स्वस्थ समाज की परिकल्पना का उपन्यास: कुबेर
– श्यामसुंदर पाण्डेय
‘कभी काम को छोटा समझ कर मत करना। कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता, न ही किसी काम को करने से कोई आदमी छोटा होता है, न ही उसकी इज्ज़त कम होती है बल्कि वह एक उदाहरण पेश करता है दुनिया के सामने अपनी मेहनत का, अपनी खुद्दारीका।’ (पृ.- 210)
मेहनत, जिसका कोई विकल्प आज भी नहीं बन पाया है। शायद मानव के आदिकाल से ही यदि कुछ शाश्वत है तो उसमें एक मेहनत भी है। आज विज्ञान जब दुनिया के कण-कण पर नज़र रखे हुए है, सबको पल-पल नियंत्रित कर रहा है तब भी मेहनत अपने उसी मूल रूप में लहलहा रही है। निश्चित ही आज विज्ञान ने दुनिया को हमारी मुट्ठी में कर दिया है, विश्वबाजार और विश्वग्राम जैसी परिकल्पनाओं ने यदि कहीं पूंजीवाद को बढावा दिया है तो पिछले कुछ दशकों से युवा पीढी को ऊँची और लम्बी उड़ान के लिए एक अनंत आकाश भी प्रदान किया है और जिनके पंखों में ताकत है, वे उड़ भी रहे हैं। इसी का परिणाम है कि भारत जैसे विकासशील देशों के तमाम लोगों नें भी विकसित देशों की धरती पर अपनी मेहनत और कर्तव्यनिष्ठा का लोहा मनवा लिया है। निश्चित ही इस ऊँची उड़ान में खतरे हैं- पंखों के थक जाने का, शायद कभी गिर जाने का भी डर बना ही रहता है फिर भी ‘मन के जीते जीत’ को आधार बनाकर आगे बढ़ने की संभावनाएँ भी कम नहीं हैं। ‘मैं बेचारा डूबन डरा, रहा किनारे बैठि’ के भाव को छोड़ते हुए ये वर्ग भावी खतरों से जूझने का मन बनाकर कर आज विश्व के कोने-कोने में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। इन्हीं भावों की आधारभूमि पर प्रवासी साहित्यकारों में वर्तमान की चर्चित कथाकार हंसादीप ने अपने उपन्यास ‘कुबेर’ की सर्जना की है। “कुबेर के बहाने डॉ. हंसादीप ने एक पूरी यात्रा का मानो संस्मरण लिख दिया है। यात्रा, जो प्रारंभ होती है बहुत निम्न स्तर से और उसके बाद धीरे-धीरे ऊपर उठती जाती है, उसके बाद फिर नीचे उतरने लगती है। जीवन के उतार-चढाव यदि नहीं हों तो कहानी और जीवन दोनों नीरस होकर रह जाते हैं। हंसादीप जी ने इन उतार-चढावों को बहुत सूक्ष्म दृष्टि से पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।” (भूमिका)
यह उपन्यास हमारे समाज के तमाम बन्धनों और व्यक्तिगत लोलुपताओं को छोड़ते हुए मानवजाति की सेवा का एक अनुकरणीय सन्देश देता है। एन. जी. ओ. के नाम पर सैकड़ों प्रकार की जो लूटपाट आज मची हुई है ऐसे कार्यों में संलिप्त लोगों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है यह उपन्यास। जिस प्रकार की सेवा भावना इस उपन्यास के पात्रों में दिखाई देती है, उनके माध्यम से यह उपन्यास ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना को बल प्रदान करता है। एक गाँव के गरीब परिवार से निकला धन्नू– धनञ्जय प्रसाद- डी.पी. और अंत में कुबेर की जो यात्रा इस उपन्यास का नायक पूरी करता है, वह बार-बार इसी बात की संकेतक है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन की सफलता के पीछे उसकी मेहनत और ईमानदारी की बहुत बड़ी भूमिका होती है।
