सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे भवन्तु सुखिनः
इस समय विश्व भर में जो हालात हैं और जिस तरह गोला-बारूद बनाते-बनाते विकास ने हमें मानव-बम तक पहुँचा दिया है, उसे देख ‘शांति’ की बात करना थोड़ा अचरज से तो भर ही देता है! पहले नुकीले पत्थर, भाले इत्यादि का प्रयोग जंगली जानवरों से स्वयं की सुरक्षा हेतु किया जाता था। चाकू-छुरी ने रसोई में मदद की लेकिन फिर आगे बढ़ने की चाहत में मनुष्यों ने इन्हें एक-दूसरे को घोंपने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इससे भी उसे शांति प्राप्त नहीं हुई तो ऐसे अत्याधुनिक हथियारों का निर्माण हुआ, जिससे एक बार में ही कई लोगों को सदा के लिए सुलाया जा सकता है। मानव अब भी ख़ुश नहीं था और स्वयं को सबसे अधिक ताक़तवर सिद्ध करने की ताक में रहने लगा। इसी प्रयास को मूर्त रूप देने के लिए उसने परमाणु बम का निर्माण कर डाला, जहाँ एक ही झटके में शहर और सभ्यता को समाप्त किया जा सकता था और उसने ये किया भी। भय से या फिर ‘हम किसी से कम नहीं’ की तर्ज़ पर धीरे-धीरे सभी देश इस दिशा की ओर बढ़ने लगे और इस तरह मानवता ने अपनी क़ब्र स्वयं ही खोद ली। विनाश की महालीला रचते हुए दो विश्व-युद्ध हुए, जिनकी चर्चा आज भी भयभीत कर देती है। लेकिन इस भय से मानव की विध्वंसक प्रकृति और महत्वाकांक्षाओं पर कोई लगाम नहीं कस सकी और आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं, वहाँ तीसरे विश्व युद्ध की परिकल्पना शांति की चौखट में सेंध लगाने को बेताब नज़र आती है।
इसलिए मात्र शांति की बात कर लेने भर से ही शांति नहीं आ जायेगी। पहले हथियार फेंकने होंगे, विध्वंसक तत्त्वों से दूरी बनानी होगी। ‘इक मैं ही सर्वश्रेष्ठ’ के भ्रम से बाहर निकलना होगा। शांति के इतने ही मसीहा हैं अगर तो सभी देश मिल-जुलकर परमाणु हथियारों से दूरी बनाने का निर्णय क्यों नहीं ले पाते? हर समय हमले की फ़िराक़ में क्यों रहते हैं? इन उपकरणों ने सिर्फ़ मानव और सभ्यता का ही नहीं बल्कि प्रकृति का भी समूल विनाश किया है। ‘विश्व-बंधुत्व’ में यक़ीन है तो किसी को भी अपनी सीमाओं पर सेना क्यों रखनी है? हम एक हाथ में बम लेकर दूसरे से कबूतर कैसे उड़ा सकते हैं?
रही बात मानसिक शांति की! तो यह उतना मुश्किल नहीं! बस इसके लिए मनुष्य को अपने स्वभाव में कुछ मूलभूत परिवर्तन करने की आवश्यकता है। यह मानव की विशेषता रही है कि वह अपने दुःख से कहीं ज़्यादा दूसरे के सुख से व्यथित रहता है। किसी के पास आपसे बड़ा मकान है, बड़ी गाड़ी है, उसके बच्चे अच्छे से सेट हो गए या विवाह अच्छे घरों में हो गया, कोई आपसे ज़्यादा प्रतिभावान है या उसे वह सम्मान मिल गया, जिसके लिए आप स्वयं को बेहतर उम्मीदवार समझते थे, किसी का स्वास्थ्य अच्छा तो कोई आपसे ज़्यादा ख़ूबसूरत/आकर्षक है…. यही सब बातें हैं, जिन्होंने मनुष्य को उलझाए रखा है। यही वह दौर भी है, जहाँ वे लोग दूर-दूर तक नज़र नहीं आते जिन्हें आप अपना माने बैठे थे। वस्तुतः ईर्ष्यालु इंसान स्वयं को बेहतर बनाने से कहीं अधिक दिलचस्पी इस बात को जानने में रखता है कि सामने वाला शख़्स उससे आगे क्यों और कैसे निकल गया! यही चिंता, ईर्ष्या भाव ही तनाव और कभी-कभी अपराध को भी जन्म देते हैं। समय के साथ ये विकृतता व्यवहार और चेहरे पर भी उतर आती है। समाज को इसी मानसिक दुष्चक्र से बाहर निकलना होगा। मानसिक शांति और सुखी जीवन का यही एकमात्र मन्त्र है कि हमारा मन निश्छल हो और हम सब जीवों के प्रति दया-स्नेह भाव रखें; सबके सुख से प्रसन्न हों और दुःख में उनकी पीड़ा महसूस कर सकें।
मदर टेरेसा ने सटीक बात कही थी कि “एक हल्की-सी मुस्कुराहट से ही शांति आ सकती है।” हम शांतिदूत गाँधी जी के देश में रहते हैं और विश्व शांति के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिए गए पंचशील के सिद्धांत भी हमारी ही धरती की उपज हैं। चिंतन और मनन ही हमें अध्यात्म की ओर ले जाता है, जिसके साथ हम स्वयं और घर-परिवार की मानसिक शांति पा सकते हैं। समाज स्वतः ही इस धरा एवं मानव-कल्याण की ओर अग्रसर होगा।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।
सर्वे भद्रणिपश्यन्तु मा कश्चिद्दुःख भाग भवेत्॥
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चलते-चलते: इधर कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय आये हैं, जिन्हें आम जनता के मध्य ठीक से समझा ही नहीं गया है। अतः सही और ग़लत का निर्णय तो आने वाला समय करेगा। यह भी सच है कि सम्मान से जीने और समानता का अधिकार सबको है। स्त्री संपत्ति नहीं, बल्कि साथी है। लेकिन 397 और 477 को जिस हल्के अंदाज़ में प्रस्तुत कर सोशल मीडिया पर उसका उपहास उड़ाया जा रहा है वह न केवल मानव मस्तिष्क के भीतर की विकृत सोच और उच्छृंखल मानसिकता का प्रमाण है बल्कि चिंतनीय भी है।
जहाँ कुछ लोगों ने इसे भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर कुठाराघात की तरह माना है तो कई इसके आने से प्रसन्न भी हैं। परिणाम कुछ भी हो पर इतना तो तय है कि पूरब और पश्चिम का मूलभूत अन्तर अब समाप्ति की ओर है तथा जिस सभ्यता और संस्कृति की दुहाई दे, सुनहरे गीत बना करते थे, तारीफ़ के क़सीदे काढ़े जाते थे….उस पर वैश्वीकरण की छाप अब स्पष्ट रूप से नज़र आने लगी है। पर हम चाहें तो पश्चिमी देशों की तरह उदार होने का ढिंढोरा पीट, अपनी पीठ अवश्य थपथपा सकते हैं।
– प्रीति अज्ञात