फिल्म समीक्षा
ख़्वाब देखोगे, तभी तो पूरे होंगे न!
(समीक्षा – सीक्रेट सुपरस्टार)
इन दिनों बॉलीवुड में जहाँ एक ओर पूर्णत: व्यावसायिक मसाला फ़िल्मों या नॉनस्टॉप नॉनसेंस कॉमेडी को सफ़लता मिल रही है वहीं भारतीय सिने-प्रेमी अच्छी फिल्मों की सराहना करने से भी कभी नहीं चूकते. आख़िर एक अच्छी फ़िल्म में होना क्या चाहिए, यह फॉर्मूला अभी तक तय भले ही न हो सका हो पर जहाँ इंसान घटना को स्वयं से जुड़ा हुआ या जीवन में कहीं-न-कहीं महसूसा हुआ पाता है वहाँ उसकी संवेदनाएँ मोम की मानिंद पिघलने लगती हैं.
‘सीक्रेट सुपरस्टार’ की सफलता का सबसे बड़ा राज़ यही है कि इसमें “ड्रीम देखना तो बेसिक होता है” tagline ने तमाम दर्शकों की मन की हलचल और ख़्वाबों को इस एक पंक्ति में समेटकर उनकी भावनाओं की तह तक पहुँचने की शानदार कोशिश की है. पहली नज़र में तो यह फ़िल्म सपनों को देखने और उसके साकार होने की कहानी भर लगती है पर यह उसके अलावा भी कई आवश्यक मुद्दों पर हमें बुरी तरह झकझोर जाती है.
यह फ़िल्म हमारे सामाजिक परिवेश में उपस्थित तमाम बंधनों और पितृसत्तात्मक रवैये से जूझती एक स्त्री नज़मा (मेहर विज) की कहानी भी है. स्त्री, जिसने घरेलू हिंसा और परजीविता को ही अपनी नियति मान लिया है. स्त्री, जिसे इस लोकतांत्रिक देश में व्यक्तिगत निर्णय लेने की कोई स्वतंत्रता नहीं. स्त्री, जिसे अपने हिंसक और उसके मालिक की तरह व्यवहार करने वाले पति के साथ इसलिए रहना पड़ रहा है क्योंकि वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं!
फ़िल्म के कई दृश्य बेहद भावुक बन पड़े हैं. विशेष रूप से इंसिया (ज़ायरा वसीम) के पिता फ़ारुख़ (राज अर्जुन) का उसके गिटार के तारों को निकाल देना और उसी से उसका लैपटॉप बहुमंज़िली इमारत से फिंकवाना..यह सब लड़कियों के सपनों और उम्मीदों को कुचलने की, उनके उड़ान भरने के पहले ही परों को क़तर देने की ओछी मानसिकता को स्पष्ट तौर पर सामने ले आता है. पुरुष-प्रधान समाज में बेटी का पैदा होना कितना बड़ा अपराध माना जाता है इसे भी दादी और इंसिया के बीच हुए संवादों से बख़ूबी निभाया गया है. दादी का मूक दर्शक बन अपनी बहू और पोती पर अत्याचार होते हुए देखना प्रारंभ में जहाँ उनके प्रति वितृष्णा उत्पन्न करता है वहीं अंत में उनका यह कहना कि “हमें कोख़ में ही क्यों नहीं मार देते!” उनकी विवशता की सम्पूर्ण कहानी कह दर्शकों की आँखें नम कर देने और उनकी संवेदनाएँ बटोर पाने में सफ़ल हो जाता है.
