‘साहित्यकार’ बनना अब दो मिनिट मैगी जैसा है।
‘साहित्यकार’ बनना अब दो मिनिट मैगी जैसा है।
चित्रकार, मूर्तिकार, साहित्यकार या किसी भी कलात्मक कार्य से संबद्ध लोग मूलतः रचनाकार ही होते हैं और किसी भी रचनात्मक व्यक्ति का एकमात्र धर्म सृजन ही है। वह निर्माण में विश्वास रखता है, विध्वंस में नहीं! उसका जन्म नकारात्मकता के सारे भावों को दूर कर समाज में सकारात्मकता और आशावाद के प्रचार-प्रसार के लिए हुआ है। उसका सतत प्रयत्न होता है कि वह ईर्ष्या, द्वेष के विकारों को दूर करे न कि स्वयं ही उसमें लिप्त हो जाए। उसकी आँखों में सृष्टि की सुंदरता का बख़ान और ह्रदय में इसकी कुरूपता को विस्तार देने वाले तत्त्वों को नष्ट कर देने का भाव संचित होता है। उसकी भाषा सभ्य, सुसंस्कृत और सारगर्भित होने की माँग करती है कि लोग उसका अनुसरण करें, उसके जैसा कहने-सुनने में गौरवान्वित हों। उसके लिखे शब्द, उसकी बनाई मूर्ति या किसी चित्र में भरे रंग प्रेरणास्पद हों और लाख निराशा के बाद भी उनमें जीवन के प्रति उल्लास झलकता हो; तो ही इस क्षेत्र से जुड़े लोगों का जीवन सार्थक है। इनका लक्ष्य सामाजिक बुराइयों को दूर करना है, बुराई बनना नहीं! ये अव्यवस्थाओं को इंगित करें, निराकरण के उपाय बताएँ पर स्वयं अव्यवस्था कैसे बन सकते हैं?इन्हें कुरीतियों का प्रचार-प्रसार नहीं बल्कि निवारण करना है।
सोशल वेबसाइट्स पर नफ़रत के बीज बोते सैकड़ों लोग मिल जाएँगे, जिनके यहाँ होने का एकमात्र उद्देश्य दूसरे को नीचा दिखाकर स्वयं आगे बढ़ना है। दुर्भाग्य से ये न केवल आगे बढ़ ही रहे हैं बल्कि सम्मानित भी किये जा रहे हैं। कितने ऐसे नाम हैं जिन्होंने परस्पर गाली-गलौज़ और अभद्र भाषा का प्रयोग कर अपने-अपने मठाधीशों की ‘छावनी’ में स्थान पा लिया है। कुछ आलोचक बन गए हैं और कुछ बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में छपकर चर्चित भी हो चुके हैं। क्या ये मनन करेंगे कि इस लक्ष्य तक पहुँचने की सम्पूर्ण प्रक्रिया में इन्होंने लेखक प्रजाति की कितनी छीछालेदर की है? उनके प्रति उपजे सम्मान-भाव को कितना नीचे गिरा दिया है?
