स्मृति- स्व. उमेश चौहान
बीते दिनों एक बहुत अच्छे कवि व सरल व्यक्तित्व के धनी उमेश चौहान जी हमारे बीच से अचानक चले गये। वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और कवि, अनुवादक व लेखक थे। बड़े पद पर रहते हुए भी उनमें ‘कवि-अधिकारी’ वाली छवि देखने को नहीं मिली। वे जिससे भी मिले, बड़ी सरलता के साथ मिले। उनकी रचनाओं में हमारे समय की तस्वीरें साफ़ साफ़ दिखाई देती हैं। तमाम सामाजिक मुद्दे उनकी लेखनी की गिरफ़्त में सहज ही उतरते दीखते हैं। समकालीन सन्दर्भों की बारीक से बारीक बात को सरलतम शब्दों में अभिव्यक्त कर देना इनके लेखन की ख़ूबी बन जाता है। उमेश जी ने कविता, कहानी जैसी विधाओं में मौलिक लेखन के साथ साथ आलोचना और अनुवाद भी किया। इनकी सभी तरह की रचनाओं ने नि:संदेह हिंदी साहित्य की शोभा में वृद्धि की है। इस तरह के मौन साधक का अचानक हमारे बीच से चले जाना साहित्य और साहित्यकारों के लिए किसी आघात से कम नहीं है। हम ईश्वर से कामना करते हैं कि वह स्व. उमेश चौहान जी की आत्मा को शांति दे!
इनकी कुछ कविताएँ उन्हें स्मरण करते हुए-
कविता- कूड़ेदान ही बताते हैं
शहर के मोहल्लों में
जगह-जगह रखे कूड़ेदान
सुबह-सुबह ही बयाँ कर देते हैं
इन मोहल्लों के घरों का
सारा घटित-अघटित,
गंधैले कूड़ेदानों से अच्छा
कोई आइना नहीं होता
लोगों की ज़िन्दगी की
असली सूरत देखने का।
मसलन
कूड़ेदान बता देते हैं
आज कितने घरों में
उतारे गए हैं
ताज़ा सब्ज़ियों के छिलके
कितने घरों में निचोड़ा गया है
ताज़ा फलों का रस
कितने घरों ने
पैक्ड-फूड के ही सहारे
बिताया है अपना दिन और
कितने घरों में खोले गए हैं
रेडीमेड कपड़ों के डिब्बे।
झोपड़-पट्टी के कूड़ेदानों से ही
हो जाता है अहसास
वहाँ कितने घरों में
दिन भर
कुछ भी काटा या खोला नहीं गया
यह अलग बात है कि
झोपड़-पट्टियाँ तो
स्वयं में प्रतिबिंबित करती हैं
शहर के सारे कूड़ेदानों को
क्योंकि इन्हीं घरों में ही तो
सिमट आता है
शहर के सारे कूड़ेदानों का
पुनः इस्तेमाल किए जाने योग्य समूचा कूड़ा।
कूड़ेदान ही बताते हैं
मोहल्ले वालों ने
कैसे बिताई हैं अपनी रातें
खोली हैं कितनी विदेशी शराब,
कितनी देशी दारू की बोतलें,
किन सरकारी अफ़सरों के मोहल्लों में
पी जाती है स्काच और इम्पोर्टेड वाइन,
किस मोहल्ले में
कितनी मात्रा में इस्तेमाल होते हैं कंडोम,
कभी-कभी
किसी मोहल्ले के कूड़ेदान से
निकल आती हैं
ए के 47 की गोलियाँ और बम भी,
कभी-कभी किस्मत का मारा
माँ की गोद से तिरस्कृत
कोई बिलखता हुआ नवजात शिशु भी।
अर्थशास्त्रियों!
तुम्हें किसी शहर के लोगों के
जीवन-स्तर के आँकड़े जुटाने के लिए
घर-घर टीमें भेजने की कोई जरूरत नहीं
बस शहर के कूड़ेदानों के सर्वे से ही
चल जाएगा तुम्हारा काम
क्योंकि कूड़ेदानों से हमेशा ही
झाँकता रहता है
किसी भी शहर का असली जीवन-स्तर।
कविता- बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया से गुजरती लड़की
बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया में
कैसे-कैसे मानसिक झंझावातों से
गुजरती है लड़की।
अपनों से एकाएक कटकर अलग होती,
कटने की उस तीखी पीड़ा को
दाम्पत्य-बंधन के अनुष्ठानों में संलग्न हो
शिव के गरल-पान से भी ज्यादा सहजता से
आत्मसात करने का प्रयत्न करती,
लड़की वैसे ही विदा होती है
मां-बाप की ड्योढ़ी से
जैसे आकाश का कोई उन्मुक्त पंछी
उड़कर समाने जा रहा हो किसी अपरिचित पिंजड़े में
अपने नवेले जीवन-साथी के पंख से पंख मिलाता
किसी नूतन स्वप्नालोक की तलाश में।
अपने बचपन की समस्त स्वाभाविकता
अपने किशोरपन की सारी चंचलता
अपने परिवेश में संचित समूची भावुकता
सबको एकाएक भुलाकर
अपने नए परिवार में एकाकार होती लड़की
हर दम बाहर से हंसती और अंदर से रोती है।
लड़की का पहनावा, बोल-चाल, हाव-भाव,
सब कुछ नित्य नए परिजनों के स्कैनर पर होता है
मां-बाप के घर से मिले संस्कार, कुसंस्कार,
कपड़े-लत्ते, गहने, सामान,
सब पर उनका अपना-अपना दृष्टिकोण होता है,
