विधिवत और व्यवस्थित रूप से मैने हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन नहीं किया| स्कूल में हिंदी विषय को लेकर मुझे याद है कि छठी कक्षा में मैने प्रेमचंद की कहानियां ‘पंच परमेश्वर’ और ‘ठाकुर का कुआं’ पढ़ी थीं| साथ ही नचिकेता और यम संवाद भी पुस्तक में बतौर कहानी पढ़ा जो कठोपनिषद से लिया गया था| तब मैं दस वर्ष का था| अगली कक्षा में आने पर रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं, मां की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं’ मुझे याद हो गई| कवियों और लेखकों की संक्षिप्त जीवनियों की एक किताब भी मैने पढ़ी| कुछ बाल पत्रिकाएं जैसे बालभारती, चंदामामा, बालक और नंदन भी पढ़ने को मिलीं| साथ ही ‘विज्ञानलोक’ बाल विज्ञान कथा पत्रिका भी पढ़ी| इसके अगले वर्ष साहित्य की गंभीर सामग्री पढ़ने का अवसर मिला| सारिका की कहानियां, साप्ताहिक हिंदुस्तान में साहित्य, एक-दो उपन्यास जिन्होंने मुझे न केवल एकांगी और अंतर्मुखी बनाया बल्कि कुछ कुंठाएं भी दीं| फिर गर्मी छुट्टियों में प्रेमचंद का उपन्यास निर्मला,जयशंकर प्रसाद का नाटक स्कंदगुप्त, सुमित्रानंदन पंत का एक कविता संग्रह गुंजन, बनफूल की बांग्ला कहानियों का हिंदी अनुवाद और मध्यप्रदेश संदेश पत्रिका से अनेक कहानियां पढ़ डालीं| साहित्य पढ़ने में मुझे रस आने लगा था| जब मैं दसवीं कक्षा में आया तो पाठ्यक्रम में हिंदी विषय की कविता और कहानी पुस्तकों में मैथिलीशरण गुप्त की पंचवटी, सुदर्शन की कहानी हार की जीत, विशंभरनाथ शर्मा कौशिक की ताई और अन्य कुछ कहानियां मुझे बहुत अच्छी लगती थीं| इस वर्ष काफी जासूसी उपन्यास भी पढ़े| पढ़ने का कारण पिता के पढ़ने का भारी शौक| वे पढ़ने के लिए पत्रिकाएं और पुस्तकें लाते थे| दसवीं के बाद पाठ्यक्रम से हिंदी विषय समाप्त हो गया| मैं विज्ञान का विद्यार्थी था अतः भाषा के रूप में सामान्य अंग्रेजी पढ़ने लगा| वैसे भी यदि साहित्य छोड़ दिया जाए तो हिंदी मुझे बहुत अच्छी नहीं लगती थी| निबंध पढ़ने में मेरी रुचि कम थी और व्याकरण तो बिलकुल ही समझ के परे था| उसमें मुश्किल से पास होने लायक ही नंबर आते थे| आगे साहित्य पढ़ना धीरे-धीरे कम होने लगा पर रुचि बरकरार रही| फिजिक्स, केमिस्ट्री और गणित पर अधिक ध्यान केंद्रित किया| साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी और सारिका, पत्रिकाएं आती थीं, समय निकाल कर उन्हें पढ़ लेता था| फिर बी एससी में एडमीशन लिया| पढ़ाई में कुछ और समय दिया लेकिन छुट्टियों में कविताएं भी लिखने लगा| पर किसी को बताया नहीं| अब बीएससी अधूरी छोड़ इंजीनियरिंग में एडमीशन ले लिया| कॉलेज का समय बहुत बढ़ गया| सुबह आठ बजे से शाम पांच बजे तक| फिर होमवर्क भी मिलता था| अब साहित्य के लिए समय बहुत कम रह गया| बस लंबी छुट्टियों में ही अवसर मिलता| एकाध वर्ष बाद एक मित्र की सहायता से जो बहुत अभिन्न था, विदिशा नगर की एक लायब्रेरी, पुष्यमित्र वाचनालय का