आलेख/विमर्श
साहित्यकारों की होली
– नीरज कृष्ण
ज़िन्दगी जब सारी खुशियों को स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना माँगती है तब प्रकृति मनुष्य को होली जैसा त्योहार देती है। होली हमारे देश का एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्यौहार है। अध्यात्म का अर्थ है- मनुष्य का ईश्वर से संबंधित होना है या स्वयं का स्वयं के साथ संबंधित होना। इसलिए होली मानव का परमात्मा से एवं स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का पर्व है।
होली जीवन और मृत्यु दोनों के रंग अपने आप में समोए हुए है। जब पंडित छन्नूलाल मिश्र का पक्का कंठ तान छेड़ता है- ‘खेलैं मसाने में होरी दिगंबर, खेलैं मसाने में होरी’, तो साक्षात् विराट शिव समूचे ब्रह्माण्ड में भभूत उड़ाते साकार हो उठते हैं और जब धमार व ठुमरी की तर्ज पर प्रस्तुत की जाने वाली सुंदर बंदिश ‘चलो गुइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर’ की टेक लगती है तो साक्षात् राधा-कृष्ण के प्रेम में पगे जीवनराग गमक उठते हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की तड़प देखिए- ‘गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में, बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में/ गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो, मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में’। महाप्राण निराला इस वातावरण की पवित्र मादकता में खोकर रचते हैं- ‘नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली! जागी रात सेज प्रिय पति संग रति सनेह-रंग घोली, दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हंस खोली- मली मुख-चुम्बन रोली’। हरिवंशराय बच्चन लिखते हैं- ‘होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो, होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो, भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को, होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!’
प्राचीनकाल में ही महाकवि हर्ष ने अपनी ‘प्रियदर्शिका’ व ‘रत्नावली’ तथा कालिदास ने ‘कुमारसंभवम्’ व ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में रंगपर्व मना लिया था। कालिदास रचित ‘ऋतुसंहार’ में तो पूरा एक सर्ग ही वसंतोत्सव को अर्पित है। हिंदी साहित्य के आदिकाल में चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में चौहानकेसरी के होली खेलने का आकर्षक और राजसी वर्णन किया है।
आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, मलिक मुहम्मद जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, पद्माकर, घनानंद आदि अनेक कवि होली के संयोग-वियोग से अछूते नहीं रह पाए। महाकवि सूरदास माहौल बनाते हैं- ‘डफ, बांसुरी, रंजु अरु मउहारि, बाजत ताल ताल मृदंग, अति आनंद मनोहर बानि गावत उठति तरंग।’ मीरा बाई का समर्पण है- ‘रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री, होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री!’ रीतिकालीन महाकवि पद्माकर होली का वितान कुछ इस तरह फैलाते हैं- ‘फाग की मीर अमीरनि ज्यों, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी, माय करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी, छीन पितंबर कम्मर ते, सुबिदा दई मीड़ कपोलन रोरी, नैन नचाय कही मुसकाय, लला फिर आइयो खेलन होरी।’ महाकवि बिहारी कुछ यों बयान करते हैं- ‘पीठि दयैं ही नैंक मुरि, कर घूंघट पटु डारि, भरि गुलाल की मूठि सौं गई मूठि सी मारि।’
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी भारत में रंग-पर्व मनाने का विस्तृत वर्णन किया है। उर्दू साहित्य में दाग़ देहलवी, हातिम, मीर, कुली कुतुबशाह, महजूर, बहादुर शाह ज़फ़र, नज़ीर अकबराबादी, ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’, इंशा और तांबा जैसे कई नामी-गिरामी शायरों ने होली की मस्ती अपनी शायरी में ऊँड़ेली है। जनकवि नज़ीर अकबराबादी की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ‘हिंद के गुलशन में जब आती है होली की बहार/जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार/इक तरफ से रंग पड़ता इक तरफ उड़ता गुलाल/ज़िंदगी की लज़्ज़तें लाती है होली की बहार।’ नज़ीर का ही बखान है- ‘जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की, और डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की, परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की, खुम, शीशे जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की, महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।’
इधर ब्रज प्रसिद्द लठमार की होली का बखान महाकवि रसखान के शब्दों में- ‘फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है/नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है/सांझ सकारे वहै रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है/कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटू बिहिं मान बच्यौ है।’ जनकवि स्वर्गीय कैलाश गौतम की पंक्तियाँ याद आती हैं- ‘बहै फगुनहट उड़ैं धुरंधर, बस भउजी से खुलैं धुरंधर।‘
अस्ल में होली बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्न है, इसी से ज़िंदगी जीने का नया अंदाज़ मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। आनंद और उल्लास के इस सबसे मुखर त्योहार को हमने कहाँ-से-कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है। कभी होली के जंग की हुंकार से जहाँ मन की रंजिश की गाँठें खुलती थीं, दूरियाँ सिमटती थीं, वहाँ आज होली के हुड़दंग, अश्लील हरकतों और गंदे तथा हानिकारक पदार्थों के प्रयोग से भयाक्रांत डरे सहमे लोगों के मन में होली का वास्तविक अर्थ गुम हो रहा है। होली के मोहक रंगों की फुहार से जहाँ प्यार, स्नेह और अपनत्व बिखरता था, आज वहीं खतरनाक केमिकल, गुलाल और नकली रंगों से अनेक बीमारियाँ बढ़ रही हैं और दिलों की दूरियाँ भी।
होली के अवसर पर छेड़खानी, मारपीट, मादक पदार्थों का सेवन, उच्छृंखलता आदि के ज़रिए शालीनता की हदों को पार कर दिया जाता है। आवश्यकता है कि होली के वास्तविक उद्देश्य को आत्मसात किया जाए और उसी के आधार पर इसे मनाया जाए। होली का पर्व भेदभाव को भूलने का संदेश देता है, साथ ही यह मानवीय संबंधों में समरसता का विकास करता है। होली का पर्व शालीनता के साथ मनाते हुए इसके कल्याणकारी संदेश को व्यक्तिगत जीवन में चरितार्थ किया जाए, तभी पर्व का मनाया जाना सार्थक कहलाएगा।
सभी को होली की शुभकामनाएँ।
– नीरज कृष्ण