ख़ास मुलाक़ात
साहित्यिक शोध विषय पर डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’ का डाॅ. रामकृष्ण शर्मा के साथ एक संवाद
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- डाॅ. रामकृष्ण शर्मा जी, आपको सादर नमस्कार! आप विद्यार्थी जीवन से ही साहित्य सृजन में रत है, आपके रचना संसार और सृजन प्रेरणा के संबंध में हमें बताएँ?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- मुझे साहित्य-सृजन की प्रेरणा मूल रूप से प्रकृति के सुरम्य एवं भयावह, दोनों प्रकार के रूपों से मिली। मेरे मूल ग्राम सुहारी (भुसावर) से थोड़ी दूरी पर ही हाथौड़ी के सघन, ऊबड़-खाबड़, ऊँचे-नीचे भयावह तथा मनोरम जंगल हैं। मैं लगभग आठ-नौ वर्ष की आयु से ही इन जंगलों में अन्य ग्वालों के साथ अपनी गाय चराने जाता था। वहाँ ऊँचे-नीचे पर्वत, नदी-नाले, झाडि़याँ, गुफाएँ, जंगली जानवर आदि मुझे अनायास ही भावुक बना देते थे। मैं घंटों तक इनको देखता रहता था – कभी कांपता, कभी पुलकित होता और कभी-कभी गहन बालसुलभ चिन्तन में डूब जाता था। सन् 1946 के आसपास मैं छायावादी स्वप्लिनलता के संसार में मग्न रहने लगा। लगभग उसी कालांश में लिखी कुछ पंक्तियाँ देखियेः-
अनेकों भाँति-भाँति के खेल, खेलते कण-कण में अभिराम।
बसाये बैठे हैं ये कौंन, मनोरम अपने-अपने धाम?
खिंचा जाता हूँ सबके साथ, सभी से मुझको है कुछ प्यार।
दिखाई देता कण-कण मध्य, एक अपनत्व भरा संसार।।
सन् 1946 से 1953 तक 120 कविताओं का एक संग्रह ’’काव्य-कुसुमांजलि’’ तैयार कर लिया था। उस समय प्रसिद्ध साहित्यकार डाॅ. रांगेय राघव वैर में रहते थे। भुसावर निवासी श्री रमेश आचार्य डाॅ. रांगेय राघव के परम मित्र थे। उनकी सहायता से यह संग्रह डाॅ. रांगेयराघव को दिखाया। वे बहुत उदार तथा सहृदय साहित्यकार थे। उन्होंने मुझे कुछ और अच्छा लिखने के लिये प्रोत्साहित किया। सन् 1953 में मैं भरतपुर के एम.एस.जे. महाविद्यालय में प्रथम वर्ष में आ गया तथा श्री हिन्दी साहित्य समिति भरतपुर के सम्पर्क में आया। काव्य-गोष्ठियों तथा कवि-सम्मेलनों में भाग लेने लगा। इस तरह सृजन की गति बढ़ती गई।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- आपकी अध्यापन सेवा कब और कहाँ रही?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- मैं सर्वप्रथम व्याख्याता अंग्रेजी पोद्दार कालेज नवलगढ़ में रहा। तत्पश्चात 8 वर्ष विद्यालयी शिक्षा में अंग्रेजी का व्याख्याता रहा। 1967 से महाविद्याल शिक्षा में व्याख्याता हिन्दी के रूप में नियुक्त हुआ। गव. काॅलेज झालावाड़, बाँगड़ काॅलेज डीड़वाना 1-1 सत्र रहा। सन् 1969 से अक्टूबर 1994 तक महारानी श्री जया महाविद्यालय भरतपुर में रहा। वहीं से विभागाध्यक्ष हिन्दी के रूप में अक्टूबर 1994 में से.नि. हुआ।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- आपने अपने सेवा काल में कितने शोध करवाए? उनसे सम्बंधित आपके अनुभव क्या रहे?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- मैंने अपने सेवाकाल में शताधिक शोध करवाये हैं। इनमें सर्वाधिक ब्रजभाषा के प्राचीन कवियों तथा रस सिद्धान्त पर हैं। डाॅ. रामानन्द तिवारी ’भारती नंदन’ पर छः शोधार्थियों को पीएच.डी. कराई। रस सिद्धान्त के पुनर्विवेचन पर भी पर्याप्त शोध कार्य कराया। शोध कार्य मात्र ’एक अध्ययन’ नहीं होना चाहिए। उसमें वस्तुतः ’शोध’ होनी चाहिए। मेरे निर्देशन में किये अधिकांश शोधग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं तथा सन्दर्भ ग्रन्थ बन गये हैं।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- आपके द्वारा रचित साहित्य पर हुए शोध कार्यों के बारे में हमें बताएँ?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- मेरे रचित साहित्य पर लगभग 40 शोधार्थियों को एम.फिल. एवं पीएच.