ख़ास-मुलाक़ात
सूक्ष्म मनोविज्ञान के बिना रचनाकर्म निर्जीव होगा- नमिता सिंह
हमारे समय की चर्चित और समर्थ कथाकार डॉ. नमिता सिंह ने मुख्य रूप से सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों के बीच आम आदमी के सरोकारों को अपने लेखन का विषय बनाया है। स्त्री-विमर्श के मुद्दे तथा साम्प्रदायिकता के प्रश्न उनके लेखन के केन्द्र में रहते हैं। अपना शोध प्रबंध लिखते समय मुझे नमिता सिंह जी का साक्षात्कार लेने का सौभाग्य मिला था, जिसमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में उपयोगी जानकारी मिली। यहाँ प्रस्तुत है उस बातचीत के कुछ अंश।
– डॉ. मोनिका देवी
मोनिका देवी- आपने रसायन विज्ञान से स्नातकोत्तर करने के बाद हिंदी साहित्य की ओर रुख़ क्यों किया?
नमिता सिंह- हिंदी साहित्य में मानव से लगाव होता है, जो मुझे काफ़ी अच्छा लगा। इसलिए मैंने रसायन विज्ञान से शिक्षा पाने के बाद भी हिंदी साहित्य में अपनी रुचि जग जाहिर की है।
मोनिका देवी- समाज मे फैलते भ्रष्टाचार को किस प्रकार से रोका जा सकता है? इस मुद्दे पर आपके क्या विचार हैं।
नमिता सिंह- जहाँ ज़्यादा निजी क्षेत्र का प्रभुत्व होता है, वहाँ पर निजी कम्पनियाँ अपनी-अपनी जगह बनाती हैं तो भ्रष्टाचार की संस्कृति बनी रहती है। यह धीरे-धीरे नीचे तक छनकर आती है। रुपया-पैसा देकर आप अपना काम करवा सकते हैं। रिश्वत के लेन-देन से भ्रष्टाचार ज़्यादा बढ़ता जा रहा है।
मोनिका देवी- आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियों की दशा दयनीय है। इस बात से आप कहाँ तक सहमत हैं?
नमिता सिंह- आज भी ग्रामीण समाज में अशिक्षा का प्रभाव है। स्त्रियों को पूरा मान-सम्मान नहीं मिलता तथा पुरूष प्रधानता का ज़्यादा प्रभाव देखने को मिलता है। ग्रामीण संस्कृति में पितृ सत्ता का प्रभाव है। 74% स्त्रियाँ एनीमिया से पीड़ित हैं क्योंकि उनकी परिवार के प्रति देखभाल ज़्यादा रहती है। वह अपना ध्यान नहीं रख पाती हैं।
मोनिका देवी- आपको अपनी रचनाओं के लिए बीज कहाँ से मिलते हैं? आप अपने पात्रों का चयन किस वर्ग से करती हैं?
नमिता सिंह- मैंने अपने पात्रों का चयन हर वर्ग से किया है क्योंकि पात्रों का चयन एक सामाजिक विचार भी है, जो कि लेखक पाठकों के सामने रखना चाहता है। ‘राजा का चौक’ की कहानियाँ इसका उदाहरण हैं। दलित विरोधी मानसिकता और परिवेश, जो हमारी संस्कृति में लगातार देखने को मिलता है। हिन्दू संस्कृति का अर्थ वर्ण-व्यवस्था और भेदभाव की संस्कृति है। कहानियों के माध्यम से यह बताना है कि वह संवेदना ओर विचारों को समझे, यही वैचारिकता का आधार स्तंभ है।
मोनिका देवी- ‘जंगल गाथा’ कहानी संग्रह में सुरसती का किरदार किस प्रकार का है?
नमिता सिंह- सुरसती आदिवासी समाज का नेतृत्व कर रही है, साथ मे फैंटसी है इसको प्रतीकात्मक रूप में किया गया है। यह आदिवासी स्त्री के शोषण की कहानी है।
मोनिका देवी- एकल परिवार में झगड़ों के क्या कारण हैं, जिनकी वजह से पति-पत्नी में तलाक़ तक नौबत आ जाती है? इस पर आपके क्या विचार हैं?
नमिता सिंह- आज पति-पत्नी स्वार्थी हो गए हैं। वे एक-दूसरे की भावनाओं को नहीं समझते। सामाजिक सुख-सुविधाओं के कारण समस्या उत्पन्न हो रही है। व्यक्तिवाद बढ़ता जा रहा है। दोनों अपने लिए सब सुख चाहते हैं तथा अपने में ही जीते हैं। इन सबके कारण परिवार टूट रहे हैं।
मोनिका देवी- आज संस्कृति अंधेरे की ओर जा रही है। पाश्चात्यकरण ज़्यादा हो रहा है। इस पर आपकी क्या राय है?
नमिता सिंह- आज का व्यापारिक सँस्कृति बढ़ती जा रही है। भारत में व्यापार के लिए लोग आते हैं, तो उनकी संस्कृति का प्रभाव उनके आस-पास के रहने वालों पर पड़ता है। इसका प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। संस्कृति भूमंडलीकरण है, यह सहज स्वाभाविक है; इससे बचा नहीं जा सकता।
मोनिका देवी- आज राजनीतिक स्वार्थ के लिए नेता लोग दंगे-फ़साद करवाते हैं? इस पर आपकी क्या राय है।
नमिता सिंह- आजकल सांप्रदायिकता के नाम पर सबको बाँटा जा रहा है। हिन्दू बहुत है तो प्रचार करते हैं कि मुस्लिम वर्ग बढ़ रहा है। वोट की राजनीति कर रहे हैं, इसलिए दंगे-फ़साद करवा रहे हैं। नेता जातिवाद के नाम पर ज़हर फैला रहे हैं, जिससे समाज मे हिंसा फैल रही है और दंगे-फ़साद हो रहे हैं।
मोनिका देवी- अंत में आप अपने पाठकों को क्या संदेश देना चाहेगी?
नमिता सिंह- कोई भी साहित्यकार बिना मनोविज्ञान के साहित्य की रचना नहीं कर सकता। मनुष्य के हाव-भाव मनोविज्ञान संचालित करता है। सूक्ष्म मनोविज्ञान के बिना रचनाकर्म निर्जीव होगा। पाठकों को ध्यान में रखकर ही लेखक रचना लिखता है ताकि पाठकों का सीधा-संबंध लेखक के साथ हो। पाठक रचना को अच्छे से पढ़ें व समझें, तभी समाज का कल्याण होगा।
साक्षात्कारकर्ता:
डॉ. मोनिका देवी
मुजफ्फ़रनगर (उ.प्र.)
– डॉ. नमिता सिंह