मूल्यांकन
‘सुनो मनोरमा’ हृदय की भावपूर्ण अनुभूतियों का वह अनुवाद है
– अनिल कुमार झा
‘सुनो मनोरमा’ डॉ. अजित की सद्य प्रकाशित वह पुस्तक है, जिसे आप चाहे जहाँ से पढ़ें पाठकीय आस्वाद, आनंद में कोई अवरोध पैदा नहीं होगा। इसकी विधा क्या है, जैसे प्रश्नों के उत्तर तलाशने का काम, साहित्य-रीति की विद्वत चर्चा में उलझना हम पाठकों का हस्तगत फल का आस्वाद लेने की अपेक्षा उस पेड़ को तलाशने जैसा होगा, जहाँ से उसे तोड़ा, लाया गया इसीलिए विधा-निर्धारण की चर्चा में उलझने से बढ़िया यह स्वीकारना श्रेयष्कर लगता है कि कहूँ, पुस्तक मुझे अच्छी लगी, आपको भी लगेगी, पढ़िये तो सही।
वास्तव में ‘सुनो मनोरमा’ हृदय की भावपूर्ण अनुभूतियों का वह अनुवाद है, जिसे लेखक ने स्वयं होगा, उसे संवेदना की पलकों पर सहेजा, जोड़ा, दुलराया, सहलाया और उससे पाए हँसी-खुशी, दुख-सुख, ठेस-टीस को हमारे साथ बाँटा। चूंकि वर्णित स्थितियाँ स्मृति के गह्वर से दिल के रास्ते अनुभवों की यात्रा कर रही है इसलिए किसी किस्सागोई तारतम्यता का अभाव पाठक महसूस कर सकते हैं, लेकिन यही अनुभव तो इसका सौन्दर्य है, वैसे लेखक ने ख़ुद भी माना है कि “सुनो मनोरमा, चूंकि एक अनियोजित प्रयास था इसलिए यह बात इसके गुण और दोष दोनों के पक्ष में समान रूप से खड़ी हुई है।” (पृ०-8)
भले ही डॉ. अजित ने इसे एक अनियोजित प्रयास घोषित किया हो लेकिन संवेदना से गहरे जुड़े होने के कारण नियोजित भी है और उल्लेख्य भी। इस सौन्दर्य की अनुभूति उस, भावक, पाठक को सहज ही होगी, जिसने जीवन में प्रेम और कर्तव्य की रस्साकसी, मन और शरीर के द्वन्द्व को झेला-भोगा हो। प्रेम का होना, प्रेम में होना और उस प्रेम से अनुप्राणित हो; सांसारिकता का निर्वाह तो सामान्य कार्य है, जिसे औसतन हर प्राणी पूरा कर ही लेता है लेकिन प्रेम को गहरे महसूस कर उसे सजग शिल्पी की तरह चित्रात्मक अभिव्यक्ति डॉ. अजित जैसे समर्थ शब्द शिल्पी ही दे सकते हैं। वैसे छिपना और छिपाना प्रेम का वह अनिवार्य घटक है, जो सिद्धांत से अधिक व्यवहार का पक्ष लेता है क्योंकि सिद्धांत सूत्र व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व पर, गुण दोषों पर आश्रित हैं। वैसे इस पुस्तक में उस कारण को तलाशने के सूत्र भी मिलेंगे, जो इसकी अस्वीकृति के दंश से उपजे त्रास को संकेतित कर सर्व से पर की यात्रा पर ख़ुद भी निकलता है और पाठकों को भी सहजता से सहयात्री बना लेता है। हमसफ़र, हमराज़ बनाने की यह विशेषता ही विशेष है।
पूरा वर्णन मनोरमा के साथ बिताए क्षण का एक संस्मरण है, जो अनुभूतियों को अनूदित कर प्रेषित बिन पते की पाती की तरह भटकता हुआ पाठकों तक पहुँचता है, जिसके सभी शब्द बोलते हैं, जीवित हैं। शब्दों का गांभीर्य ध्वनि तो पैदा करता ही है, एक चित्र भी उकेरता है ऐसा लगता है कि लेखक अपनी मनोरमा के साथ निविड़ एकांत में बैठा हो और ख़ुद को निचोड़ कर उसे सुना रहा हो।
यहाँ ध्यातव्य है कि लेखक ने सुनाया है, कहा नहीं है।
