मूल्यांकन
स्त्रीत्व, धर्म और दुराचार का बोध कराता संग्रह: युद्ध लड़ रही हैं लड़कियाँ
– सोनिया वर्मा
ज़रा सोचिए, आपकी साईकिल में एक ही पहिया हो तो क्या होगा? या आटा चक्की में एक ही पाट हो या खेत में हल चलाने के लिए एक बैल हो या दूसरा हो पर कमज़ोर हो तो क्या होगा?
जी हाँ, सही कहा आपने! बहुत परेशानी होगी। काम करने में बहुत दिक्कतें आएँँगी और आटा चक्की तो अपना काम भी नहीं कर पाएगी।
एक परिवार को चलाने के लिए दो पहिए यानी माता और पिता दोनों ही अहम होते हैं। अब इनमें से कोई एक कमज़ोर हो तो क्या होगा, आप समझ गये होंगे।अब बात यह आती है कि स्त्री, पुरूष दोनों ज़रूरी हैं तो एक का इतना शोषण क्यों?
स्त्रियों को समाज में अहम मानते हुए मनुस्मृति में कहा गया है कि
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः”
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती है, उनका सम्मान नहीं होता है, वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
उपरोक्त बात समाज भूल चुका है तभी समाज में नारी की दयनीय स्थिति है। ऐसा भी नहीं कह सकते हैं कि सभी पुरुष दुराचारी हैं या नारी का सम्मान नहीं करते। सद्भावना तो सभी रखते हैं पर उत्थान का क़दम नहीं उठा पाते। ऐसी ही घटनाओं से उद्वेलित हृदय की पुकार है ‘युद्ध लड़ रही हैं लड़कियाँ’। यह कविता संग्रह गाँव पन्नीवाला मोटा, ज़िला सिरसा (हरियाणा) निवासी वीरेंद्र भाटिया जी का है। वीरेंद्र जी को मैं व्यक्तिगत रूप से तो नहीं जानती पर जितना भी जानती हूँ, उनकी पुस्तक के माध्यम से ही। वीरेंद्र जी मानते है कि कोई पुस्तक तब तक पूरी नहीं पढ़ी जाती, जब तक वह हमें उद्वेलित, रोमांचित नहीं करती। जिस किताब ने चिकुटी नहीं काटी, जगाया नहीं, क्रोधित नहीं किया, हिलाया नहीं, उसे हम पहले बंद कर तकिये के नीचे रखते हैं फिर अगली सुबह उठाकर अलमारी में रख देते हैं। यह बात सही भी है। ऐसा कुछ-कुछ पुस्तकों के साथ हमने-आपने शायद कभी किया भी होगा। इस पुस्तक में कुल 66 कविताएँ हैं, जो बहुत अच्छी हैं।
पहली कविता है ‘चिड़िया उड़’, इस कविता को सामान्य तौर पर देखें तो कुछ नहीं है। ऐसा लगता है, जैसे बचपन में खेलने वाला खेल चिड़िया उड़, कबूतर उड़ वाला खेल है मगर इस सामान्य से खेल की कविता में कवि ने एक बच्ची के उड़ने का सपना या यूँ कहें की पंख फैलाने से पहले ही पंख पर बंदिश रूपी भार रखने जैसा है। उड़ने का सपना, सपना ही रह जाता है-
बिटिया ने कहाँ
बिटिया उड़
माँ ने उँगली रोक ली
कविता हर जगह है। ज़रूरत बस दृष्टिकोण की है। जब समाज को देखने का एक सकारात्मक दृष्टिकोण हो तो कविता का जन्म होता है। यही दृष्टिकोण संवेदनाओं के अनियंत्रित ज्वार को नियंत्रित करता है। वीरेंद्र जी समाज को बहुत सूक्ष्मता से देखते हैं। इसका परिचय इनकी कविता ‘कुछ स्त्रियाँ’ दे रही है।एक स्त्री जब तक घर-परिवार में रमी रहती है या यूँ कहूँ कि परिवार को ख़ुद को समर्पित कर देती है तब तक वह महान है। परन्तु जब वह समाज में कुछ करना चाहती है तो उसे यह याद दिलाया जाता है कि मायके से डोली और ससुराल से अर्थी निकलने तक ही औरत की दुनिया है। उसका अस्तित्व है।
समाज की नजर से पढ़ती हैं खुद को
आसमान से नीचे उतरती हैं
प्रेम के पंख उतार देती हैं
और लौट आती हैं वहीं
जहाँ तय किया था समाज ने
कि मरने तक
तुम और तुम्हारी इच्छाएँ
इस देहरी से बाहर नहीं जानी चाहिए
यह संग्रह स्त्रियों पर आधारित है। स्त्रियों पर किए जा रहे अत्याचार या हुए शोषण को व्यक्त करती है। एक स्त्री जब कुछ बोलना चाहती है तो उसे मौन करा दिया जाता है। ‘बहुत बोलती हैं स्त्रियाँ’ यह कविता पढ़कर आपको लगेगा कि समाज या परिवार किस तरह स्त्रियों पर बंदिशें लगाता है। जिसे स्त्रियों की सुरक्षा का नाम या लिहाज का नाम दे कर उन पर थोपा जाता है। स्कूल जाओ तो किसी अनजान से बात मत करना, ससुराल में चुपचाप सब सुन लेना, जुब़ान मत लड़ाना आदि-आदि। जब स्त्री कुछ बोलना चाही तो उसे अज्ञानी, बकलोल कहा गया। स्त्रियों पर होते आ रहे अत्याचार से उद्वेलित कवि मन कहता है कि
