जो दिल कहे
स्वाध्यायी बनें
स्व और अध्याय के युग्म से बना है स्वाध्याय। प्राकृत भाषा में इसे ‘सज्झाय’ कहा जाता है। अर्थात अपना अध्ययन करना, अपने बारे में जानना ही स्वाध्याय है। जब तक हम स्वयं स्वाध्याय नहीं करेंगे, सत्साहित्य आदि को नहीं पढेंगे, तब तक हमारा ज्ञान विकसित नहीं होगा और जब तक हमारा स्वयं का ज्ञान विकसित नहीं होता है, तब हम दूसरों को ज्ञान क्या और कैसे दे पाएंगे?
हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है – ज्ञान। जिस आदमी में ज्ञान का अभाव होता है, वह एक प्रकार से अंधा होता है। अंधे आदमी के लिए जैसे बहुत सारी चीजें अज्ञात रह जाती है, वैसे ही आदमी के ज्ञान पर जब आवरण आया हुआ होता है, तब वह जान नहीं पाता। जैन कर्मवाद के अनुसार आठ कर्मों में पहला कर्म है -ज्ञानावरणीय कर्म। यह हमारे ज्ञान को आवृत्त करता है।
स्वाध्याय है, अपने किसी भी कार्य के पीछे के उद्देश्य को देखना। अधिकतर हम जो स्वयं चाहते हैं, उन सबके पीछे नहीं होते हैं, बल्कि हम दूसरे लोगों के अनुसार चीज़ों के पीछे होते हैं। दूसरे लोग इसके बारे में क्या कहेंगे, सोचेंगे, करेंगे, उसके अनुसार हम अपनी प्राथमिकताएं तय करते हैं। अधिकतर हमें स्वयं ही नहीं पता होता है कि हमें क्या चाहिए, क्योंकि हम अपने भीतर कभी देखते ही नहीं हैं। हम आते जाते विचारों, इच्छाओं और भावनाओं से बहकते जाते हैं। हमारी इच्छाएं भी हमारी स्वयं की नहीं होती हैं।
मनुष्य का मन कोरे कागज की तरह होता है। इसलिए वह अक्सर अपने समीपवर्ती प्रभाव को ग्रहण करता है और जैसा वातावरण उसके सामने छाया रहता है। उसी ढाँचे ढलने लगता है। उसकी यही विशेषता परिस्थितियों की चपेट में आकर कभी पतन का कारण बनती है कभी उत्थान का।
व्यक्ति की उत्कृष्टता के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उस विचारणा की है जो आदर्शवादिता से ओत-प्रोत होने के साथ-साथ हमारी रूचि और श्रद्धा के लाभ से जुड़ जाए। यह प्रयोजन दो प्रकार से पूरा हो सकता है। एक तो आदर्शवादी उच्च चरित्र महामानवों का दीर्घकालीन सान्निध्य से, दूसरा उनके विचारों के अवगाहन व स्वाध्याय से। पर वर्तमान परिस्थितियों को सुधारने के लिए वे महापुरुष इतनी तत्परता एवं व्यस्तता के साथ लगे हुए हैं कि लम्बा सतसंग दे सकना उनके लिए भी संभव नहीं। इसलिए जिन सौभाग्यशालियों को प्रामाणिक महापुरुषों का सान्निध्य जब कभी मिल जाए तब उतने में ही उन्हें संतोष कर लेना पड़ेगा।
दूसरा मार्ग ही इन दिनों सुलभ है। स्वाध्याय के माध्यम से मस्तिष्क के सम्मुख वह वातावरण देर तक आच्छादित रखा जा सकता है, जो हमें प्रखर और उत्कृष्ट जीवन जी सकने के लिए उपयुक्त प्रकाश दे सकें।
सत्साहित्य ने व्यक्तियों को ऊँचा उठने ओर आत्मबल संपन्न हो सकने का अवसर दिया है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान सुनाकर एक अर्जुन को ही लाभ नहीं पहुँचाया बल्कि उस महाग्रन्थ ने न्यूनाधिक मात्रा में उस समय से लेकर अब-तक असंख्य मनुष्यों को प्रकाश दिया है और उस प्रकाश के माध्यम से लोगों ने जीवन लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता पाई है। प्रेरक साहित्य सदा व्यक्तित्व, चरित्र, मनोबल और अत्म निमार्ण में सहायता करता रहता है। उसकी प्रेरणा से प्रभावित अनेक व्यक्ति तुच्छता के बंधनों को तोड़कर महानता वरण करने में समर्थ हुए है। अस्तु उपासना, पूजा, अर्चना, तप, दान आदि समकक्ष ही स्वाध्याय को भी पुण्य प्रयोजनों में अति आदरपूर्वक सम्मिलत किया गया है। विद्वानों ने भी इस बात पर अधिक बल दिया है कि मनुष्य को स्वाध्याय बिना प्रमाद किए नियमित रूप से करना चाहिए।