स्वार्थ के लिए मित्रता का ढोंग, स्त्रियों के लिए गन्दी सोच, गालियों से लबालब लेखनी थामे तथाकथित ‘लेखक’ जब अपने घर की स्त्रियों को देवी कहकर पुकारते हैं तो उस समय उनके शब्दों से वितृष्णा उत्पन्न होती है। जब इनकी कलम यौन शोषण के विरुद्ध आग उगलती, प्रशंसकों की तालियाँ बटोर रही होती है, उस समय आँखों के समक्ष वो सारे चेहरे घूमने लगते हैं जिनको अश्लील सन्देश भेजकर ये उनके गॉडफादर होने का भरम रखते थे। यद्यपि इस तरह की मानसिकता वाले लोग भले ही मुट्ठी-भर हैं पर उनकी उपस्थिति भीषण सड़ाँध देती है।
साहित्य की भाषा, विषय और चिंतन में भी ‘बोल्डनेस’ जगह बना रही है। कहते हैं, “हम वही खाते हैं, जो परोसा जाता है।” हिन्दी सिनेमा में द्विअर्थी संवाद या गानों के लिए यही तर्क़ दिया जाता रहा है। दर्शक फिल्मकारों पर सामाजिक पतन का दोष मढ़ते हैं और फिल्मकार इसे अपनी मजबूरी और ‘यही चलता है’, कहकर टाल देने का प्रयत्न करते हैं। ठीक यही स्थिति हिन्दी साहित्य की भी होती जा रही है। कुछ भी, कैसी भी, ऊल-जलूल भाषा में लिख देना और फिर उसका छप जाना बेहद प्रचलित हो गया है। ऐसे में भाषा के स्तर से अधिक ध्यान मार्केटिंग पर दिया जाता है। जितना अच्छा प्रचार, उसी के अनुपात में बिक्री तय होती है। साहित्यकार अब व्यापारी होता जा रहा है। पहले वह ये पता लगाता है कि मार्केट में चल क्या रहा है? फिर उसी के हिसाब से सब तय होता है। प्रकाशक और उसके बीच गठबंधन-सा होने लगा है। भाषा, मुखपृष्ठ श्लील हो या अश्लील, इससे किसी को इतना फ़र्क़ नहीं पड़ता, बिकना प्राथमिकता है। बल्कि कुछ लोग तो इसे अपनी आधुनिक सोच का तमगा पहनाने में भी नहीं हिचकते। ‘साहित्यकार’ बनना अब दो मिनिट मैगी जैसा है।
प्रेमचंद जी की ‘ईदगाह’ में जब हामिद, अमीना को चिमटा देते हुए अपराधी-भाव से कहता है, “तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।” तब कैसे हम सबका भावुक मन हामिद को सब कुछ ख़रीदकर देने का हो जाता था। बचपन में पढ़ी उस कहानी के नन्हे हामिद की यह भावना आज तक दूसरों के लिए पहले सोचने को विवश कर देती है। निराला जी की ‘वह तोड़ती पत्थर’ ने हमें मेहनत और लगन से काम करने की प्रेरणा स्कूल के दिनों से ही दी है। सुभद्रा कुमारी चौहान जी की ‘खूब लड़ी मर्दानी’ आज भी नस-नस में देशभक्ति और वीर रस का संचार कर देती है। कहने का तात्पर्य यही है कि साहित्य का हमारे चरित्र और सोच पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। हमारी इच्छा शक्ति, दृढ़ता, देश के लिए मर-मिटने की भावना और आत्म निर्माण में साहित्य गहरी भूमिका निभाता है। अच्छे विचार, अच्छा लेखन ऊर्जा-संचारक और प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में कार्य करते है। कहा ही गया है,”पुस्तक सच्ची मित्र होती है।” ऐसे में यह और भी आवश्यक हो जाता है, कि लिखी जाने वाली भाषा पठनीय व स्तरीय हो। अश्लील साहित्य से व्यक्ति और समाज का उत्थान संभव नहीं, हाँ ये पतन का कारण अवश्य बन सकता है। साहित्य के क्षेत्र में स्वयं को बोल्ड दिखाने को प्रयासरत लेखकों द्वारा अश्लीलता का घालमेल कितना सही और कितना ग़लत है, यह तो भविष्य ही तय करेगा लेकिन इन दिनों वरिष्ठ साहित्यकारों को लेकर जो ऊलजलूल लिखा जा रहा है वह अवश्य ही बेहद दुःखद, निंदनीय एवं चिंतनीय है। यूँ यह भी इतिहास को उखाड़ने और उसमें परिवर्तन लाने की नई-नवेली भौंडी परम्परा और ओछी मानसिकता का हिस्सा ही है जो केवल भीड़ जुटाने में दिलचस्पी रखता है।