‘सीक्रेट सुपरस्टार’ में माँ-बेटी और भाई-बहिन के बीच का स्नेह-बंधन और केयर को बहुत ही ख़ूबसूरती से फ़िल्माया गया है. चाहे वो छोटे भाई गुडडू (कबीर साज़िद) का इंसिया के टूटे लैपटॉप को जोड़ने की मासूम कोशिश हो या फिर इंसिया का उसे प्लेन में विंडो सीट ऑफर करने का भावपूर्ण दृश्य. चिंतन (तीर्थ शर्मा) के साथ उसकी मित्रता भी ख़ुशनुमा अहसास कराती है हालाँकि इस रिश्ते में ‘आई लव यू’ बुलवाने की तुक समझ नहीं आती और रोमांस का छौंक लगाना भी जरुरी नहीं था. पर शायद इनकी दोस्ती के साथ कच्ची उम्र के प्रेम को दर्शाना भी निर्देशक की मंशा रही हो. ख़ैर! तसल्ली की बात यह है कि बात यहीं पर ख़त्म हो गई थी तथा इसमें बेतुके प्रेम-गीत नहीं थे. यह डायलॉग उनकी बॉन्डिंग को मजबूत करता नज़र आया.
मुख्य रूप से यह कहानी इंसिया के माता-पिता के आपसी रिश्तों, पिता के क्रूरतापूर्ण एवं हिंसक व्यवहार और उसके पारिवारिक दुष्प्रभाव पर आधारित है. यक़ीनन ऐसा कई घरों में होता है जहाँ पिता के बाहर जाते ही परिवार के सदस्य राहत महसूस करते हैं. छोटा भाई, दादी और मित्र इस फिल्म की कहानी को आगे खींचने में मदद करते हैं. सभी पात्रों का अभिनय बेहतरीन और उनकी भूमिका विश्वसनीय रही है. आमिर खान का तो कहना ही क्या! वे तो अपने चरित्र को घोलकर पीते ही आये हैं सो इस बार भी उन्होंने आसानी से दर्शकों का दिल जीत ही लिया.
शक्ति कुमार के रूप में उनकी उपस्थिति हास्य का पुट लाती है और उनके चरित्र को दर्शक न्यायसंगत मानते हैं. यद्यपि उनका पात्र थोड़ा लाउड और चीप है पर दर्शकों का भरपूर प्रेम और तालियाँ उनके हिस्से में आई हैं. यही तो आमिर इफ़ेक्ट है. उनसे बेहतर यह भूमिका शायद ही कोई निभा पाता.
जैसा कि होता ही है फ़िल्म का आख़िरी दृश्य ज़बरदस्त बन पड़ा है. जब इंसिया की अम्मी एयरपोर्ट से बाहर आती हैं और उन्हें कहा जाता है कि “एक बार बाहर निकल जाने के बाद आप भीतर प्रवेश नहीं कर सकतीं!” उस पर उनका यह जवाब “इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है!” तालियों के साथ दर्शकों की ख़ूब वाहवाही बटोरता है.
कहने को यह फ़िल्म मुस्लिम पृष्ठभूमि पर आधारित है लेकिन यह सम्पूर्ण भारतीय समाज की सच्चाई को उधेड़कर सामने रखती है इसलिए इंसिया का बुरक़ा हटाकर अपनी पहचान बताना न सिर्फ़ एक विशिष्ट समुदाय को बल्कि हर उस भारतीय स्त्री की ओर इंगित करता है जो खुली हवा में साँस लेना चाहती है, निर्णय लेने की स्वतंत्रता चाहती है, पुरुष के मालिक नहीं; साथी की तरह जीने में विश्वास रखती है, जिसे अपने स्त्री होने पर गर्व है और जो परिवार के हर रिश्ते को अपनी धड़कन की तरह जीती है. जो सपने देखती है और उसे पूरा करने की क्षमता भी रखती है. आख़िर ड्रीम देखना तो बेसिक होता है!
ख़्वाब देखोगे, तभी तो पूरे होंगे न!
दीपावली के तोहफ़े के रूप में मिली इस फिल्म के लिए निर्देशक अद्वैत चन्दन और पूरी टीम बधाई के पात्र हैं!
– प्रीति अज्ञात