आलेख
सूर के कृष्ण- बाल साहित्य के संदर्भ में: निर्मला कुमावत
सूर के काव्य में नायक श्रीकृष्ण हैं। कृष्ण की बाल चेष्टाओं के प्रसंगों को सूर ने साहित्य जगत में प्रभावोत्पादक, रोचक और मनोहारी रूप से चित्रित किया है, जिसने सूरदास को वात्सल्य का महाकवि बना दिया। श्रीकृष्ण के हमें दो रूप लौकिक और अलौकिक अर्थात मानवीय और दिव्य गुण दृष्टिगोचर होते हैं। लौकिक रूप में श्रीकृष्ण युगमानस के सूत्रधार हैं जिनका मानव व्यक्तित्व महाभारत, जातक कथाओं, जैन और बौद्ध ग्रंथों आदि में अत्यंत वैविध्यपूर्ण, समृद्ध और आकर्षक है; वहीं अलौकिक स्वरूप में श्रीमद्भगवद्गीता, हरिवंश पुराण, भागवत पुराण आदि में अवतारी रूप के विभिन्न लीलाओं को प्रदर्शित करता है। इस तरह ”कृष्ण-कथा और प्रसंग ने मूर्ति, वास्तु, चित्र, नृत्य, गीत-संगीत आदि सभी भारतीय ललित कलाओं तथा आभूषण, प्रसाधन, व्यंजन-मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, धर्म-भक्ति आदि सभी तत्त्वों को प्रभावित किया।“1
जब भी सूरदास जी के पदों का अध्ययन किया जाता है, उनके भीतर की भक्ति व ईश्वर प्रेम की पराकाष्ठा ही दृष्टिगोचर होती है किन्तु सूर की बाल कृष्ण लीलाओं के पदों को बाल साहित्य की प्रारम्भिक परम्परा का शुरूआती दौर माना जाता हैं; क्योंकि मध्यकाल में सूर, तुलसी और कबीर के नीतिपरक तथा उपदेशात्मक काव्य में कई अंश बालोपयोगी सिद्ध होते है। जिन पदों में बालकों को कृष्ण के बाल जीवन की अभिव्यक्ति मिलती है वे पद बाल साहित्य के अन्तर्गत मान लिये गए है। उन्होंने बाल साहित्य को माध्यम बनाकर अपनी रचना नहीं की है बल्कि वे तो अपने आराध्य बाल कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करते है। किन्तु बच्चों के मनोभावों का इतना रोचक, स्वाभाविक और सजीव चित्रण अन्यत्र मिलना मुश्किल है जो बाल साहित्य की पृष्ठभूमि पर खरा उतरता है। जैसा कि बाल साहित्य में बच्चों के लिए ऐसी रचनाएँ की जाती है जिसके माध्यम से बच्चों का उचित विकास हो सके, जो उन्हें नैतिकता और सामाजिक सरोकारों की जानकारी से अवगत करा सके और साथ ही जो बालकों का मनोरंजन भी करे। ऐसी रचनाएँ जिनमें बाल मनोभावों की पुष्टि हो उनको भी बाल साहित्य माना गया है। इस दृष्टि से सूर के पद भी बाल काव्य की श्रेणी में रखे जाते है। सूरदास कृष्ण-भक्ति काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। सूरसागर, सूर सारावली और साहित्यलहरी इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। इनके काव्य में बाल-कृष्ण के सौन्दर्य, उनकी चपल चेष्टाओं और क्रीङाओं की मनोहर झाँकी मिलती हैं। “सूर ने अपने बालरूप वर्णन को स्वाभाविकता प्रदान कर आने वाली पीढियों को प्रेरणा दी कि वे बालक की स्वाभाविक मधुर चेष्टाओं का चित्रण कर साहित्य को पावनता एवं मधुरता प्रदान करे।”2
अस्तु ”कृष्ण के बाल लीलाओें का वर्णन सूरदास ने ऐसे मनोवैज्ञानिक ढंग से किया है जिससे ज्ञात होता है कि उनका बाल स्वभाव का ज्ञान बहुत विषद् था। बच्चों के मन के राग द्वेष, हर्ष विषाद इत्यादि मनोभावों से वे भली भाँति परिचित थे। बाल स्वभाव का ऐसा सुन्दर चित्रण हिन्दी के और किसी पुराने कवि की रचनाओं में हमें नहीं मिलता। इसलिए हम उन्हें हिन्दी में बाल भावनाओं को चित्रित करने वाला प्रथम कवि कह सकते हैं।”