उभरते-स्वर
सृजन के अंकुर
अंतस में मेरे भी
सृजन के अंकुर फूटने लगे
गढ़ूँ कविता नयी,
नयी कहानी गढ़ूं
निशा का अवसान होने लगा
दिखने लगी दिनकर की लालिमा
अब सुबह की शुरुआत करूँ
ज्यों अंकुर कोंपल बनेंगे
नयी उमंगें हलचल करेंगी
देखेगी तमाशा दुनिया
हम भी इतिहास रचेंगे
उर के रिक्तों को भरने के
नए अंदाज मिलने लगे
सृजन के कोंपल बढ़ने लगे
टहनियाँ, फूल-पत्ते आए
बढ़ने लगी अभिलाषाएं
मन-मस्तिष्क में
होने लगा विचारों का मंथन
ऊपजने लगी नयी-नयी कविताएँ।
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व्यथित हूँ
व्यथित हूँ-
समाज में फैल रही कुरीतियों से,
दमनकारी, भ्रष्टाचारी कानून व्यवस्था से,
अपनी ही माँ-बेटी के सौदागरों से,
रिश्तों को कलुषित करते आचरणों से।
व्यथित हूँ-
आतताईयों की कारगुजारियों से,
नेताओं की गीदड़ जैसी चालाकियों से,
रिश्तों के सिमटते स्वभाव से,
मौसम-सा बदलते-बिगड़ते
सामाजिक हालात से।
व्यथित हूँ-
ब्याही बेटी को
दहेज लोभियों द्वारा
सताए और मारे जाने से,
अपनी ही कोख से जने
बेटा-बेटी में भेदभाव से,
बेटों की चाह में गर्भ में ही
बेटी को मार दिए जाने से,
लज्जा या अपने कुकर्मो से
बचने के लिए नवजात शिशु को
नाली में बहा देने से,
ऐसे ही
अनेक प्रकार के कुसंस्कारों से।
– रेणु रंजन