पुस्तक समीक्षा
‘सुभाषितसुधाबिन्दु:’ नैतिकता का पाठ पढ़ाती कविताएँ
‘नयति इति नीति’ अथवा नीयते अनया विश्वमिदं सम्यक्तया’ इन दो व्यावहारिक परिभाषाओं के अनुसार नी धातु से क्तिन् प्रत्यय करने से नीति शब्द बनता है, जो सामान्यत: सम्यक् लोक व्यवक़्हार का वाचक होता है इससे यह पता चलता है कि हमारी परम्परा में नीति शब्द प्रत्येक स्तर पर अच्छे व्यवहार का वाचक है । भारतीय परम्परा में धर्म, अर्थ, काम के अनुसार जीवन की उत्कृष्टता निर्धारित हुई है । इसी बात को महाकवि भारवि ने अपने किरातार्जुनीयम् (1/11) महाकाव्य में कहा है-
न बाधतेऽस्य त्रिगुण: परस्परम् ।
इसका आशय है कि मनुष्य जीवन के उपयोगी धर्म, अर्थ और काम इस प्रकार नियोजित होने चाहिए जिससे एक दूसरे को बाधित न करें । यह तीनों यदि सम्यक् रीति से परिचालित होंगे तो चतुर्थ चरण में सहज मोक्ष-प्रवृत्ति स्वाभाविक है।
प्रो.रवीन्द्र कुमार पण्डा का जन्म उड़ीसा राज्य के मिर्जापुर, हाटसाहि, याजपुर में 10 जनवरी 1963 ई. हो हुआ । इनके पिता का नाम श्री गदाधर पण्डा और माता का नाम श्रीमती रेवती पण्डा है । सम्प्रति आप एम.एस. विश्वविद्यालय बडोदरा (गुजरात) में संस्कृत विभागाध्यक्ष के पद को अलंकृत कर रहे हैं ।
‘सुभाषितसुधाबिन्दु:’, वनवल्ली, प्रतिध्वनि, उर्वी, नीरवझर, शतदलम्, अनुकूललहरी, कार्गिलम्, चक्रवात् (संस्कृत काव्य), श्रीसयाजिगौरवं महाकाव्यम्, (महाकाव्य), यत्रास्ति ममता तत्रास्ति मे मन: (संस्मरणम्), कृशोदरी (लघुकाव्यसंग्रह), मलालाचरितम् (बालकाव्य), छिन्नच्छाया (संस्कृतलघुकथासंग्रह),
आज के समाज की वास्तविकता को दिखाते हुए प्रो.पण्डा लिखते हैं कि-आज धन ही सब कुछ है इसके बिना समाज में आज कोई इज्जत सम्मान नहीं हैं ।
मूर्खेषु पूज्यते मूर्ख: पण्डितेषु च पण्डित: ।
जन्तुषु पूज्यते सिंहो नेता सर्वत्र पूज्यते ॥10॥
प्रो.रवीन्द्र कुमार पण्डा कहते हैं कि हम धन के द्वारा वस्त्र, आभूषण इत्यादि खरीद सकते हैं किसी का प्रेम नहीं । किसी का दिल जीतने के लिए हमारी वाणी ही काफी है । धन नहीं ।
धनेन शक्यते क्रेतुं वस्त्राणि भूषणानि च ।
कस्य न हृदयं क्रेतुं धनेन शक्यते सखे ॥17॥
कन्या भ्रूण हत्या करने वालों को शिक्षा देते हुए प्रो.पण्डा कहते हैं कि पुत्र और पुत्री में कोई अन्तर नहीं होता है । आज समाज से इस लैगिक भिन्नता को मिटाने की आवश्यकता है ।
पुत्रीं विना गृहं शून्यं काननं चन्दनं विना ।
भावं विना मन: शून्यं निशा चन्द्रमसं विना ॥19॥
अपनी शिक्षा के झूठे गर्व में डूबे हुए लोगों के विषय में कवि कहता है कि –
दुष्टानां दृदयं जेतुं न शक्त: कोऽपि भूतले ।
यतस्तेषां शरीरेषु विद्यतेऽज्ञानराक्षस: ॥21॥
कवि कहता है कि जो व्यक्ति अपने माता-पिता का आदर न कर, मन्दिर-मस्जिद के चक्कर लगाता है वह मूर्ख है । असली भगवान तो हमारे माता-पिता हैं । जिन्होंने हमको जन्म दिया है ।
माता देवी गृहं तीर्थं पिता देवो महेश्वर: ।
कथं धावति रे मूर्ख! मन्दिराणि निरन्तरम् ।।25॥
श्रम के महत्त्व को बतलाते हुए कवि कहता है कि सभी व्यक्तियों को परिश्रम करना चाहिए । श्रम के द्वारा ही हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं ।
श्रमं विना न वै शान्ति: श्रमं विना न वा सुखम् ।
श्रमं विना न वै वित्तं श्रमं विना न वा यश: ॥48॥
कवि लोगों से कहता है कि जिस यौवन, धन, बल की हम प्रशंसा करते हैं, वह कुछ भी तो स्थाई नहीं है । तो फिर हम घमंड किस बात का करते हैं ।
यौवनमस्थिरं लोके वित्तमस्थिरमेव च ।
अस्थिरा: सन्ति वै प्राणा: संसारे सर्वमस्थिरम् ॥53॥
प्रो.रवीन्द्र कुमार पण्डा लिखते हैं कि- दुनिया उसी की प्रशंसा करती है जो अहंकार शून्य है । अहंकारी व्यक्ति को समाज नहीं पूछता है ।
अहङ्कारं परित्यज्य पश्य विश्वं सनातनम् ।
सर्वेऽत्र सुहृद: सन्ति सर्वेऽस्माकं हितैषिण: ॥74।।
कवि कहता है कि इस संसार में उसी का जीवन सफल है इसका पारिवारिक जीवन सुखमय है । वरना बहुत धन, बल ऐश्वर्य कमाने के बाद भी अगर घर में कलह मची हुई है तो इस दिखावटी धन इत्यादि का कोई मतलब नहीं ।
यस्यास्ति सुशीला पत्नी तथा च गुणवान् सुत: ।
पुनश्च विपुलं वित्तं तस्यैव जन्म सार्थकम् ॥83॥
यस्मिन् गृहे पतिप्रेम्णा पत्नी चास्ति विमोहिता ।
तत्र विराजते लक्ष्मीस्तद् गृहं तीर्थमुच्यते ॥94।।
उपर्युक्त विवेचन के आलोक में कहा सकता है कि इस काव्य में वर्णित नीति वचनों का सम्यक् प्रयोग करके हम अपने राष्ट्र व समाज के साथ-ही-साथ समग्र विश्व का उत्कृष्ट कल्याण कर सकते हैं । इस काव्य की भाषा बहुत ही सरस तथा सरल है । दीर्घ समासयुक्त पदों का सर्वथा अभाव है । कवि की छन्द प्रयोग में सम्यक् गति है । सब मिलाकर यह एक पठनीय काव्य है । इस नई रचना के लिए लेखक को अशेष मंगलकामनाएं।
समीक्षक-डॉ. अरुण कुमार निषाद
कृति -‘सुभाषितसुधाबिन्दु:’
कृतिकार – प्रो.रवीन्द्र कुमार पण्डा
प्रकाशक –अर्वाचीनसंस्कृतसाहित्यपरिषद्, बडौदा ।
प्रथम संस्करण-2013
मूल्य-75 रू.
– डॉ. अरुण कुमार निषाद