3 सूर से पूर्व कृष्णलीला का वर्णन पुराणों में हो रखा है; किन्तु यह सभी वर्णन कृष्ण की अलौकिकता को लिए हुए है। इसलिए इनमें स्वाभाविकता व मार्मिकता का अभाव है। सूर ने कृष्ण के लौकिक रूप को अपने साहित्य में स्थान दिया है इसलिए सूर के बाल रूप वर्णन में बालक की कोई ऐसी चेष्टाएँ या रूप नहीं रहा जो उनके काव्य में न नजर आये। बालक की तोतली बोली, उसका सौन्दर्य वर्णन तथा उसकी एक-एक मनोभाव का मनोहारी चित्रण किया है। जैसे-बालक का पेट के बल घिसटना, घुटनों के बल चलना, लङखङाते डगमगाते कदमों से चलना, फिर गिरना फिर उठना, परछाई को दधि माखन खिलाना, चन्द्र खिलौना माँगना, हठ करके मनमानी पूर्ण बात मनवाना, बालों को बढाने के लालच में कच्चा दूध पी लेना, फिर भी चोटी का न बढने पर झगङा करना, बलराम भैया की शिकायत करना, अपने घर के माखन के मटकों को छोङ दूसरों के घर का मक्खन चुराकर खाना और खिलाना और पकङे जाने पर दुनिया भर के बहाने बनाना आदि बाल मनोभावों की ही प्रतिक्रिया हैं। बच्चों की प्रवृत्ति होती है कि उनके मन को जो अच्छा लग गया वे हठपूर्वक उसे मनवाने की जिद करते है, अकसर बच्चों में स्नान के प्रति विरोध की भावना होती ही है। इसका क्षोभ बच्चे अपने कपङों को ही नोचने लगते हैं किसी के मनाने पर और अधिक मचल कर विरोध को प्रकट करते हैं। सूर ने अपने काव्य में इसका बङा ही सुन्दर और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। उदा.-
जसुमति जबहिं कहे अन्हवावन रोई गए हरि लोटतरी
और
चंचल अधर चरनकर मचल अंचल गहत बकोटनि”4
जब कृष्ण की हठ बढ जाती है तो माँ यशोदा चन्दा दिखाकर बहलाने की कोशिश करतीं है तो अब कृष्ण चन्दा माँगने की जिद पकङ लेता है। बच्चों की इसी हठी प्रवृति को सूर इस पद में चित्रित करते है-
मैया,मैं तो चंद खिलौना लैहौं।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहौं, तेरी गोद न ऐहौं।
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बैनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा कौ, तेरौ सुत न कहैहौं।।5
फिर हम देखते है कि यशोदा थाली में पानी रखकर प्रतिबिम्ब दिखाती है किन्तु चंचल कृष्ण कहाँ मानने वाला था। अब उसने एक नई बात ठान ली वह न तो गाय का दूध पियेगा, न चोटी गुंथवायेगा, न ही नंद का लङका कहलाएगा। तब यशोदा ने धीरे से कहा कि एक बात सुनो कहीं बलराम भैया न सुन ले और पास आकर कहा कि मैं तुम्हें चाँद सी सुन्दर दुलहिन ला दूँगी। यशोदा बार – बार बात को टालने की कोशिश करती है; लेकिन बच्चे तो बच्चे होते हैं, अब उसकी नई जिद का प्रादुर्भाव हो जाता है- मैं तो अभी ब्याहने जाऊँगा। किन्तु माँ धीरे – धीरे लोरी गा कर सुलाने का प्रयत्न करती है। इस तरह रूठने मचलने के सौन्दर्यपूर्ण चित्र देकर सूर ने बाल प्रकृति के चित्रण में अनोखा एवं अनूठापन भर दिया है। “सूर ने कृष्ण का केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का ही विस्तृत एवं सूक्ष्म वर्णन नहीं किया; कवि ने बालकों की अन्तःप्रवृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेक बाल्य-भावों की सुन्दर व्यंजना की है।”6
बालको में अनुकरण की भी प्रवृत्ति होती है जिसे सूर ने कृष्ण के द्वारा सूक्ष्मातिसूक्ष्म दृष्टि से बालकों की चेष्टाओं और कार्यों का स्वाभाविक वर्णन किया है। जब कोई बात बालक के सामने बार-बार की जाती है तो बालक की उसमें रूचि पैदा होने लगती है और उसी के अनुसार वह अनुकरण करने लगता है। सभी बच्चो की भाँति जब कृष्ण भी दूध नहीं पीता तब यशोदा उसे बलराम भैया जैसी चोटी बढने का लालच देती है और कृष्ण दूध पी लेता है। “एडलर के विचारों के अनुसार स्पर्धा की यही भावना उन्हें उन्नति की सीमा तक पहुँचाती है।”7 इस तरह बालकों में अनुकरण की होङ होती है क्योंकि वे अपने समवयस्कों, साथियों से पीछे रहना अपनी तौहीन समझ बैठते है। जब कुछ दिन कच्चा दूध पीकर भी चोटी जैसी की तैसी रही, तब फिर शिकायत करते है-
मैया कबहिं बढेगी चोटी
