आलेख/विमर्श
सर्वधर्मसमभाव और गाँधी का रामराज्य: एक विश्लेषण
– डॉ. अलका जैन आराधना
भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में ‘रामराज्य’ को एक सर्वोत्तम एवं आदर्श राज्य के रूप में मान्यता प्राप्त है। महात्मा गाँधी ने आधुनिक युग में एक पूर्ण न्याय युक्त एवं नैतिक राज्य व्यवस्था की स्थापना के उद्देश्य को प्रकट करने के लिए रामराज्य शब्द का प्रतीक रूप में प्रयोग किया है।गाँधी ने इसे ‘अहिंसात्मक समाज’ एवं ‘ग्राम-स्वराज्य’ भी कहा है।
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गाँधी जी ने यह महसूस किया कि इस संघर्ष में सफलता के लिए ग्रामीण भारत में व्यापक जन चेतना जाग्रत करना परम आवश्यक है। इसी उद्देश्य से उन्होंने ऐसी भाषा और ऐसे प्रतीकों को अपनाया जो गाँवों की जनता को आसानी से समझ में आ सके। अपने जन-आंदोलन में गाँधी जी ने खादी और नमक आदि प्रतीकों को इसी उद्देश्य से चुना था। इसी क्रम में उन्होंने अपने आदर्श समाज का प्रतिमान रामराज्य को बताया। रामराज्य को उन्होंने नैतिकता पर आधारित जनसामान्य की प्रभुसत्ता कहकर व्याख्यायित किया। उनके अनुसार, स्वराज्य और रामराज्य एक दूसरे के पर्याय हैं और रामराज्य से तात्पर्य पृथ्वी पर साधुता के साम्राज्य की स्थापना से है।
गाँधी जी के सपनों के रामराज्य में राजा और रंक दोनों के लिए समान अधिकारों की प्रतिभूति है। गाँधी जी का रामराज्य कुछ विशिष्ट मूल्यों का प्रतीक था। गाँधी जी ने राम को ऐतिहासिक पुरुष तथा अनादि ईश्वर दोनों रूपों में देखा। रामचरितमानस के प्रति उनके प्रेम के कारण भी कुछ लोग यह सोचते हैं कि उनके राम अयोध्या नरेश दशरथ से अभिन्न थे क्योंकि रामराज्य का सिद्धांत रामचरितमानस से ही लिया गया है।यह सही है कि बचपन से गाँधी जी को राम नाम की अमोघ शक्ति में विश्वास था, व्यक्तिगत रूप से वे तुलसीदास जी की रामचरितमानस से प्रभावित भी थे लेकिन इसलिए नहीं कि यह ग्रंथ किसी धर्म विशेष के सिद्धांतों का निरूपण करता है बल्कि इसलिए कि वह मानवीय मूल्यों को निरूपित करने वाला अद्वितीय ग्रंथ है। वैसे भी महाभारत और रामायण के पश्चात ऐसा कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया जो युग धर्म का वाहक हो और नियामक शक्ति से परिपूर्ण हो। गाँधी जी ने तुलसी की ‘मानस’ को देवत्व नहीं नरत्व की प्रतिष्ठा करने वाला ग्रंथ माना। गाँधी जी का मानना था कि ‘रामचरितमानस’ के राम ने जनसाधारण की विश्वसनीयता को प्राप्त किया क्योंकि देवता की तुलना में मनुष्य के प्रति मनुष्य का विश्वास अधिक शीघ्रता से फलीभूत होता है। संकटापन्न मनुष्य भी किस प्रकार संयत, मर्यादित व महान आचरण कर सकता है, ऐसा तुलसी के राम को देखकर ज्ञात होता है।तुलसी के राम किसी धर्म विशेष का अंग होने के कारण महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि वे जीवन के विराट व महान मूल्यों के प्रतिनिधि होने के कारण महत्वपूर्ण है। स्वयं गाँधी जी ने कहा है – “मेरे राम, हमारी प्रार्थना के राम, अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र ऐतिहासिक राम नहीं हैं। वे शाश्वत, अजन्मा, अद्वितीय हैं, केवल उन्हीं की मैं पूजा करता हूँ।”
गाँधी जी का रामराज्य आदर्श शासन व्यवस्था व जीवन के उदात्त मूल्यों का प्रतीक है, इसका किसी धर्म विशेष से कोई लेना-देना नहीं है। यह तो सर्वधर्म समभाव की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करता है।गाँधी जी की राय में प्रगति एकमुखी नहीं चहुँमुखी होनी चाहिए। केवल भौतिक सम्पदा को जुटाना ही प्रगति नहीं है। धर्म और नैतिकता के अभाव में मानव और पशु में अंतर करना कठिन हो जाता है और आधुनिक सभ्यता ने यही किया है। किसी भी सभ्यता के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है – आत्मशक्ति का जाग्रत होना। यांत्रिक प्रभुत्व से उत्पन्न जीवन की भ्रामक जटिलता ने ज्ञान और आत्मसंयम को मनुष्य से दूर कर दिया है। अपने रामराज्य संबंधी दर्शन में भी उन्होंने उन्हीं विचारों को स्थान दिया जिन पर स्वयं उन्होंने अमल किया। उन्होंने माना कि रामराज्य या अहिंसक राज्य की स्थापना द्वारा समस्त विसंगतियों को दूर किया जा सकता है। यह कार्य समाज व विश्व में अहिंसा को लागू करके ही किया जा सकता है। वास्तविक उन्नति शांति में निहित है। शांति की यह प्रक्रिया मानव – मूल्यों से युक्त धर्म से जुड़ी है। वे धार्मिक पुरुष थे, उन्होंने सभी धर्मों की एकता तथा धार्मिक सहिष्णुता पर बल दिया। उनका रामराज्य भी सर्व धर्मसमभाव का प्रतीक था।
गाँधी ने सत्य और अहिंसा को आत्मसात करते हुए प्रेम और सेवा के माध्यम से सर्वधर्म समन्वय के उदात्त आदर्श को यथार्थ की भूमि पर क्रियान्वित करके धर्म का एक ऐसा व्यापक रूप प्रस्तुत किया जो सांप्रदायिकता व संकीर्णता की कल्पना से सर्वथा मुक्त है। गाँधी का सम्पूर्ण दर्शन आध्यात्मवाद से जुड़ा है। एक धार्मिक नेता होते हुए भी गाँधी धार्मिक रूढ़िवादिता और धर्मांधता के समर्थक नहीं थे, धर्म के संबंध में उनका दृष्टिकोण लौकिक और मानवतावादी था। गाँधी जी का मानना था कि रामराज्य में धर्म समाज को एकता के सूत्र में बांधेगा। उनके धर्म का स्वरूप इतना पावन है कि उसमें संकीर्णता, भेदभाव और घृणा का कोई स्थान नहीं होता। यह पारस्परिक सम्मान और सद्भाव का प्रतीक है, इसीलिए आज प्रासंगिक है।
– डॉ. अलका जैन आराधना