ज़रा सोचिए
स्त्री तुम एकाकी कहाँ
– प्रगति गुप्ता
समय का चक्र बहुत अकल्पनीय है। कब किस तरह यह करवट लेगा; इसकी भविष्यवाणी कर पाना या सोच पाना सच में मुमकिन नहीं। जीवन के किसी भी मोड़ पर कोई भी व्यक्ति एकाकीपन की चपेट में आ सकता है। बहुत बार हमें अपनी स्थिति-परिस्थिति के निमित्त मिलने वाली हर अच्छी या बुरी बात को सिर्फ़ स्वीकारना ही होता है। बगैर किसी शिकायत के क्योंकि इसके अलावा कोई विकल्प ही नहीं होता। बस फर्क सिर्फ इतना है कि संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में हमने अपने आपको कितनी समग्रता में पिरोया है और कौन अपने अंदर उन सभी संस्कारों और मूल्यों के ताने-बाने को बुनकर अपने आपको गुणात्मक रूप से निखार पाया है।
अपनी जीवटता के दम पर कोई भी जीव नए आयाम गढ़ सकता है या जीवन को नवीन रूप में परिभाषित कर सकता है। बस जीव को इसी जीवटता नामक तत्व को ज़िन्दा रखने की आवश्यकता होती है।
मेरी दृष्टि में एक स्त्री के अंदर जितने गुणात्मक सूत्र जन्म से ही बुने हुए होते हैं, शायद ही पुरुष में हों क्योंकि ईश्वर ने स्त्री को अपने ही समकक्ष रखकर इस सृष्टि की परिकल्पना की है। ईश्वर स्त्री को उन सभी गुणों से भरता है, जिस तरह प्रकृति सौंदर्य स्वरूपा है व अमूल्य संपदा संजोये हुए है। बस हर स्त्री को समय रहते अपने व्यक्तित्व का अन्वेषण करने की ज़रूरत होती है।
विषम से विषम परिस्थितियों में स्वयं को जो जितना अन्वेषित कर लेता है, वह कभी एकाकी नहीं रहता क्योंकि अच्छा-बुरा समय आना-जाना है। साथ ही जीव हर स्थिति-परिस्थिति में प्रसन्नचित रहता है व समाज के लिए एक वरदान भी साबित होता है।
परिस्थितियाँ किसी को भी किसी एक क्षण में एकाकी कर सकती हैं पर मेरे दृष्टिकोण में स्त्री में नवीन अंकुरण का गुण; पुरुष की अपेक्षा बुद्धि में पूर्व से ही रोपित किया हुआ होता है। तभी तुलनात्मक रूप से स्त्री को एकाकीपन से निकलने के लिए बहुत जतन नहीं करने होते बल्कि उसे सिर्फ स्वयं को अन्वेषित करना होता है। किसी बाहरी उपाय उपादान में नहीं अपितु स्वयं में।
मूल्यों और संस्कारों से अनुशासित व अलंकृत विचारशील स्त्री सबसे अधिक ताकतवर होती है क्योंकि उसके पास परिवार और समाज को देने के लिए अपूर्व अनुभवों की संपदा होती है, जिसकी परिवार और समाज को एक नींव के रूप में हमेशा ज़रूरत होती है। यही उसका सबसे बहुमूल्य गहना होता है, जिसके आगे विषम से विषम परिस्थितियों में भी न सिर्फ एकाकीपन जैसे क्षणिक भाव टिक पाते हैं अपितु परिवार व समाज में ऐसी स्त्री के आगे पलक पावड़े बिछाये जाते हैं।
अगर कोई स्त्री किसी विशेष क्षण में एकाकीपन महसूस कर रही है तो उसे स्वयं की रचनात्मक व वैचारिक गुणवत्ता को शीघ्र ही पहचान कर अपना उत्कृष्ट समाज व परिवार को देना चाहिए। इससे न सिर्फ उसका एकाकीपन भरेगा अपितु जैसा कि हम जानते हैं देने वाले का स्थान हमेशा ही ऊपर रहा है तब वो स्वयं को कभी भी परिवार व समाज में उपेक्षित महसूस नहीं करेगी।
– प्रगति गुप्ता