डी. की उपाधियाँ मिल चुकी हैं। अभी हाल में जोधपुर विश्वविद्यालय से शिवकुमार सेन (भरतपुर निवासी) को ’’महाकवि डाॅ. रामकृष्ण शर्मा के महाकाव्यों में चेतना के स्वर’ विषय पर पीएच.डी. मिली है। डाॅ. अम्बेड़कर विश्वविद्यालय आगरा से भी कई शोधार्थियों को पीएच.डी. मिली हैं।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- शोध विषय के चयन में शोधार्थियों को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- शोधकार्य में शोध विषय का चयन प्रथम किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोपान होता है। इसमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:-
(1) शोधार्थी की रुचि (2) शोधार्थी की पृष्ठभूमि (3) कम से कम 2 वर्षों तक शोध कार्य करने हेतु विषयवस्तु हो (4) वस्तुतः शोध कार्य मात्र एक अध्ययन तक सीमित न रह जाए। (5) शोध कार्य का वस्तुतः महत्व व योगदान असंदिग्ध हो। (6) शोध कार्य को प्रकाशक प्रकाशन के योग्य मान लें। (7) ग्रन्थ प्रकाशित होने के पश्चात् सन्दर्भ ग्रन्थ बन सके।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- साहित्य में शोध की प्रमाणिकता के मापदण्ड आपके अनुसार क्या होने चाहिए?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- साहित्य में शोध की प्रामाणिकता के निम्नलिखित मापदण्ड हो सकते हैं-
(1) उसी विषय पर पहले से किसी ने शोध कार्य तो नहीं कर लिया है।
(2) शोध कार्य में सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची दिखावटी तो नहीं है।
(3) शोधकार्य में आवश्यकता से अधिक उद्धरण ही उद्धरण तो नहीं भर दिये हैं। वांछित एवं अपेक्षित मौलिक विवेचन है या नहीं।
(4) शोधकार्य प्रकाशित होने योग्य है अथवा नहीं।
(5) शोधकार्य प्रकाशित होने के पश्चात सन्दर्भ ग्रन्थ बन सकेगा अथवा नहीं।
(6) शोधार्थी ने शोध प्रक्रिया के सभी मानकों का पालन किया है अथवा नहीं।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- आपके समय में और 21वीं सदी के शोध में तुलना की दृष्टि से आप क्या समानता और अन्तर पाते हैं?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- भारी अन्तर आया है। अब शोधार्थी को बहुत तंग किया जाता है। यहां तक सूचना मिली है कि उसका आर्थिक शोषण भी किया जाता है। मेरे समय में शोधार्थी से एक पैसा भी लेना अधर्म समझते थे। उससे परिश्रम अवश्य कराया जाता था। शोध निर्देशक के रूप में मैं तो हर अध्याय को बारीकी से पढ़ता था, उसमें शुद्धिकरण करता था। पूरा समय देता था। मौखिकी की तैयारी कराता था। बाहरी परीक्षकों के आठ नाम शोध विषय को ध्यान में रखते हुए देता था। उस समय में और आज के समय में कोई समानता नहीं। पहले यह सारस्वत अनुष्ठान था, अब उतनी पावनता नहीं, अपवाद हो सकते हैं।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- 21वीं सदी में शोध की दिशा व दशा के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- देखिये, परिवर्तन सृष्टि का अपरिहार्य अंग है। इस चक्र को कोई रोक नहीं सकता। इसके साथ अनुकूलन करना चाहिए। परिस्थितियां बदली हैं, दृष्टि बदली है तथा जीवन मूल्यों में भारी बदलाव आया है। अब शोध की दिशा भी बदलना सुनिश्चित है। शाश्वत मूल्यों की रक्षा तो होनी ही चाहिए। साथ ही वैश्विक दृष्टिकोण भी ध्यान में रहना चाहिए। दलित विमर्श, नारी विमर्श, वृद्ध विमर्श जैसे नये सरोकार उभरे हैं। विज्ञान की उपेक्षा नहीं कर सकते। परम्परा एवं प्रगति में सामंजस्य पैदा करने की खुली चुनौती है। भौतिकता आध्यात्मिकता पर हावी है। नास्तिकता आस्तिकता पर हाबी है। अनुकूलन कैसे हो यह शोध की नई दिशा है।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- अपने शोध कार्य के दौरान मैंने यह महसूस किया कि हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा में जो साहित्यकार नहीं जुड़ पाते उन पर किये जा रहे शोध कार्यों को वर्तमान में कतिपय विद्वान हेेय दृष्टि से देखते हैं, राती कारण प्रमुख कणियों पर और विमर्शोंं पर निरंतर शोध कार्यों की पुनरावृत्ति हो रही है तो क्या अज्ञात सहित्य को प्रकाश में लाना उसका समीक्षात्मक अन्वेषण करना शोध कार्य नहीं है?