यात्रा-वृत्तान्त
सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान व टाइगर रिजर्व
आजकल की भागदौड भरी जिंदगी में जब कभी सुकून भरे पल मिलते हैं थम कर जिन्द़गी की खूबसूरती महसूसने को तो मेरे जैसा घुमक्कड़ इंसान प्रकृति के सानिध्य में ज्यादा रहना पसंद करता होगा ठीक वैसे , जैसे कि मैं ।
यात्राओं के सिलसिले में आज जिसका उल्लेख करने जा रही हूँ वो यायावरी ठहरी,,बस मुढ़ियल सा एक आकस्मिक प्लान ।
यूँ तो राजस्थान अपने हवेलियों,किलों,बावडियों, रेगिस्तान, बबंडरों ,पहनावे और खाने ,लोकनृत्यों, लोकगीतों और रज़वाडे व राजपूताना शान की कहानियों व किस्सों से पहचाना जाता है ।
राजस्थानी धरती अपने सौंदर्य में वन्यजीवन के विभिन्न स्वरूपों को भी संजोये हुये है। मीलों तक रेतीले टीले,कँटीली झाड़ियाँ, नागफ़नी – कटेरी के सपाट जंगल,चट्टानें और बीहड़ से लेकर उपजाऊ हरी भरी जमीन और हरे-भरे जंगल भी समाहित किये हुये है ।
इतनी विविधताओं में जीवों व ख़गों और वन्य प्राणियों का भी शुमार है । और इन्हें संरक्षित करने हेतु यहाँ दो नेशनल पार्क और एक दर्जन से अधिक अभयारण्य तथा दो संरक्षित क्षेत्र हैं।
पुरानी अरावली पर्वतमाला के सूखे जंगलों में “सरिस्का नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व” स्थित है….सरिस्का बाघ अभयारण्य” भारत में सब से प्रसिद्ध पर्यटन राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है।अलवर राजपरिवार का शिकार स्थल माना जाने वाला यह इलाका 1955 में इसे वन्यजीव आरक्षित इलाका घोषित कर दिया गया था।
तथा 1978 में बाघ परियोजना योजना रिजर्व का दर्जा दिया गया। इस बाघ अभयारण्य में बाघ, चीता, तेंदुआ, जंगली बिल्ली, खरगोश,लंगूर-बंदर,कैरकल, धारीदार बिज्जू, सियार स्वर्ण, चीतल, साभर, नीलगाय, चिंकारा, चार सींग शामिल ‘मृग चौसिंघा’, जंगली सुअर, विभिन्न पक्षी प्रजातियों और सरीसृपों रूप दिख जायेंगे ।
यहाँ से बाघों की आबादी 2005 में गायब हो गयी थी लेकिन बाघ पुनर्वास कार्यक्रम 2008 में शुरू करने के बाद् अब यहाँ पाँच बाघ हो गये थे। जुलाई 2014 में बाघों की संख्या 11 हो गयी,जिसमें 9 वयस्क और 2 शावक शामिल थे ।
मेरी यात्रा गुड़गांव से शुरू होती है ,,N.H- 8 पर गुड़गांव से जयपुर की तरफ बढ़ते अलवर रोड़ से बाँये मुड जाने पर सीधे सरिस्का नेशनल पार्क पहुँच जाते हैं….गुडगांव से 170 किलोमीटर (राजधानी दिल्ली से लगभग 200 किलोमीटर) टाप के साढे तीन घंटे में पहुँचा जा सकता है । यहाँ ये मेरा दूसरा चक्कर है ।
एक लंबा वीकेंड और मौसम भी मनोहरी तो बस उठा गाडी निकल पड़े गंतव्य को । हल्की फुहारों के बाद चारों ओर की हरियाली मन को ऐसे लग रही थी मानो कोई प्रेमिका प्रेमी के आने पर सुकोमली होकर लजा रही हो । गाड़ी लहराती ,घूमती पहाडीदार सड़क पर कैटवॉक कर रही थी । प्रवेश पर सबसे पहले एक विशाल शीशम के पेड़ पर बंदरों का ढ़ेर उछलकूद करता हुआ मिला । बारिश के कारण शीशम के नीचे खड्डे में लबालब मटियाला पानी भरा था ।
थोड़ा सा आगे किनारे लेकर गाड़ी रोकी गयी और वो नज़ारा देखा कि – हँसते हुये लोटपोट हो ये ….सभी बंदर बा-कायदा एक-एक कर पेड की ऊँची शाख पर चढ़ते और वहाँ से डाइविंग सीधी खड्डे के पानी में …हँसी थम नहीं रही थी मुँह से निकला ‘ जय हो प्यारे नटखट पूर्वजों’ ।
