आलेख
सूर की भक्ति में बालमनुहार की चित्रात्मकता: डाॅ. अन्नपूर्णा शुक्ला
हिन्दी की कृष्ण काव्य धारा के सर्वप्रथम प्रतिनिधि एवं सर्वोत्कृष्ट कोटि के कलाकार सूरदास जी थे। ये पुष्टि मार्ग के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे। इन्होंने उनकी आध्यात्मिक प्रेरणा पाकर सरस और उच्च कोटि के पदों की रचना की थी । इस हेतु यह कृष्ण भक्त कवियों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। इनकी प्रतिभा अद्वतीय थी। ‘‘इन्होंने कृष्ण की लीलाओं के विशेष रूप से बाल लीलाओं के बड़े ही मनोरम चित्र खींचे हैं। विशेषकर बाल लीलाओं के इनके पद तो कभी-कभी दृश्य काव्य लगते हैं। इन के पदों ने चितेरों को भी सर्वाधिक प्रभावित किया। बालक कृष्ण की लीलाओं के जितने भी चित्र विविध शैलियों से मिलते हैं, सभी लगभग सूरदास के पदों से प्रभावित है, क्योंकि इनका प्रत्येक पद एक मनोरम चित्र ही है।’’
चित्रण दृष्टि और अन्तस् के विशाल फलक पर अपनी भक्ति रस की रंगीन छटाओं को बिखेरने वाले कवि दृष्टा और शब्दरूपी रेखाओं से सुन्दर¬¬ सुन्दर संयोजनों को उकेरने वाले सूरदास जी एक अमूल्य निधि थे। उनको यदि मानस दृष्टा कहा जाये या महान चित्रकार कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी। क्योंकि चित्रकार अपनी आंखों से जो देखता है उसे चित्र फलक पर उकेरता चला जाता है। अन्त में वह उसे विभिन्न रंगों से सजाता है। किन्तु सूरदास अपने अन्तस् की कृष्ण भक्ति को बहुत ही तन्मयता से उकेरते चले गये हैं। जिसमें बाल रूप ऐसी अठखेलिया लेता हुआ दिखायी देता है। कि अद्भुत वातावरण ही सृजित हो जाता है और हर माँ अपने को सूर के वात्सल्य से भरी हुई अनुभव करती है। जिसे आप सूर सागर पद 738 में देख सकते है।
भक्त अपने अन्त्स में व्याप्त विकारों का लेखा-जोखा अपने आराध्य के गुणगान के माध्यम से व्यक्त करता चला जाता है। सूर की यही भक्ति भावना आराध्य योग है जिससे उसकी भक्ति मूर्त रूपाकारों का सुन्दर रूप ग्रहण करती हुयी भक्तिरस का ही रसास्वादन करती है।
भारतीय संस्कृति और धर्म पर भक्ति की सगुण धारा का प्रभाव बहुत गहरा है। सूर ने ऐसे वात्सल्य से भरपूर फलक चित्रित किया कि जन मानस की अन्तरात्मा की गहरायी तक वह पैठ गया। कृष्ण के प्रति गहरी आस्था ही भारतीय धर्म और संस्कृति की मूलाधारा बनी यदि यह कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी कि सम्पूर्ण भारतीय दर्शन ही इसके व्यक्तित्व में समाहित है।
‘‘श्री कृष्ण ही परब्रह्म है, जो दिव्य गुणों से सम्पन्न होकर पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आनन्द का पूर्ण आविर्भाव इसी पुरुषोत्तम रूप में रहता है। अतः यही श्रेष्ठ रूप है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सब लीलाएं नित्य हंै। वे अपने भक्तों के लिए ‘व्यापी वैकुण्ठ’ में हंै। वे अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहतंे हैं। गो लोक इसी ‘व्यापी वैकुण्ठ’ का एक खण्ड है, जिसमें नित्य रूप में यमुना, वृन्दावन, निकुंज इत्यादि सब कुछ हैं। भगवान् की इस ‘नित्य’ लीला सृष्टि में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।’’ इसी उत्तम गति तक पहुंचाने का मार्ग सूरदास ने प्रशस्त किया है। उनकी भक्ति में इतनी शक्ति थी कि उनके अन्तस् के नेत्र बाह्य नेत्रों से भी प्रभावशाली बन गये और उन्होंने अनेक भक्ति के मार्ग प्रशस्त कर दिये। जिसमें भक्त उसी कृष्ण के बाल रूपों में उलझकर रह जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि ‘‘सूरदास ने साकार विग्रहधारी श्रीकृष्ण के लीला बिहारी स्वरूप को इस वैष्णवी भावना से अनुप्राणित होकर ही अपनी भक्ति भावना का आधार बनाया है।’’
यह आधार अन्तस् के प्रेम और श्रद्धा की समता का आधार है जो हम भक्त के मानस में सहजता से उत्पन्न हो जाता है। ‘‘सूरदास जी भक्ति रस में पगे तो थे ही, काव्य कला मर्मज्ञ भी थे। वे एक शिल्पी थे जिसने आत्माभिव्यंजन के रूप में एक ही वस्तु को भिन्न-भिन्न रूपों मंे गढ़ा है।‘‘