लोक कवि तुलसी ने स्वाध्याय के महत्व को समझते हुए, एक बार साधुओं की सभा में फरमाया था -“तुम् लोगों को तत्वज्ञान का विकास करना चाहिए। हम लोग हमेशा तुम्हारे सामने नहीं रहेंगे। आखिर स्वयं को ज्ञान का विकास करना चाहिए। अपना ज्ञान ही ज्यादा काम आता है, इसलिए दूसरों के भरोसे ज्यादा नहीं रहना चाहिए।
लोकमान्य तिलक से एक मित्र ने पूछा आपको नरक जाना पड़े तो आप क्या करेगें? उन्होंने कहा अपने साथ पुस्तकें लेता जाऊँगा, ताकि स्वाध्याय द्वारा नरक को भी स्वर्ग में बदलने वाला विचार एकत्रित कर सकूँ।
इन दिनों इस संदर्भ में एक चिंता की बात यह बन गई है कि रूढ़िवादिता ने इस क्षेत्र में भी अपना अड्डा जमा लिया है। अप्रासंगिक और बेतुकी पौराणिक कहानियों की पुस्तकों को ही लोग धर्मग्रंथ मान बैठे है और उन्हें ही रोज-रोज दुहरा कर स्वाध्याय की लकीर पीटने लगे हैं।
इस निरर्थक विडंबना से भला क्या लाभ हो सकता है? स्वाध्याय के लिए वह चुना हुआ साहित्य ही उपयुक्त होगा जो व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने का व्यावहारिक मार्गदर्शन करे और समाज में प्रस्तुत उलझनों का सुलझाने का बुद्धिसंगत समाधान प्रस्तुत करें। हर युग में स्थिति के अनुरूप मार्गदर्शन करने के लिए विचारक, तत्वदर्शी, युगद्रष्टा और देवदूत अवतरित होते रहते हैं। समय की भिन्नता के कारण को ध्यान में रखते हुए ही बार-बार और नये-नये संदेश लेकर आनेवाले संदेशवाहकों की आवश्यकता पड़ती है। आज की परिस्थितियों के अनुरूप मार्गदर्शन इस युग के ऋषि ही कर सकते हैं एवं स्वाध्याय के लिए सत्साहित्य ही उपयोगी हो सकता है। स्वामी रामतीर्थ रास्ते में एक पुस्तक पढ़ते जा रहे थे। एक व्यक्ति ने पूछा – महाराज! यह कोई पाठशाला थोड़े ही है। कम-से-कम चलते समय तो पुस्तक रख दिया कीजिए। स्वामी जी बोले – बंधु। यह सारा संसार ही मेरी पाठशाला है, बताइए इसे कहाँ रखू कहाँ पढूँ?
अतः स्वाध्याय में बौद्धिक भूख और आध्यायत्मिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए हमें पेट को रोटी और तन को कपड़ा जूटाने से भी अधिक तत्परता के साथ प्रयत्नशील होना चाहिए। स्वाध्याय नित्यकर्मों में शामिल रखा जाए, क्योंकि चारों ओर की परिस्थितियों से जो निष्कर्ष निकलते हैं, उनसे हमें निष्कृष्ट मान्यताएँ एवं गतिविधियाँ अपनाने का ही प्रोत्साहन मिलता है। यदि इस दुष्प्रभाव की काट न की गई हो तो सामान्य मनोबल का व्यक्ति दुर्बुद्धि अपनाने एवं दुष्कर्म करने में ही लाभ देखने लगेगा।
इसलिए उचित यही होगा कि हम दिग्भ्रमित करने वाली विभिन्न पुस्तकें पढ़ने की अपेक्षा स्वध्याय के लिए सत्साहित्य चुने और उन्हें पढ़ने का काम नित्यकर्म की तरह अपनी दिनचर्या में शामिल कर लें।
– नीरज कृष्ण