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- बहुत बड़ी विडम्बना है। अज्ञात साहित्य को प्रकाश में लाना तथा उसका समीक्षात्मक अन्वेषण करना ही तो वास्तविक शोध है। यही तो दुर्भाग्य की तथा आक्रोश पैदा करने वाली बात है कि इसे हेय दृष्टि से देखा जा रहा है। पारस्परिक गठजोड़ से एक दूसरे पर शोध कार्य (तथाकथित) कराना तथा पारस्परिक प्रशंसा, पुरस्कारों में सैटिंग – ये घोर निन्दनीय प्रवृतियाँ हैं। पत्रिकाएं भी इस प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हैं। शोध कार्य के लिए निष्पक्षता एवं निर्भीकता बहुत आवश्यक है। साहित्यिक सारस्वत अनुष्ठानों में भी सैटिंग चले, यह निन्दनीय है।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- मेरे विचार से वर्तमान समय में कट-पेस्ट काॅपी की तकनीकी ने शोध की मौलिकता को खण्डित किया है तो शोध की मौलिकता को बनाये रखने के अन्य उपाय किये जा सकते हैं।
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- निश्चित रूप से। मौलिकता तो शोध की प्रथम शर्त है। शोध का योगदान सुनिश्चित एवं दीर्घगामी होना चाहिये। सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची प्रामाणिक हो, उद्धरण प्रामाणिक एवं आवश्यकतानुसार ही हों। शोध निर्देशक इसीलिए तो होता है।
डाॅ. सीता शर्मा ’शीताभ’- विडम्बना यह है कि जिन महाविद्यालयों में स्नातकोत्तर विभाग ही नहीं हैं जबकि वहाँ कार्यरत शिक्षक यू.जी.सी. निर्धारित पूर्ण योग्यता रखते हैं, कई वर्ष का अध्यापन अनुभव भी रखते हैं किन्तु अब तक वे शोध निर्देशक नहीं बन सकते थे क्योंकि अब तक स्नातकोत्तर अध्यापन अनुभव अनिवार्य था। राजस्थान विश्वविद्यालय में एक प्रस्ताव प्रारित हुआ है कि स्नातक शिक्षक भी शोध करवा सकेंगे। इस बारे आप क्या कहना चाहेंगे?
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा- मेरी दृष्टि में यह कदम उचित है। पीएच.डी. का निर्देशन करने हेतु यह आवश्यक नहीं कि स्नातकोत्तर कक्षाएँ पढ़ायी हों, यदि स्वयं शिक्षक ने शोध कार्य कर रखा है और स्नातक अध्यापन अनुभव है, शोध दृष्टि है तथा रूचि भी है, श्रम का मानस है तो उस स्थिति में, ऐसे प्राध्यापक भी निर्देशन करने में सक्षम हैं।
डाॅ. रामकृष्ण शर्मा
डी.लिट्.
पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी,
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
भरतपुर (राजस्थान)
साहित्यिक परिचय –
1. महाकाव्य – (1) गुरूनानक (महामहिम डाॅ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा पुरस्कृत) (2) भगवान महावीर (3) महाराज अग्रेसन (अन्तर्राष्ट्रीय लायब्रेरी कांग्रेस वाशिंगटन द्वारा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में चयनित, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत) (4) भगवान परशुराम (5) भगवान चित्रगुप्त (6) हज़रत मुहम्मद (सल्ला.) (7) महाप्रभु ईसा (8) महाराजा सूरजमल (9) महर्षि दयानन्द (10) प्रजापिता ब्रह्मा (11) स्वामी विवेकानन्द
2. खण्ड काव्य – (1) अजेय प्रताप (2) मानवता के मसीहा डाॅ. अम्बेड़कर (3) महामानव (4) महामानवी
3. ब्रजभाषा के ग्रन्थ – (1) भारत-गाथा (2) ग्राम-गाथा (3) भारत सतसई महाकवि सोमनाथ पुरस्कार (राज. ब्रजभाषा अकादमी, जयपुर द्वारा)
4. उपन्यास – (1) काहे कौ झगरौ (2) घाट-घाट कौ पानी
5. नाटक – सूरदास
6. व्यंग्य कथा साहित्य – प्रजातंत्र का असली चेहरा
7. आध्यात्मिक ग्रन्थ – (1) मनोहर चालीसा (2) भगवान क्षेत्रपाल
8. शोधग्रन्थ – (1) भारतीनन्दन-व्यक्त्त्वि और कृतित्व, (2) हिन्दी महाकाव्यों में धर्म
शताधिक ग्रन्थों का सम्पादन एवं समीक्षाएँ
– डॉ. रामकृष्ण शर्मा