वे एक अद्भुत कलाकार थे जिन्होंने कृष्ण की अद्भुत लीलाओं का बहुत ही अद्भुत रेखा चित्रण प्रस्तुत किया है। जिसमें वात्सल्य के सारे रंग फलक पर दमकते हुए दिखायी देते हैं और शब्द चेतन हो थिकरते हुए से प्रतीत होते हैं।
किलकित कान्ह छुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नन्द कैं आँगन,
बिंब पकरिबै धातव।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं,
कर सौ पकरन चाहत।
प्रस्तुत पंक्तियाँ सामान्य जन के अन्त्स में इस तरह अपना स्थान बनाती हैं जैसे वह स्वयं का गढ़ा हुआ बिम्ब है। दृष्टा इस चर्म सीमा तक आनन्द से भर जाते हैं कि मनो विश्लेषण वादियों का मनोविज्ञान भी अस्पष्ट सा लगने लगा है। कितना शाश्वत सोच था, एक ऐसे दृष्टा का जिसकी दृष्टि सामान्य जन से अलग थी उसने अपने अन्तस् की अभेद दृष्टि की तूलिका से जो चित्र बनाए, वो अमूल्य हैं। ऐसी अमूल्य निधि के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
एक कितना अद्भुत दृश्य सूर ने चित्रित किया है जब कृष्ण प्रथम बार चलना सीखते हंै, तो माॅं फूले नहीं समाती इतना ही नहीं जब कृष्ण लड़खड़ाते है फिर चलते है, गिरते है। क्या अंकन है। साथ ही रेखाएं मुखरित होती प्रतीत होतीं हैं।
चलत देखि जसमुति सुख पावै।
ठुमकि ठुमकि पग धरनि रंेगत, जननी देखि दिखावै ।
इस चित्र में रेखाओं की गत्यातम्कता को अनुभव किया जा सकता है। इन अनुभूतियों की शक्ति सूर की ही तूलिका में वि़द्यमान है। उन्होंने एक भक्त की अदम्य इच्छा शक्ति को काव्य चित्रण से साकार किया है।
सूर की भक्ति जितनी गहरी होती गयी उतनी ही सहजता से उनकी कलम, सम तूलिका से कृष्ण की लीलाओं का भी विकास होता गया और शब्द चित्र की रेखाएं प्रौढ़ता प्राप्त करने लगी।
मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी।
कितनी बार मोहि दूध पियत भई,
यह अजहॅंू छोटी।
इस प्रकार एक नेत्र हीन भक्त की भक्ति भी श्रेष्ठता को प्राप्त हुई सूर के काव्य को मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाये तो उनकी बाल मनोवैज्ञानिक दृष्टि कितनी अद्भुत थी जो हिन्दी साहित्य में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में अपना महत्व रखती है। ‘‘सूर काव्य में बाल कन्हैया की सूक्ष्तम स्वाभाविक क्रियाओं का बाहुल्य है। उनके वर्णन से ज्ञात होता है कि वह बालक के मानसिक और शारीरिक विकास की समान्तर प्रगति के भेद से पूर्ण रूपेण परिचित थे।‘‘
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भक्त कवि सूरदास जी ने अपनी अदम्य इच्छा शक्ति द्वारा अपनी तूलिका से विराट फलक पर कितने गत्यात्मक बिम्ब उकेरे हैं। जिसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म तूलिकाघात स्पष्ट दृष्टिगत हो रहे हैं। अर्थात् एक भक्त अपनी भक्ति से अपने आराध्य की कितनी सहजता से एक-एक अवस्था को अंकित करता चला गया। हर अंकन के उस बिम्ब के अनुरूप ही रंग, रेखाएं समाहित हंै। इस प्रकार भक्त कवि सूर अपनी भक्ति से अपने आराध्य की सहज साधना की है। जो सर्वत्र वात्सल्य की छटा बिखेर रहे हंै। युग बीतें किन्तु सूर के कृष्ण घुटनों के बल चल कर ही स्नेहिल अंगड़ाईयाँ लेते हुए प्रौढ़ता को प्राप्त हो गये।
सन्दर्भ-
1. काव्य और चित्रण, समानतरता के विविध आयाम, निराला और वानगो के संदर्भ में’’ अप्रकाशित शोध ग्रन्थ से, डाॅ. अन्नपूर्णा शुक्ला, पृ. 91-92
2. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, 13वां संस्करण, पृ. 151
3. सूर – व्यक्त्वि और कृतित्वल, लेखक – श्री शरण, प्रकाशक – आध्ुानिक प्रकाशन, 4-बी/6, गुरुद्वारा, मौहल्ला, पुरी, गली नं. 7, मौजपुर दिल्ली – 110053, प्रथम संस्करण
4. सूर की काव्य कला, लेखक – मनमोहन गौतम, प्रकाशक – भारतीय साहित्य मंदिर, द्वितीय संस्करण, पृ.सं. 6
5. आधुनिक मनोविज्ञान और सूर काव्य – लेखक कमला आत्रेय, पृ.सं. 193
– डाॅ. अन्नपूर्णा शुक्ला