प्रश्न यह है कि चाहे किसी भी क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति हों,आख़िर एक-दूसरे को नीचा दिखाकर ये करना क्या चाहते हैं? समाज को क्या देते हैं या स्वयं ही क्या पा लेते हैं? घृणा फैलाएँगे तो इनके पास भी वही पहुँचेगी। आग लगाएँगे तो उसकी चपेट में आकर इनको भी जलना होगा। ज़हर उगलेंगे तो इनकी यही प्रवृत्ति एक दिन इन्हें भी डस लेगी। यूँ भी जो दूसरों को नीचे गिराकर स्वयं ऊपर उठना चाहता है वह सबकी नज़रों में और भी गिर जाता है।
चलते-चलते: माँ तो माँ है ही पर हम सदियों से इस पावन धरती को भी ‘माँ’ कहकर पूजते रहे हैं। इन दोनों के नाम से दिवस भी मनाते आ रहे हैं। अब तक हम इनसे लेते ही आए हैं पर अब इस सबसे आगे बढ़ने का समय आ चुका है। इस धरा के प्रति हमारे भी कुछ कर्त्तव्य हैं कि हम इसकी स्वच्छता बनाए रखें, पर्यावरण-संरक्षण में सहायक सिद्ध हों। अधिक नहीं तो कम-से-कम एक पौधा लगाकर उसे वृक्ष बन फलते-फूलते हुए देखें। वृक्ष, केवल वृक्ष भर ही नहीं होता। यह खाने के लिए फल देता है और तपती दोपहरी में राहगीरों को अपनी छाया तले बिना किसी ना-नुकुर सुस्ताने की मीठी अनुमति भी प्रदान करता है। प्राणवायु का उत्तम स्त्रोत है तो चहचहाते पक्षियों का बसेरा भी। शुष्क, चटकती धरती पर जीवन-संचार है वृक्ष। इसकी रक्षा, हम सबकी रक्षा है। कोशिश करें कि हमारे इस प्रयास से इस धरा के ह्रदय पर जो मनों बोझ रखा है, वह कुछ तो कम हो!
इधर चुनावों में झड़प, हिंसा, बेईमानी हमेशा से चलती आ रही है। अब हत्या भी होने लगी। हम किसे चुन रहे हैं? क्यों चुन रहे हैं? और जब चुन ही लेते हैं तो फ़िर बाद में अपना माथा क्यों ठोकते हैं? अपराधियों को चुनेंगे तो बदले में क्या पाएँगे? यदि हम भ्रष्टाचार और असामाजिक गतिविधियों में लिप्त उम्मीदवारों को वोट देकर उनसे देशसेवा की उम्मीद रख रहे हैं तो यह हमारी ही मूर्खता का परिचायक है। जब तक राजनीति में प्रवेश के लिए निम्नतम शैक्षणिक योग्यता ग्रेजुएशन नहीं रखी जाएगी और उम्मीदवारों का कोई भी आपराधिक रिकॉर्ड न होने को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी तब तक हमें यह सब भोगना ही होगा! शिक्षित और अशिक्षित का भेद समझ पाना भी अब इतना मुश्किल नहीं रहा! शीर्षस्थ नेताओं की ज़ुबाँ ख़ुद ही सारे राज़ खोल देती है। जनता सिर्फ़ शर्मिंदा होना जानती है, दुखी हो सकती है, दशकों से होती आई है।
यह भी देखने में आ रहा है कि राजनीतिज्ञों के भाव ज़बरदस्त उछाल पर हैं। यदि बिकना ही है तो IPL में पसीना बहाकर, दिन-रात अभ्यास में जुटे रहने से कहीं बेहतर है….एक ही झटके में पीढ़ियों तक के लिए कमा लेना। बस, पाली ही तो बदलनी है! सब बिकाऊ हैं यहाँ, नेता, अभिनेता, खिलाड़ी, जनता। जो नहीं हैं वे ‘सिस्टम’ को कोसते हुए यूँ ही अपना माथा पटक-पटक गहरे अवसाद में चले जाते हैं पर इन्हें कोई नहीं पूछता। आपके जीवन की क़ीमत होने के लिए आपका बेशक़ीमती होना पहली शर्त है अन्यथा लापरवाही के पुल के नीचे कुचलकर कब दम निकल जाए, कोई नहीं जानता! आपके टूटे हुए घरों और सपनों का यहाँ कोई मोल नहीं! इस अनूठे प्रजातंत्र का यही निरालापन हमें औरों से अलग करता है!
खैर, नकारात्मक लू के थपेड़ों, भ्रष्टाचार के आँधी-तूफ़ान, हिंसक वातावरण से स्वयं को सुरक्षित रख ग्रीष्मकालीन छुट्टियों का परिवार संग आनंद उठाने की कोशिश कीजिए। ये सब तो अब रोज की बात है, जब बदल नहीं सकते तो इसी में जीने की हिम्मत जुटानी ही होगी!
– प्रीति अज्ञात