सदस्य बन गया| बीच-बीच में वहां से पुस्तकें लाकर पढ़ता| वहां हिंदी लेखकों के अलावा विदेशी लेखकों की भी बहुत पुस्तकें थीं| चेखव, तॉल्सतॉय, गोर्की, पुश्किन, मायकोवस्की, दास्तोवस्की, जेन आस्टिन, कामू, काफ्का, हेमिंग्वे, अॉस्कर वाइल्ड, हरमन हेस्से आदि| अधिकांश कथा, उपन्यास पुस्तकें थीं| आगे तीन वर्ष तक ढूंढ-ढूंढ कर बहुत पुस्तकें पढ़ डालीं| लायब्रेरियन एक महाराष्ट्रियन सज्जन थे और बहुत अच्छे व्यक्ति थे| मेरी रुचि से बहुत प्रभावित थे अतः हर संभव छूट, सुविधा मुझे मिल जाती थी| साहित्य पढ़ने के साथ-साथ विचारों से भी मैं समृद्ध हो रहा था| राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, शिव वर्मा, यशपाल, अमरकांत, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विजेन्द्र आदि को पढ़ना अच्छा लगता था| कविताएं लिखता था, कहानियां भी लेकिन जब तक इंजीनियरिंग पास नहीं कर ली उन्हें सार्वजनिक नहीं किया| दो- एक निकट मित्रों तक ही उन्हें सीमित रखा| मित्र कहते थे पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएं भेजो लेकिन मुझे संकोच होता था| मुझे तो यह भी पता नहीं था कि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं कैसे भेजते हैं, पता क्या होता है, कहां से ज्ञात होता है| कुछ भी मालूम नहीं था| एक दिन एक मित्र ने मेरी यह समस्या सुलझा दी| उसने बताया कि प्रत्येक पत्र-पत्रिका में संपादकीय संपर्क का पता लिखा होता है| रचनाएं साफ-साफ लिखो, लिफाफे में बंद करो, पता लिखो, पोस्ट अॉफिस जाओ, लिफाफे का वजन करवाओ, टिकिट खरीदो, चिपकाओ और डिब्बे में डाल दो| मुझे यह बड़ा कठिन काम लगा| तब एक अन्य मित्र ने जो पत्रकार-साहित्यकार थे एक अखबार का पता कैंची से काटकर लिफाफे पर चिपका दिया| मेरी दो कविताएं मोड़कर लिफाफे में डाल दीं साथ में एक छोटा कव्हरिंग लैटर भी रख दिया| फिर लिफाफा बंद कर मुझे थमा दिया| कहा पोस्ट अॉफिस जाओ, वजन कराकर टिकिट लगाकर डिब्बे में डाल आओ| मुझे अभी भी असहज लग रहा था| मैं सीधा घर गया और लिफाफा टेबल पर रख दिया| संयोग से दूसरे दिन पहले वाला मित्र घर आया| उसने लिफाफा देखा तो बहुत खुश हुआ| बोला इसे यहां किसलिए रखे हो, मैने कहा कि मुझे असहज लग रहा है| उसने लिफाफा उठाया बोला चलो मेरे साथ| पोस्ट अॉफिस ज्यादा दूर नहीं था| उसी ने वजन कराया, टिकिट खरीद कर चिपकाए और लिफाफा लाल डिब्बे के हवाले कर दिया| बोला इसमें घबराने की क्या बात थी| कोई गलत काम कर रहे थे? हम लोग घर लौट आए| इन मित्र महोदय को बाद में नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त हुआ|