यदि कहा होता तो इसमें कहानीपन होता और वैसी स्थिति में यह बेहद सशक्त मनोवैज्ञानिक कहानी बनी होती जिसमें प्रेमी के मन में उठने वाले प्रश्नों मनोभावों, क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं का एक भरा पूरा, संसार होता और कतिपय ग्रंथियों को खोलता लेखकीय हस्तक्षेप भी, किंतु यहाँ तो लेखक एक पात्र है, जो आप भी हैं, मैं भी हूँ, वह भी है, इसीलिए तो इसे कहानी कहने से परहेज़ किया गया। इसका एक कारण यह भी है कि कहने में वाचन की तो गारंटी है लेकिन अनसुना रह जाने का ख़तरा भी है जबकि सुनाने में कहे को सुने जाने की आश्वस्ति है, जिसे ये ख़ुद भी कहते हैं, “जब मैं कहता हूँ सुनो मनोरमा! इसका एक अर्थ यह भी होता है कि मैं कुछ कहना चाहता हूँ मगर मैं कहने से अधिक सुनाना चाहता हूँ। क्या कहना और सुनाना दो अलग बातें हो सकती हैं? इस पर ध्वनि विज्ञानी भले ही सहमत नहीं हों मगर मेरा मन इस पर सहमत है कि दोनों अलग-अलग बातें हैं।” (पृ०-11)
यहाँ यह भी गौर किया जाना चाहिए कि लेखक मनोरमा को सुना रहे हैं। यह कोई और भी हो सकती थी मगर नहीं, मन रमा मनोरम मनोरमा में तो मन खुला और ऐसा खुला कि लेखक रम गये। स्मृतियों में बसी इस मनोरमा के आगे अपने मन को उधेड़ कर, रस-रस-गाड़कर-नीरस करने की सीमा तक कहती बातें अनंत विस्तार पाती हैं, जिसमें प्रेम-स्वीकृति-अस्वीकृति-विच्छेद-सम्पादन-विभाजन-व्यथा तिरती नज़र आती है और ऐसा कुछ मनोरमा के सामने ही खुला हो सकता है यह कहते हुए कि ‘सुनो मनोरमा!’
अनियोजित होकर भी यह व्यवस्थित है, चुम्बक के हर टुकड़े-सा पूर्ण। शायद इसलिए भी कि यादों की एक विशेषता है कि यह तिथि वार, क्रम वार नहीं होती अपितु ख़ुद समयानुसार सामंजित होती अपना क्रम स्वयं निर्धारित करती हैं। घटना, परिस्थिति, समय सापेक्ष होना ही यादों का आयोजन है। इसलिए तो यादों को देते ये शब्द व्यवस्थित हैं, नियोजित हैं। चूंकि यादों का श्रोत और आगमन प्रकृति और प्रवृत्ति पर आश्रित हैं इसलिए इनका गड्डमगड्ड होकर भी अलग-अलग होना इसकी विशेषता है और यह एक बड़ा कारण है कि पढ़ते हुए पाठकों को एक बदलाव महसूस होता है। जिससे प्रभाव छीजता नहीं, बढ़ता है, चमकता-दमकता है। ऐसे में लेखक चाहकर इसे कृत्रिम करने का ख़तरा क्यों उठाए! इस तरह सहज स्वाभाविक रखकर ही इसे प्रवाहमान रखा गया ताकि रोचकता बनी रही।
पुस्तक की प्रस्तुति आकर्षक है। लेखकीय आग्रह मनोरमा को सुनाने का, उसे सुनाते हुए हमारी-आपकी बातें कह जाने का जो अंदाज है, वह सुन्दर है। हर चर्चा ‘सुनो मनोरमा’ से आरंभ कर एक सूत्र पाठकों के सामने रखा जाता है, जैसे लेखक इस प्रकरण में विषय विशेष चुन रहा हो, जैसे कक्षा के आरंभ में शिक्षक विषय रख रहा हो, जिसका पल्लवन अगले पैंतालीस मिनटों में (पूरी घंटी) होना हो, दूसरे यह अनौपचारिक संबोधन पाठकीय तैयारी का लेखकीय तरीका भी है कि पाठक अपनी धारणा तदनुकूल तैयार कर लें, कुछ उदाहरण देखें-
सुनो मनोरमा! परसों मैं घर से अचानक निकल गया—कहीं के लिए निकल गया–। (पृ०-13)