उपन्यास के प्रारंभ में बेटे धन्नू द्वारा कॉपी-पेन्सिल के लिए पैसे माँगने पर उसकी माँ द्वारा कहा गया वाक्य ‘कुबेर का खजाना नहीं है मेरे पास जो हर वक्त पैसे माँगते रहते हो’ बाद में उसके लिए सूत्र वाक्य बन जाता है। कथा के प्रारंभ में लेखिका द्वारा धन्नू की तंगहाली की जिन परिस्थितयों का चित्रण किया गया है, उनमें ग्रामीण जीवन की गरीबी से भिड़ते एक परिवार का वास्तविक चित्र उभर कर हमारे सामने आता है, जो वर्तमान के ग्रामीण जीवन की वास्तविकता से हमारा परिचय कराता है। दूसरी तरफ, बच्चों की शिक्षा से सम्बन्धित एक बड़ी समस्या भी यहाँ उठाई गई है। सामान्य रूप से पारंपरिक पद्धति पर आधारित हमारी शिक्षा व्यवस्था में सभी बच्चों को एक ही डंडे से हांका जाता है। ऐसे में तीव्र बुद्धिवाले धन्नू को अपनी अध्यापिका से बार-बार अपमानित होना पड़ता है। ‘तुमने गृह कार्य किया? हाँ, सब याद कर लिया।’ लेकिन अध्यापिका के लिए ‘याद कर लिया’ और ‘मैं सब बता सकता हूँ’ जैसी बातों से कोई मतलब नहीं है, यहाँ तो काम करना मतलब कॉपी पर लिखना होता है, याद हो न हो, इससे कुछ लेना-देना नहीं। निश्चित ही यह एक ऐसी समस्या है जिस पर हम सामान्य लोग बिलकुल ध्यान नहीं देते हैं। धन्नू की उधेड़बुन और उसके विचारों की टकराहट के माध्यम से यहाँ बाल मनोविज्ञान का बड़ा ही मार्मिक चित्रण लेखिका ने किया है।
इसी क्रम में लेखिका द्वारा चुनावी माहौल में राजनेताओं द्वारा समाज के सामान्य लोगों को प्रदान की जाने वाली सुविधाओं की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया गया है। सामान्यत: हमारे राजनेता चुनाव के समय में बड़ी-बड़ी घोषणाएँ कर देते हैं। बहुत बार तो यही होता है कि वे अपने वादे को पूरे नहीं करते लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक नेताजी यदि कोई अच्छा कार्य भी प्रारंभ करते हैं और किसी कारण से यदि अगली बार सरकार बदल दी जाती है तो उस अच्छे कार्य पर भी विराम लग जाता है। धन्नू इसी मानसिकता का शिकार बनता है। उसकी कुशाग्रता देखकर एक नेता जी अपने खर्च पर उसे पढाई की बात कहते हैं, जिसके बल पर उसका नामांकन एक अंग्रेजी विद्यालय में तो कराया जाता है लेकिन अगले चुनाव में जब वह नेता जी हार जाते हैं तो उसकी पढाई संकट में आ जाती है। बार-बार अध्यापिका के अपमान और समस्या को समझे बिना पिता की प्रताड़ना से उस बालक का कोमल मन टूट जाता है। माता-पिता की आर्थिक परेशानियों को देखता हुआ वह बालक ‘कुबेर’ बनने का सपना लेकर निकल जाता है। यहाँ भी लेखिका ने बाल मनोविज्ञान का सुन्दर अंकन किया है। माता-पिता की परेशानियों को समझते हुए धन्नू कुछ-कुछ प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ के हामिद की याद दिला जाता है तो आगे चलकर अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के कारण जो आदर्श वह प्रस्तुत करता है, उसमें प्रेमचंद की ही ‘परीक्षा’ के जानकीनाथ की झलक मिलती है। घर से निकलने के बाद उसके सपनो को पंख मिल जाते हैं। गुप्ता जी के ढाबे पर अपनी मेहनत से सबका दिल मोह लेना, अपने साथियों के साथ धन्नू की मिलनसारिता आदि सभी बातें पाठक को बार-बार आकर्षित करती हैं।
लेखिका ने उपन्यास के नायक की जिस आदर्शवादिता को प्रारंभ से चित्रित करना शुरू किया है, वह अंत तक उसी रूप में बना रहता है। बार-बार उसकी ईमानदारी और मेहनत उसकी सफलता का कारण बनती हैं। जीवन ज्योति में जाने के बाद भी उसके वही सद्गुण काम करते हैं और वहाँ भी बहुत जल्दी वह सबका चहेता बनकर ‘दादा’ के उत्तराधिकारी के रूप में उभरने लगता है। यहाँ जीवन ज्योति जैसी समाजसेवी संस्थाओं की निःस्वार्थ भावना स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस उपन्यास में खलनायकी के लिए कोई अवकाश नहीं है। उपन्यास के लगभग सभी पात्र आदर्शवादिता की चादर में लिपटे हुए हैं। धन्नू के माता-पिता और नैन्सी की मृत्यु जैसी कुछ घटनाएँ मुख्य पात्र के प्रति सहानुभूति अवश्य प्रकट करती हैं अन्यथा पूरे उपन्यास पर उसका आदर्श चरित्र ही छाया रहता है। जीवन ज्योति के सदस्यों और जरूरतमंदों के बीच मानवी प्रेम तथा उनके सहज सम्बन्धों को चित्रित करते हए लेखिका द्वारा जिस परिवेश की निर्मिति की गई है, वह भी एक आदर्श उदाहरण ही है।