थोड़ा भीतर बढ़ते-बढ़ते सड़क से रास्ता पार करती एक बहुत छोटी सी लोमड़ी मिली । नेवले भी उछलते कूदते । सड़क के दोनों तरफ जंगल में भरे पानी में साँभरों की पूल पार्टी चल रही थी रुक के बहुत सी फोटोग्राफी की विदआउट परमीशन हा- हा ।
एक तरफ नीलगाय तीन चार या शायद ज्यादा…,,जंगल की अपनी पगडण्डी पर चहलकदमी में लगी थीं,इन्हें बहुत ही करीब से देखा एक तो रुक कर ऐसे खड़ी हो गयी जैसे मुआयना कर रही हो कि कौन आया है उनके इलाके में ख़लल डालने ! उस समय थोड़ा डर भी लगा ,,,पर जंगली जानवर भी हिंसक तब तक नहीं होते कि जब तक हम उन्हें नुकसान न पहुँचाये …स्लेटी/नीली सी रंगत देख…गुलज़ार बाबा की नज़्म याद में तैर गयी ‘ उसने नीलगाय का टैटू गुंदवाया था कंधे पर’ ।
बहुत से मोर जोडे अधखुले पंखों में मानो कह रहे अपनी प्रियतमा से कि – ‘हे प्रिये मेघ जब पुनः मेघराग गायेंगे और भिगोयेंगे तन हमारे तब हम प्रणय में तल्लीन हो भूल कर दुनियादारी नाचेंगे झूम के ,,,तब तक तुम इंतज़ार करो ‘ ।
ख़ैर ये तो प्रीतिगिरी ठहरी आपको एक खास बात बता दूँ कि सरिस्का के जंगल में बहुत से मंदिरों के अवशेष भी हैं और यहीं पर ऐतिहासिक “कनकवाड़ी किला” मौजूद है जहाँ कभी सम्राट औरंगजेब ने अपने भाई दाराशिकोह को कैद करके रखा था। फोटोग्राफी के शौकीन लोगों के लिये ये एकदम परफेक्ट ज़ोन है…आपको पूरा सिरिस्का रेंज दिखाई देगा ।
काफी भीतर एक राजमहल कनवर्टेड होटल में मिलेगा आपको जिसे अलवर के राजपरिवार ने बनवाया था ,,,कहते हैं एक समय सरिस्का अलवर के राजपरिवार का शिकारगाह था। इस महलनुमा होटल से कई छोटे जलाशय और वन्य प्राणियों और जीवों को देखा जा सकता है और उनकी तस्वीरें खींची जा सकती हैं। अगर आप रुकें तो स्लीपिंग बैग और कुछ खाने-पीने का सामान साथ जरूर रखें ।
“आप यहाँ शेरों के दाँत साफ करने वाली चिड़िया को हाथ फैलाकर हथेली पर इत्मीनान से बिठा सकते हैं ” बिना ड़रे ।
सेंक्चुरी के किनारे पर आपको झील मिलेगी …जहाँ काफी संख्या में मगरमच्छ भी हैं ।वीकेंड की छुट्टियों के लिये खूबसूरत और वर्थी जगह है ।
एक ख़ास बात ये भी कि जिनको पक्षियों को जानने,देखने,समझने और उनके फोटोशूट का शौक है वो दूरबीन ले जाना न भूलें ….इंट्रीपास या परमिट के संग आपको इलैक्ट्रोनिक गेजेट्स के लिये थोड़ी रकम देनी होगी …वहीं इंटरैंस पर ही ।
बॉटनी यानि वनस्पति विज्ञान मेरा सबसे पसंदीदा विषय रहा और यही कारण है पेड़-पौधों से मेरे विशेष लगाव का । कभी-कभी अति कर देती हूँ तो सुनने मिल जाता है कि “माली से शादी कर लेनी थी या किसी फॉरेस्ट ऑफीसर से …ही ही”!
इसी के चलते बता दूँ कि यहाँ के जंगलों में ज्यादातर सत्ता ढोक (Anogeissus pendula) की है।
अन्य पेड़ों में सालार (Boswellia serrata), कड़ाया (Sterculia urens), धाक (Butea monosperma), गोल (Lannea coromandelica), बेर बड़े (Ziziphus mauritiana) और खैर (Acacia catechu),बरगड (Ficus benghalensis), अर्जुन (Terminalia arjuna), गुग्गुल (Commiphora wightii) या बाँस (बैम्बूसा ऑफीसिनेलिस) बहुतायत में हैं । झाडी रूप में जो प्रजातियाँ हैं वो …कैर (Capparis decidua), अडुस्टा (Adhatoda vesica) और झर बेर (Ziziphus nummularia).
