच्छी संदेशप्रद बात कही गयी है।
तू है मीरा जैसी तो मैं दोस्त सुदामा जैसा हूँ
कृष्ण के दोनों दीवाने हैं दोनों पागल इक जैसे
अपनी मिट्टी का जुड़ाव इसे कहते हैं। कृष्ण, सुदामा और मीरा के ज़रिये शायर ने दोस्ती और प्यार में समर्पण और उसके महत्त्व की बात कितनी बारीकी से कह दी। भई वाह्ह्ह वाह्ह्ह और वाह्ह्ह
जिस्म तुम्हारा खुशबू खुशबू जिससे मिलो, हो वो ख़ुशबू
आठ पहर हो महके महके तुम और संदल इक जैसे
बहुत ही सलीके से कहा गया नाज़ुक एहसास का शेर। बहुत बढ़िया।
इश्क़ इबादत इश्क़ है पूजा इश्क़ दुआ है इश्क़ सज़ा
इश्क़ तो है इक आग का दरया इश्क़ और दलदल इक जैसे
इश्क़ को कई रूपों में हमारे सामने रखता एक पारंपरिक अंदाज़ का शेर है यह।
यहाँ देखिए- ‘इश्क़ और’ और को अर में लिया गया है। अब हो गया ‘इश्क़ अर’, अब यहाँ वस्ल हुआ-
‘इश्क़’ के ‘क़’ और ‘अर’ के ‘अ’ में वस्ल (मेल) होने पर ये हो गया- इश्कर, अब इसका मात्रा भार (वज़्न) देखिए-
इश्क़ अर= इश्2 कर2 = 22
ज़ुल्फ़ घटाएँ, आँख पयाले, होंट गुलाबों जैसे हैं
जिस्म धनक के जैसा उसका आँचल बादल इक जैसे
पूरे शेर में उपमाएँ ही उपमाएँ हैं या हूँ कहूँ कि उपमाओं से बना शेर। ये कमाल होता है एक मँजे हुए शायर का।
सिख ईसाई मुस्लिम हिन्दू भारत माँ की औलादें
लोहनी क्रिसमस ईद दिवाली ख़ुशी के सब पल इक जैसे
हमारे देश की ‘अनेकता में एकता’ वाली ख़ासियत को लफ़्ज़ों का जामा देता हूँ बहुत अच्छा शेर हुआ है यह।
मोहसिन की तक़दीर में लिख्खा है जब दर-दर फिरना तो
गाँव शहर भी इक जैसे हैं सेहरा जंगल इक जैसे
बहुत सही….अच्छा मक़्ता है
बहुत ही उम्दा ख़यालात से सजी यह ग़ज़ल मेरे हिसाब से मोहसिन भाई की मार्का ग़ज़ल है। आज हमारे दौर को इस तरह से लेखन की ज़रूरत है। हंगामों और चीख-चिल्लाहट से परे यह ग़ज़ल कितनी आसानी से हमारे मन-मस्तिष्क पर अपना असर छोड़ती है। बहुत ही उम्दा सृजन के लिए भाई मोहसिन आफ़ताब साहब को दिली मुबारकबाद।
– के. पी. अनमोल