दादा का मरना, उनके अनुयायियों का दुःख, धन्नू का डी. पी. सर बन जाना, मैरी का विवाह, नैन्सी के चाचा का जीवन ज्योति से जुड़ जाना और धन्नू द्वारा लोगों की सेवा के लिए विदेशों से धन एकत्र करने आदि की घटनाएँ इतनी सहजता से आगे बढ़ती जाती हैं कि लम्बे समय तक एक ही भाव बना रह जाता है, हर जगह सेवा भाव ही प्रधान है। मानवसेवा का प्रण लिए हुए इस उपन्यास के पात्र धरती के कोने-कोने में जाते हैं, अनेक संकटों से भी जूझते हैं लेकिन उनके संकल्प कहीं डिगते नहीं हैं। न्यूयार्क से लेकर कनाडा की भूमि तक फैला डी. पी. का व्यवसाय, उसमें आने वाले चढ़ाव-उतार, रियल स्टेट, टैक्सी चलाना, शेयर मार्केट से लेकर वेगस के केसिनों तक के लोगों के व्यवहार, उनकी सोच एवं उनके संस्कारों आदि का चित्रण करते हुए वहाँ का सम्पूर्ण परिवेश रूपायित हो उठता है। यद्यपि कि लेखिका ने इस परिवेश चित्रण में अधिक समय दिया है लेकिन इन महानगरों की जीवन शैली, आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार लोगों के जीवन स्तर में होते बदलाव आदि से गुजरते हुए हम उस संस्कृति से अच्छी तरह परिचित हो जाते हैं। समय और अपनी आमदनी के साथ अपने जीवन की आवश्यकताओं को बिना किसी पश्चात्ताप के घटाते-बढाते रहने वाली जीवन शैली हमारे मन में एक उत्सुकता तो उत्पन्न करती ही है, परिस्थितियों से सहज समझौते का एक सन्देश भी देती है। इसके साथ ही कनाडा व अमेरिका की सीमा पर छाई शांति का चित्रण करते हुए हंशा जी भारत-पाकिस्तान सीमा के बाघा बार्डर की शाम को याद करना नहीं भूलती हैं, जहाँ एक-दूसरे के प्रति चुनौतीपूर्ण उद्घोष में लोग अपनी ऊर्जा निरर्थक खर्च करते हैं। कनाडा-अमेरिका सीमा के संबंध में वह लिखती हैं, ‘बगैर सैनिकों के दो देशों की सीमा रेखाएं बहुत कुछ कहती हैं, बहुत कुछ सिखाती हैं। मानवता के पाठ, शान्ति के पाठ, नागरिकों की आपसी समझदारी और विश्वास के पाठ और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण दोनों देशों की सरकारों के कामकाज की शैली के पाठ, जिससे करोड़ों के अनावश्यक खर्च बचत होती जो सीमा पर्, सुरक्षा बलों पर, शस्त्रों पर खर्च होता। काश! दुनिया का हर देश अपनी सीमा को ऐसी सीमा बना दे, निर्बाध और निःशक्य, आपसी प्यार और भरोसे के बीजों को बोते हुए।’
सच्चाई तो यह है कि मानवता, निःस्वार्थ समाजसेवा, शान्ति और स्वस्थ मानवीय विचारधारा के इन्हीं बीजों को चतुर्दिक विकीर्ण करने की एक स्वस्थ विचारधारा की परिणति है यह उपन्यास। उसी की तलाश करती हुई लेखिका अपनी कथावस्तु के साथ भारत-अमेरिका और कनाडा तक की यात्रा कर आती हैं। आज हम समाज सेवा के तमाम रूप या कहें कि ढकोसले आये दिन देखते हैं, तथाकथित समाजसेवियों द्वारा जरूरतमंदों की सेवा भावना और मीडिया के माध्यम से प्रचार की गतिविधियों से भी हम अच्छी तरह अवगत हैं लेकिन जीवनज्योति के माध्यम से जिस मानव निर्माण की कल्पना लेखिका द्वारा इस उपन्यास में की गयी है, वह सर्वथा सराहनीय है। निश्चित ही इन सामाजिक समस्याओं से यदि निजात पाना है तो सर्वप्रथम हमें हर तरह से स्वस्थ नागरिक तैयार करने होंगें और सबको मिलकर एक मानव श्रृंखला तैयार करनी होगी वरन– ‘एक अकेला थक जाएगा’ वाली बात ही रह जायेगी। बाढ़ में अपना सर्वस्व गँवा चुके ग्यारह बच्चों को कुबेर द्वारा जिस प्रकार शिक्षित बनाकर अपने रोजगार से जोड़ दिया जाता है और सभी जीवन ज्योति की मदद करना अपना