स्त्री पर तो बोला गया
स्त्री नहीं बोली मगर उनमें
वीरेन्द्र जी कि कविताओं में माँ पर लिखी कविता केवल माँ पर न होकर सभी स्त्रियों के संघर्ष की परिचायक है। इनकी कविताओं में स्त्री संघर्ष, सामाजिक पीड़ा का बोध करवाती हैं। स्त्रियों की दयनीय स्थिति को बिना कोई विशेष जामा पहनाए वैसे का वैसा ही प्रस्तुत करती हैं। समाज के कृत्यों को उजागर करती हैं वीरेन्द्र जी कि कविताएँ।
पुरुष देखता है
जर्जर कप
तड़पता मोम
भभकती लौ
बिस्तर की सलवटें अब स्त्री की देह पर हैं
आज का समाज दिखावटी अधिक और प्रायोगिक बहुत कम है। सौ का नोट पकड़वाकर फोटो खींचवाते हैं लोग और दस का नोट थमा देते हैं। ऐसी घटना मानवता के गिरते स्तर और प्रसिद्धी की चाह दर्शाती है। पहले ज्ञानीजन कहते थे कि दान ऐसे करो कि एक हाथ से दो तो दूसरे हाथ को भी पता न चले, ‘नेकी कर दरिया में डाल’। ऐसे ही उहापोह की स्थिति व्यक्त करती कविता ‘वे आये थे साहब’-
मुझे तो यह भी नहीं पता साहब
वे क्यों आये थे
तुम ही बता दो साहब
वे अपनी भात
मेरे घर बैठकर क्यों खा कर गये
कविता ‘ज़मीन और आकाश’ इतनी छोटी कविता परन्तु गागर में सागर का भाव रखे हुए है।
बेटे ने जमीन माँगी
बेटी ने माँगा आकाश
‘युद्ध लड़ रही हैं लड़कियाँ’ में सारी कविताएँ सूक्ष्मता लिए है। सभी को जितनी बार पढ़ो, कुछ नया लगता है। सीधे दिल को छू जाती है कविताएँ। सरल व सहज भाषा पाठक को बांधें रखती है।
सभी कविताएँ तो लिखी नहीं जा सकती यहाँ इसलिए कुछ पंक्तियाँ, जो मुझे अच्छी लगी-
जब तक पैर भीतर रहा
खड़ा रहा घर
जैसे ही बाहर निकाला पैर
भरभरा कर ढह गया घर
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कि जिस्म के नमक और आँख के नमक में
क्या भिन्नता है
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अचेतन समाज दरअस्ल नहीं जानता
चेतन और अचेतन के बीच का फर्क
चेतन होना भय फैलाना नहीं है
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मुल्क गिराने वाले सोचते हैं
कि मुल्क इमारतों से बनता है
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झूठ सच से तेज चलता है
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संस्कार बचाये रखना
दम घुट जाने तक
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अर्थशास्त्र के आईने से देखता हूँ
आपका चिन्दी-चिन्दी समाजशास्त्र
नंगा देखता हूँ राजनीति शास्त्र
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जीने का नियम बता दो
हृदय में जब कोई तीक्ष्ण हूक उठती है। एक अनाम-सी व्यग्रता संपूर्ण व्यक्तित्व पर छाई रहती है और कुछ कर गुज़रने की उत्कट भावना हमारी आत्मा को झिंझोड़ती रहती है। ऐसी परिस्थिति में कितना ही दीर्घ समय का अंतराल हमारी रचनाशीलता में पसर गया हो तब भी अवसर मिलते ही हृदय में एकत्रित समस्त भावनाएँ, विचार और संवेदनाएँ अपनी संपूर्णता से अभिव्यक्त होती ही हैं। सिर्फ ज्वलंत अग्नि पर जमी हुई राख को हटाने मात्र का अवसर चाहिए होता है, तदुपरांत प्रसव पीड़ा के पश्चात जो अभिव्यक्ति का जन्म होता है, वह सृजनात्मक एवं गहन अनुभूति का सुखद चरमोत्कर्ष होता है। यह काव्य संग्रह ऐसी ही प्रसव पीड़ा के पश्चात जन्मा हुआ अभिव्यक्ति का संग्रह है।
इसमें सभी कविताएँ स्त्री प्रताड़ना, सीख या प्रेम भाव पर हैं। कुछ कविताएँ अलग हैं, जैसे- अनुकूलन, धर्म, ईश्वर आदि। स्त्री शिक्षा, शौर्य की होनी चाहिए। पुस्तक की छपाई बहुत अच्छी है और कवर भी इसके लिए संभव प्रकाशन को बहुत-बहुत बधाई।
वीरेंद्र भाटिया जी ऐसी ही कड़वी सच्चाई और सामाजिक परतों को उजागर करती कविताएँ लिखते रहिए। यह पुस्तक लोगों के मन पर अपनी छाप ज़रूर छोड़ेगी। बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- युद्ध लड़ रही हैं लड़कियाँ
विधा- मुक्तछंद कविता
रचनाकार- वीरेंद्र भाटिया
प्रकाशक- संभव प्रकाशन, हरियाणा
संस्करण- प्रथम 2020
मूल्य- 90 रुपये
पृष्ठ- 128
– सोनिया वर्मा