किती बेर मोहिं दूध पियत भई यह अबहूँ है छोटी।8
सूर के कृष्ण में बात को बढाचढा कर बोलने की अद्भुद कला है। जब कभी वे सूने घर में माखन चोरी के लिए चले जाते और गोपियों द्वारा पकङे जाने पर भी ऐसी बाते बनाते है कि सब उनकी बातों से रीझ जाते है। बालक की वाक पटुता और बुद्धि चातुर्ययुक्त प्रवृति इस उदाहरण में दृष्टिगोचर होती है –
मैं जान्यो मेरो ही घर है धोखे में आयौ
देखत हौं गोरस में चींटी काढन को कर नायौ।9
अतः इस तरह सूरदास ने कृष्ण की बाल लीलाओं को ब़च्चों के मन की आन्तरिक अनुभूतियों और कल्पनाओं को उन्हीं की भाषा में व्यक्त किया है।जिन्हें पढकर बच्चों का मनोरंजन भी होता है। सूर की मुख्य यही विशेषता है कि वे स्वाभाविक बाल दशाओं के चित्रण द्वारा सहज ही पाठकों के मन को प्रशन्न कर देते हैं। बाल साहित्य में ऐसी भावनाओं का संचार होना चाहिए जो बच्चों में जिज्ञासाएँ जगाए और साथ ही चाहे कठिन से कठिन विषय हो, चाहे कठिन से कठिन पहेली हो उसको भी सरल, सुबोध और बेहतर ढंग से समझ आ जाए। सूर का बाल चित्रण श्रृंगार और वात्सल्य रस से इतना पूर्ण है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि “आगे होने वाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी सी जान पङती है।”10 उनके काव्य में बाल्यावस्था में बच्चों में जिज्ञासा, स्पर्धा, क्रोध आदि कुछ मूल प्रवृतियाँ पाई जाती है। जो बालक की किसी न किसी कार्य कारण प्रतिक्रिया स्वरूप प्रकट होती है। जो परिस्थिति के कारण कभी वे जिज्ञासु हो जाते है तो कभी क्रोधित, कभी उनमें भय व्याप्त हो जाता है। बचपन में ये प्रवृतियाँ बच्चों में प्रबल रूप में होती है। महाकवि सूरदास ने इन्हीं संवेगों को बङे ही सुन्दर तरीके से अपने काव्य का विषय बनाकर प्रस्तुत किया है, जिससे बालकृष्ण का मोहक और सौन्दर्यपरक रूप कलात्मक ढंग से अंकित हुआ है। सूर के बालकृष्ण की शिकायत, स्पर्धा, हठीलापन, उत्सुकता, जिज्ञासा और उलाहनापूर्ण स्थितियों का वर्णन उसे बाल साहित्य की कोटी में रखता है। अतः सूर के साहित्य में प्रमुखता कृष्ण के ब्रज जीवन की ही है जिसमें बच्चों की भावनाओं, संवेदनाओं और इच्छाओं की पूर्णरूप से पुष्टि होती है।
संदर्भ-
1. मध्यकालीन कृष्णकाव्य, डा. कृष्णदेव झारी, शारदा प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 1972, पृ.सं.-1
2. सूर के कृष्णः एक अनुशीलन, शशि तिवारी, मिलिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, प्रथम संस्करण 1969, पृ.सं. -41
3. आधुनिक हिन्दी में बाल साहित्य का विकास, डॉ॰ विजयलक्ष्मी सिन्हा, साहित्यवाणी, इलाहबाद, प्रथम संस्करण-1986, पृ.सं.-58
4. सूर के कृष्णः एक अनुशीलन, शशि तिवारी, मिलिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, प्रथम संस्करण 1969, पृ.सं. -47
5. भ्रमरगीत सार (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा संगृहीत एवं महाकवि सूरदास कृत), सम्पादक- डॉ. कृष्णबीर सिंह, आस्था प्रकाशन, जयपुर, संस्करण-2010, पृ.सं.-15
6. वही, पृ.सं.-37
7. सूर के कृष्णः एक अनुषीलन, षषि तिवारी, मिलिन्द प्रकाशन,हैदराबाद, प्रथम संस्करण 1969, पृ.सं. -49
8. हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र षुक्ल, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2002, पृ.सं.-99
9. भ्रमरगीत सार (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा संगृहीत एवं महाकवि सूरदास कृत) , सम्पादक- डॉ॰कृष्णबीर सिंह, आस्था प्रकाशन, जयपुर, संस्करण-2010, पृ.सं.-16
10. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2002, पृ.सं.-93
– निर्मला कुमावत