सुनो मनोरमा! ज़रूरी नहीं कि वही बात तुम्हारी हो, जिसमें तुम्हारे नाम का जिक्र हो (पृ०-16)
सुनो मनोरमा! कुछ फूल तुम्हारे लिए लाया था (पृ०-18)
सुनो मनोरमा! कल तुम्हारी चिट्ठी मिली! मैंने चिट्ठी को नीचे से पढ़ना शुरु किया (पृ०-20)
सुनो मनोरमा! एक पुकार अपना रास्ता भटक गयी है। मैं उसे देख सकता हूँ मगर जानते हुए भी उसे सही रास्ता नहीं बता सकता हूँ (पृ०-30)
सुनो मनोरमा! तुम प्रशंसा के रास्ते आई और आलोचना के रास्ते चली भी गयी (पृ०34)
सुनो मनोरमा! स्मृतियों की प्रतिलिपियाँ एकत्रित कर रहा हूँ (पृ०-42)
ऊपर के उद्धरणों से स्पष्ट है कि लेखक को मनोरमा को अपनी बातें सुनानी है और वह सुनो मनोरमा कहकर उसे सुनाने को तैयार कर रहा है। यहाँ देखा जाय तो स्वयं को प्रस्तुत पर्यटक कर अपने दुख, पीड़ा, हर्ष, विषाद की चर्चा कर उन यादों की व्याप्ति का जो संकेत लेखक दे रहा है, वह बिना रुकावट पाठकों तक पहुँच भी रहा है।
जीवन के कटु, मधु अनुभवों की सुन्दर प्रस्तुति, अपनी संवेदना को पाठकीय संवेदना के द्रव में घोलने का यह लेखकीय कौशल अप्रतिम है। इतना ही नहीं अपना सुनाने के क्रम में जीवन के उलझनों की गाँठें भी इन्होंने बड़ी सफाई से खोली हैं और श्रेय मनोरमा को देते हुए कहते हैं, “यदि तुम न मिली होती तो क्या मैं इस तरह असंगत बातों को एक श्रृंखला में कह पाता? शायद नहीं (पृ०-52)। यहाँ स्पष्ट होता है कि लेखकीय प्रतिबद्धता मन को खोलना है, श्रृंखला में, एक एक कर। इसीलिए तो यह एक नियोजित प्रयास भी है, जिसमें लेखक को पूरी सफलता मिली है।
यूँ तो पूरी पुस्तक स्मृतियों का वह पिटारा है, जिससे अनुभव धीरे-धीरे ससर-ससर कर बाहर आता है लेकिन कुछ कठोर सत्य की ललित प्रस्तुति लेखकीय क्षमता की मजबूत स्थापना का प्रमाण बनकर आकर्षित करती है। जरा आप भी देखें–“सबसे गहरी चोटें छिपा कर रखने के लिए शापित होती हैं। सबसे गहरे मलाल उन्हीं से जुड़े होते हैं, जो दिल के बेहद करीब होते हैं। सबसे ज्यादा आहत वही बातें करती हैं जो कड़वेपन और स्पष्ट होने में फर्क नहीं कर पातीं।”(पृ०89) और फिर यह घोषणा “तुम्हारी सुखद स्मृतियाँ मेरे लिए स्थाई पूंजी है, जिनका ब्याज मैं सावधि जमा की तरह था, उम्र भर खाता रहूँगा। (पृ०-110) तात्पर्य सिर्फ यह कि अनुभवों को प्रस्तुत करने की यह भाषाई क्षमता अद्वितीय है।
अपने प्रांजल प्रवाह में भाषा की मर्यादा के प्रति भी लेखक गंभीर और सजग हैं। ऐसे कतिपय उद्धरण हैं, जहाँ लेखक की भाषा एक विशेष अंदाज में प्रवाहित हुई है और उसे सफलता से निभाया भी गया है।
स्मृतियों के संयोजन, सूत्रों की स्थापना, शैली के विकास और भाषा के सामर्थ्य से अंटी भरी इस पुस्तक का हर भाग, प्रभाग उद्धरणीय है। एक अच्छे, रंजक लेखन के लिए लेखक को अशेष शुभकामना। पाठकों से समादृत होगी, यह विश्वास है।
पुस्तक यहाँ से मँगवायी जा सकती है-
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समीक्ष्य पुस्तक- सुनो मनोरमा
रचनाकार- डॉ. अजीत
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन
– अनिल कुमार झा