जिनका लड़की के कानों तक पहुंचाया जाना
अनिवार्यता होती है, और
उन पार्श्व-वक्तव्यों की अन्तर्ध्वनि तक को
पचा जाना लड़की का कर्तव्य।
अपने नए परिवार की परंपराओं के साथ ताल-मेल बिठाती,
अपने नए जीवन-सहचर के साथ
दाम्पत्य की अभिनव यात्रा पर निकल पड़ी लड़की
हमेशा सशंकित रहती है,
चिन्तित होती है,
फिर भी वह निरन्तर आशावान बनी रहती है
अपने भविष्य के प्रति।
बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया से गुजरती लड़की
अपने प्रियतम की आँखों में आँखें डालकर
परिवर्तन के अथाह सागर को पार कर जाती है,
किन्तु कभी-कभी दुर्भाग्यशाली भी होती है
ऐसी ही एक बेटी
जिसे उन आँखों में नहीं मिल पाती
अपने भविष्य के उजाले की कोई भी किरण।
कविता- बिटिया बड़ी हो रही है
बिटिया बड़ी हो रही है
माँ को दिन-रात यही चिंता खाए जा रही है कि
बिटिया शादी के लिए हाँ क्यों नहीं करती
और कितना पढ़ेगी अब
ज्यादा पढ़ लिख कर करेगी भी क्या
कमासुत पति मिलेगा तो
जिंदगी भर सुखी रहेगी
इतनी उमर में तो इसको जनम भी दे दिया था मैंने
माँ की खीझ का शिकार नित्य ही होती है बिटिया।
बिटिया जैसे-जैसे बड़ी हो रही है
दिन-रात आशंकाओं में जीती है माँ
जाने कब, कहाँ, कुछ ऊँच-नीच हो जाय
सड़कों पर आए दिन
लड़कियों को सरेआम उठा लिए जाने की घटनाओं से
बेहद चिंतित होती है माँ
स्वार्थी युवकों के प्रेम-जाल में फँस कर
घर से बेघर हुई तमाम लड़कियों के हाल सुन-सुन
नित्य बेहाल होती है माँ।
माँ चौबीसों घंटे नजर रखती है बिटिया पर
उसका पहनावा,
साज-श्रृंगार,
मोबाइल पर बतियाना,
बाथरूम में गुनगुनाना,
सब पर निरंतर टिका रहता है माँ का ध्यान
जैसे बगुला ताकता रहता है निर्निमेष मछली की चाल,
माँ जैसे झपट कर निगल जाना चाहती है
बिटिया की हर एक आपदा।
बिटिया बचना चाहती है
माँ की आँखों के स्कैनर से
वह चहचहाना चाहती है
बाहर आम के पेड़ पर बैठी चिड़िया की तरह
वह आसमान में उड़ कर छू लेना चाहती है
अपनी कल्पनाओं के क्षितिज को
इसीलिए शायद बिटिया नहीं करना चाहती
शादी के लिए हाँ
पर उसकी समझ में नहीं आता कि
चारों तरफ पसरी अनिश्चितताओं के बीच
वह कैसे निश्चिंत करे अपनी माँ को
और आश्वस्त करे उसे अपने भविष्य के प्रति।
कविता- जिन्हें तैरना नहीं आता
जिन्हें तैरना नहीं आता
उन्हीं के लिए ही डालनी पड़ती हैं
नदी में नावें और
बनाने पड़ते हैं उन पर पुल
ताकि पार कर सकें वे नदी को
बिना डूब जाने के भय के,
बूढ़े और अशक्त हों तो
अलग होती है बात
किन्तु सक्षम होते हुए भी
जो नहीं सीखते तैरना
या तैरना जानते हुए भी
तैयार नहीं होते जो
पानी में धँसने को,
उनके लिए हम प्रायः पीठ झुका कर
क्यों तैयार हो जाते हैं
नाव या पुल बनने के लिए?
जिन्हें डर नहीं लगता
उन्हें,
तैरना सहज आ जाता है
हिम्मत के साथ
पानी में कूद जाने पर
किन्तु कभी नहीं सीखा जा सकता तैरना
केवल किताबें पढ़-पढ़ कर
अथवा चिन्तन-मनन करके।
बाढ़ की विभीषिका में
जब पलट जाती हैं नावें
बह जाते हैं पुल
तब भी बचे रहते हैं
नदी की लहरों में
वे लोग जीवित
जिन्हें तैरना आता है,
ऐसे लोगों को
नदी की लहरों से
डर नहीं लगता
वे हमेशा तत्पर रहते हैं
स्वीकारने को
लहरों का हर एक निमंत्रण।
लहरों के निमंत्रण को ठुकराकर
तीर पर ठिठुककर तो
वही रुके रहते हैं
जिन्हें तैरना नहीं आता।
परिचय-
जन्मतिथि- 09 अप्रैल 1959
निधन- 04 मई 2016
जन्म स्थान- ग्राम दादूपुर, जिला- लखनऊ (उ.प्र.)
विधाएँ- कविता, कहानी, आलोचना, अनुवाद
प्रकाशित कृतियाँ-
1. गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनी (कविता संग्रह) सत्साहित्य प्रकाशन,
दिल्ली (2001)
2. दाना चुगते मुरगे (कविता संग्रह) सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली (2004)
3. अक्कितम की प्रतिनिधि कवितायें (मलयालम से अनूदित महाकवि अक्कितम की
कविताओं का संग्रह) भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली (2009)
4. जिन्हें डर नहीं लगता (कविता संग्रह) शिल्पायन, दिल्ली (2009)
– टीम हस्ताक्षर