कर्तव्य समझ कर मदद करते हैं। मुझे लगता है यह स्वस्थ समाज के निर्माण की लेखिका की एक स्वस्थ परिकल्पना है। धन्नू से डी. पी. और कुबेर तक की यात्रा करने वाला इस उपन्यास का मुख्य पात्र मैनहटन की गगनचुम्बी इमारतों और वेगस के केसिनों में पहुँचकर भी अपने गाँव को याद करता है। वह बदलना चाहता है भारत के उन गाँवों को, जहाँ असली भारत आज भी बसता है। कुबेर बनकर भी उसे अपने माता-पिता की और अपने बचपन के गरीबी की याद आती रहती है। विकास की ऊँचाइयों पर पहुँचकर भी अपनी जड़ों को न भूलना इस उपन्यास के मूल सिद्धांत समाजसेवा और नये समाज के निर्माण की विचारधारा का ही एक अंग है।
उपन्यास के उत्तरार्ध में सत्यवती देवी और उनके परिवार के माध्यम से लेखिका ने भारतीय राजनीति के छिछलेपन को अभिव्यक्त किया है। जिस प्रकार के आरोप-प्रत्यारोपों और जी-हुजूरी एवं चाटुकारिता के दौर से भारतीय राजनीति आज गुजर रही है, वह सत्यवती देवी के परिवार जैसे अनेकानेक परिवारों की दुखद कहानी का मूल कारण है। उपन्यास का अंत भी एक नई योजना के साथ होता है ‘एक नया कार्यक्रम बना, जिसके तहत हर वह बच्चा जिसके माता-पिता का साया उठ चुका था और हर वह बच्चा जो स्पेशल चाइल्ड था, उसे अपनी शरण में लेने का। उन बच्चों को हर तरह की सुविधाएँ दी जाती थीं आत्मनिर्भर बनाने के लिए। जिसे जो करना है करे पर अपनी लगन से करे। उसके विकास के लिए अतिरिक्त सुविधाएँ दी जातीं और उसे अपने पैरों पर खड़ा करने के अथक प्रयास किये जाते।’ कमजोरों को अपने पैरों पर खड़ा करने का यही प्रयास इस उपन्यास में लेखिका का मंतव्य है।
यद्यपि कुबेर और उसके आदर्श दादा अपने जीवन में जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं, वह मार्ग मानवीय न होकर एक दैवीय मार्ग कहा जा सकता है। व्यावहारिक जीवन में जिस पर चलने की कल्पना मात्र ही की जा सकती है। भौतिकता की इस चकाचौंध से डी.पी. और दादा दोनों का बिलकुल परे रहना लेखिका की आदर्शवादी दृष्टि का परिचय देते हैं। यद्यपि कोई भी कथा जिस परिवेश से गुजरती है, उससे उसके पात्रों का रंच मात्र भी प्रभावित न होना बार-बार पाठक के मन में एक संदेह उत्पन्न करता है। कई स्थानों पर ऐसा भी लगता है कि लेखिका द्वारा परिवेश चित्रण के लोभ में या तो कथा कुछ लम्बी हो गयी है या उस समाज के कुछ जीवंत पक्ष अछूते रह गये हैं। फिर भी उपन्यास के कथानक में कहीं बिखराव नहीं आया है। कथा एक सीधी राह में निरंतर ऊँचाइयों की तरफ बढ़ती है और पाठक लगातार कुछ और अच्छा, कुछ और अच्छे की तलाश में अंत तक उत्सुक बना रहता है। अंतत: यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कुबेर उपन्यास हंसादीप द्वारा किये गए एक ऐसे समाज की परिकल्पना की परिणति है, जिसमें हर तरह से स्वस्थ नागरिकों के निर्माण की परिकल्पना है। यह उस मानव श्रृंखला की परिकल्पना है, जो ‘साथी हाथ बढ़ाना’ की भावभूमि पर खडी होती है। कथावस्तु की तरह ही भाषा की सहजता भी उपन्यास की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता कही जा सकती है। देश-काल-वातावरण और पात्रों के अनुकूल समाज में प्रचलित अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग और कहीं-कहीं लोकप्रचलित मुहावरे इस उपन्यास को पठनीय बनाते हैं। हंसा जी कनाडा की धरती पर हिन्दी की सेवा करते हुए भी अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि करने में निरंतर सन्नद्ध हैं।
आशा है, भविष्य में इस प्रकार की उनकी अन्य नई रचनाएँ भी हमें पढने को मिलती रहेंगी। इस अच्छे उपन्यास के लिए उन्हें शुभकामनाएँ।
– श्यामसुंदर पाण्डेय