हमारी परीक्षाएं समाप्त हो गई थीं| अब आगे नौकरी की चिंता थी| कितने दिन बेरोजगार रहना होगा| और रोजगार पाने के लिए क्या करना होगा| खैर लिफाफा डिब्बे में डालकर मैं भूल गया| मुझे न कोई उत्सुकता थी न उम्मीद| सुबह उठता, दैनिक कर्म से निवृत होता, नहाता-धोता, कुछ खाता और लायब्रेरी चला जाता| वहां बैठकर अखबारों में नौकरी के लिए रिक्तियां देखता| उन्हें नोट करता और फिर कोई किताब इश्यू कराता| शाम को दोस्तों के साथ घूमता| कोई अच्छी फिल्म लगी होती तो तो देखी जाती| ज्यादातर समय चप्पल फटकारते हुए बीतता| दस बारह दिन बीते होंगे| एक रविवार वह मित्र सूचना लेकर आए कि अखबार में कविताएं छप गई हैं| उन्होंने कहीं अखबार देख लिया था| मुझे आश्चर्य हुआ| फिर वह मुझे स्टेशन ले गए| बुकस्टाल पर हमने वह अखबार देखा| छपी हुई अपनी कविताएं देखीं| फिर वह अखबार खरीद लिया गया| इस तरह रचनाएं भेजने और छपने का सिलसिला शुरू हुआ| छह-सात महीने के बाद स्थानीय इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर बन गया| जीवन में कुछ स्थिरता आई| इसके बाद मैने 1979 में ‘धरती’ नाम से एक लघुपत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया| यह प्रकाशन अनियमित है| बीच-बीच में अवरुद्ध हो जाता है पर आज तक चल रहा है| जीवन आगे बढ़ा, कविताएं लिखना चलता रहा| पत्र-पत्रिकाओं में छपतीं| फिर संयोग ऐसा हुआ कि इलाहबाद में परिमल प्रकाशन के मालिक शिवकुमार सहाय जी से परिचय हुआ और उन्हाेंने मेरी पहली कविता पुस्तक नौ रुपये बीस पैसे के लिए प्रकाशित की| अनंतर गद्य लेखन भी प्रारंभ हुआ| इलाहबाद में ही विद्याधर शुक्ल जी ने लिखवाया| बाद में विजेन्द्र जी ने प्रोत्साहित किया| 1996 में मेरा एक कहानी संग्रह आया- नहीं यह कोई कहानी नहीं| तब मैं गाजियाबाद के पास दादरी में था| फिर 2002 और 2004 में दो और कविता संग्रह प्रकाशित हुए| कविता, कहानी, आलोचना निष्पृह भाव से लिखता रहा| यथासंभव धरती भी प्रकाशित होती रही| 2010 में पाँव जमीन पर नामक एक संस्मरणात्मक उपन्यास आया| 2014 में साहित्यिक सक्रियता में शिथिलता आई| अखबारी लेखन चल रहा था| धीरे-धीरे वह भी कम होता गया| अखबारों से साहित्य गायब हो गया| साहित्यक पत्रिकाएं कम होने लगीं| कुछ अजीब सा माहौल बनता गया| रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी| अखबार, पत्र-पत्रिकाएं सब बंद हो गए| अॉनलाईन लेखन और सोशल मीडिया की धूम रही| कोरोना कम हुआ| धीरे-धीरे जीवन सामान्य होने लगा| अब काफी कुछ बदल गया है| गतिविधियां बढ़ी हैं| सक्रियता भी कुछ बढ़ी है लेकिन जोश, उत्साह और मनःस्थिति बदली है| लोगों का सोच बदला है| समझ भी बदली है| प्रतिरोध कम हुआ है| स्वकेन्द्रिकता बढ़ी है| और हम हैं कि वहीं खड़े हैं जहां तीन दशक पहले थे|
दिसम्बर 2022
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सृजन संवाद – शैलेन्द्र चौहान
विधिवत और व्यवस्थित रूप से मैने हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन नहीं किया| स्कूल में हिंदी विषय को लेकर मुझे याद है कि छठी कक्षा में मैने प्रेमचंद की कहानियां ‘पंच परमेश्वर’ और ‘ठाकुर का कुआं’ पढ़ी थीं| साथ ही नचिकेता और यम संवाद भी पुस्तक में बतौर कहानी पढ़ा जो कठोपनिषद से लिया... Read More
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