उभरते-स्वर
सुनो स्त्री
सुनो स्त्री!
क्यूँ हो ऐसे मुझसे रूठी
मैं और तुम
तुम और मैं
हैं इक-दूजे की ही परछाई
फिर क्यूँ छाई है
मन पर तुम्हारे
ये इतनी गहरी काई
जननी!
सृजना!
अधिष्ठात्री!
जाने कितने रूपों में
इस जगत में हैं आईं
पुरुष को दे जन्म, बनी जननी
बाँधे रक्षासूत्र, बहन बनी
तुम्हारे आशीर्वाद से ही
उसकी दुनिया है सजी
हस्तमिलाप कर, जब तुम संगिनी बनी
स्वयं पूर्ण हो, उसकी सम्पूर्णा, तुम बनी
पग-पग पर वो है आधा
तुम बिन पार नहीं होती
उसकी कोई भी बाधा
जानती हो तुम
जानती हो सबकुछ
पर मानती नहीं
क्यूँ?
सदियों से तुम हो, खेवैया जीवन नैया की
तुम बिन अधूरी है, लीला कृष्ण-कन्हैया की
शिव और शक्ति
शक्ति और शिव
दोनों के हाथों में टिका है ये विश्व
सुनो स्त्री!
तुम हो नारी
हाँ नारी, जो है सब पर भारी
सीता-दुर्गा, रानी लक्ष्मी,
पद्मिनी और हाड़ी की तुम हो वंशज
पड़ी हो क्यूँकर बन तुम अबला
सोचूँ तो हो होता है अचरज
जागो!! जागो अब हे, स्त्री जागो!!
स्वयं से ही न तुम अब भागो
देखो!
वह सूरज तुम्हें बुला रहा है।
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बसन्त
बसन्त
अहा! फिर आ गए तुम
सारे जग पर छा गए तुम
महक उठी हर फ़ूल और कली
महकी है हर मन की गली
चहक-चहक कर कोयल गाये
उड़-उड़ झूमे डाली-डाली
सूर्यदेव जब आये उत्तरायण
खिलने लगे सारे अभ्यारण
पाकर उजली-उजली किरणें
हुई सुनहरी हिम की परतें
चारों ओर सब नव ही नव है
देख बसन्त का ऐसा रूप
हरषाया हर तन और मन है
प्रेम-पुष्प चहूँ ओर खिले हैं
मंगल गान घर-घर गूँजे हैं
माँ सरस्वती का हुआ अवतरण
ज्ञानमय हुआ सारा वातावरण
माँ शारदे ज्ञान यही दे
प्रकृति का रक्षण करें हम
इसकी रीति के संग चलें हम
कष्ट इसे न कोई होने दें
पाकर माँ के आशीर्वचन
करें जीवन में नवकीर्तन
– अरुणा शर्मा