सरिस्का की महत्ता ‘बाघों ‘ की वज़ह से है ये सब जानते हैं ।
मगर एक और ऐतिहासिक महत्व मैं समेट सकी हूँ वो है यहाँ काफी अंदर पहाडी पर “मनकामेश्वर हनुमान मंदिर” ….यह मंदिर महाभारतकालीन है, मुख्य पुजारी ने बताया कि यहाँ अज्ञातवास के दौरान पांडवों व द्रौपदी ने हनुमान जी की शक्ति का आव्हान किया था और कुछ दिन बिताये थे । मान्यता है कि यहाँ मन की मुरादें पूरी होती हैं । सवामनी ही अक्सर चढ़ाया जाता है यहाँ । मेरा मन तो हनुमान की शरण में वैसे ही महो-महो हो जाता है,,,प्रसाद चढ़ाकर आई तब भी एक संतुष्टि बिखरी थी हृदयालय में ।
यही नहीं सिरिस्का के भीतर आपको जीर्णशीर्ण हालत में 6 से 13 वीं शताब्दी पूर्व बना नीलकण्ठ/शिवा नाम का मंदिर अर्थात् मंदिरावशेष मिलेगा । फोटोग्राफी के लिये बेहतर तो हैं ही पर उनका ढाँचा,बनावट आपको उस जमाने में इनकी सुन्दरता और मजबूती का अंदाज़ा भी दे ही देगी ।
मेरी एक पुरानी कहावत यहाँ ठीक बैठती है कि-
‘खण्डहर बता रहे हैं कि इमारत पहले कितनी हसीन थी ।’
वैसे मेरे जैसे खब्बुओं के लिये विशेष बात यह कि- यदि आप यहाँ मंगलवार को पधारें तो मंदिर की सीढियों के बगल की दुकान में बेहद स्वादिष्ट “कढ़ी-कचौड़ी” मिलती है एकदम ताजा ,गर्मागरम। स्वाद भूल न पायेंगे इस सादगीदार सात्विक व्यंजन का ये दावा है ।
एक विशेष नज़ारा भी देखा यहाँ लंगूर और बंदर की जुगलबंदी… दोनों समूहों में साथ बैठे बिना झगडे़ खा पी रहे थे । जबकि इनमें से एक जहाँ रहे वहाँ दूसरा आता ही नहीं।
यहाँ आने को गर्मी कतई उचित नहीं ! वैसे ये सालभर खुला रहता है पर्यटकों के लिये पर…उमस वाली गर्मी में वन्यप्राणी नज़र नहीं आयेंगे दुबके रहते हैं तो । यहाँ पर सितंबर/अक्टूबर से नबंवर और जून का फुहारी बढिया है ।
विशिष्ट :- यहाँ संरक्षित बाघों की गिनती उनके ऊपर उपस्थित रेखाओं के आधार पर की जाती है।ठीक उसी प्रकार जैसे विशाल पेड़ों की उम्र का पता उनके तने में उपस्थित ऊतक रेखाओं से लगाया जाता है …. वैसा ही तरीका बाघों की संख्या के लिये ,,, रेखाओं की बनावट सभी बाघों में अलग- अलग होती है,जो इन्हें एक विशेष पहचान देती है,जैसे हम मनुष्यों में फिंगरप्रिंट ।
कैमरे से स्नैपशॉट लिए जाते है। फिर उनकी गिनती शुरू होती है। शोधकर्ता प्रत्येक स्नैपशॉट मैन्युअल रूप से जाँच करते हैं और फिर बाघों के धारी पैटर्न का विश्लेषण करते हैं, जो फिंगरप्रिंट की तरह अद्वितीय होते हैं।
और अंत में बाघों की संख्या ज्ञात हो जाती है।
अगली सैर आपको रणथम्भौर की कराने ले चलूँगी तब तक आप सब कढी-कचौड़ी का मजा लें ।
रुकने के लिये सरिस्का के भीतर नहीं थोडा बाहर अलवर रोड़ पर ही व्यवस्था इकनोमिक और सही पड़ेगी । अपनी गाड़ी है तो वैल एंड गुड अन्यथा सफ़ारी की सुविधा मिल जायेगी….ज्यादा भीतर को सफ़ारी ही ठीक है….1200 से 1500 तक में,,,पर जरा मोलभाव कर लीजियेगा ,,,काहे से कि अमूमन 2500 तक बोला जायेगा भाव…हाँ लेकिन गाइड भाईसाब को 500 की पत्ती तय है ।गाइड़ खुश तो वनराज के छिक के दर्शन होने ही होने करीब से ।
हवाई माध्यम के द्वारा यहाँ पहुँचने के लिये सबसे करीब जयपुर का सांगानेर एयरपोर्ट है ,वहाँ से सिरिस्का लगभग 110 किलोमीटर पड़ेगा आपको ।
और लोहपथगामिनी अर्थात् रेल द्वारा पहुँचना चाहते हैं तो आप अलवर रेलवेस्टेशन पहुँचिये वहाँ से सिरिस्का लगभग 36 किलोमीटर दूर पड़ेगा ।
चलिये मिलते हैं फिर ब्रेक के बाद ….प्रीत के संग रणथंभौर ।
– प्रीति राघव प्रीत