रचना समीक्षा
समाज में बदलाव की बयार का झौंका है ‘नेग’: के. डी. चारण
“अरे चाची ऐसे मातमी चेहरा मत बनाओ, खुशियाँ मनाओ कि तुम्हारे घर को जोड़ने वाली बेटी आयी है, जिसके लिए तुम्हें सबकुछ जोड़ना है। अगर बेटा आता तो बाँटना पड़ता। अरे चाची लड़का तो लड़कर अपना हक़ माँगता है, लेकिन लड़की अपना हक़ छोड़कर चली जाती है, जैसे तुम चली आई अपने मायके में सब छोड़कर। समझ रही हो न चाची?”
इस एक वक्तव्य में इतना कुछ मर्म छिपा है कि एक औरत जो अभी तक अपने घर में लड़की पैदा होने के कारण अपनी ही बहू और बेटे को कोस रही थी और नाना प्रकार के उपालम्भ देते हुए सुधीर के वंश की समाप्ति की घोषणा तक कर चुकी होती थी, उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है और वो अपनी पोती को लक्ष्मी कहकर संबोधित करती है। ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के पिछले अंक में प्रकाशित डॉ. लवलेश दत्त की कहानी ‘नेग’ से ही यह वक्तव्य अवतरित किया है, जिसका कथा सूत्र हमें आगाह करता है कि भले ही हम कितने ही खुले विचारों के होने का दावा करते हैं या ताल ठोककर यह कहते हैं कि समाज का फलाना रिवाज़ गलत है या सही है लेकिन जब बात स्वहित पर आ पड़ती है तो हम अपनी ही उन सुधारात्मक बातों से मुकर जाते हैं, जिनकी हम ख़ुद ही पैरवी कर रहे होते हैं। डॉ. दत्त की यह कहानी वैसे तो कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे को मद्देनजर रखते हुए लिखी गयी है लेकिन हमें ये भी सोचने को मजबूर करती है कि एक माँ जो स्त्री होकर भी स्त्री जाति के अस्तित्व को मिटाना चाहती है और यह मानती है कि वंश वृद्धि सिर्फ लड़के के पैदा होने पर ही संभव है, वहीँ दूसरी तरफ एक अन्य माँ है जो स्त्री होकर स्त्री तत्व को बचाये रखना चाहती है लेकिन कहानी तब जाकर अपनी अर्थवत्ता को कई गुणा बढ़ा देती है, जब तीसरी ओर से उस नवजात लड़की के अस्तित्व को बचाने का बीज वो बोते हैं जो खुद न तो पूर्णतः पुरुष है और न ही पूर्णतः स्त्री है बल्कि जिन्हें समाज ने हिजड़ा या नामर्द नाम दिया है।
कहने को भले ही कहानी का पुरुष पात्र सुधीर ही इस कहानी में मर्द पात्र है लेकिन वो ऐसा काम नहीं कर पाता है कि जिससे हम उसे मर्द का दर्जा दें बल्कि एक हिजड़ा वो काम कर जाता है और सुधीर की माँ की बेटियों के जन्म के खिलाफ जो मानसिकता बन जाती है, उसे बदल देता है। सुमन यही सोचकर सुधीर से प्रेम विवाह करती है कि वह खुले विचार का है लेकिन दो बेटियों के पैदा होने के बाद उसे पता चलता है कि उसके विचार भी उसकी सास के विचारों की तरह दकियानुसी हैं, जो बेटियों के जन्म लेने की मुखालिफ़त (विरोध) करते हैं और बेटे के जन्म पर आवभगत करते हैं। यहाँ तक कि सुधीर अपनी तीसरी बेटी की पैदाइश के समय जापा (डिलिवरी) पर लगने वाला खर्च तक सुमन को नहीं देता है, इससे स्पष्ट हो जाता है कि वो किस तरह की मानसिकता रखता है अपनी बेटियों के प्रति।
ये कहानी पढ़ते समय मुझे अनायास ही ऐन फ्रैंक की डायरी याद आ गयी, जिसमें वो लिखती हैं कि इस प्रकृति को बचाये रखने के लिए स्त्रीतत्व ही मुख्य भूमिका निभाता है। ये बात भी सही है इसी कारण तो बड़े-बड़े विद्वानों ने स्त्री को इस दुनिया का सबसे बड़ा रचनाकार माना है, जो मानव जाति की उत्पति में हमकदम है और हम अपने छोटे और अधूरे दकियानुसी विचारों के चलते प्रकृति के इस शाश्वत क्रम को तोड़ने का विचार कर बैठते या उसे अपने हिसाब से चलाने की सोच बैठते हैं और लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मार डालते हैं। कहानी सावचेत करती है कि धीरे-धीरे समाज की मानसिकता बदल रही है और इसी कारण लिंगानुपात में जो भारी गिरावट आई थी वो सुधार की तरफ बढ रही है लेकिन अभी भी इस क्षेत्र में सार्थक और पुष्ट प्रयासों की महती आवश्यकता है।
अभी पिछले दिनों राजस्थान के जैसलमेर के एक गाँव की कहानी अखबारों में पढ़ी होगी, जिसमें सैकड़ों बरसों बाद कोई बारात आई थी, ये तो महज एक उदाहरण है, ऐसे बहुत से गांव मिलेंगे या परिवार मिलेंगे जहाँ बेटी का जन्म लेना अभिशाप माना जाता है। मतलब साफ़ है कि बेटी बचाने की ये बयार चली तो है पर अभी बहुत धीमी है, इसे और ऊर्जा की जरुरत है। कहानी सरल और सीधे शब्दों में लिखी गयी है लेकिन वो अपने कथ्य को मार्मिक ढंग से प्रकट करने में पूर्णतः सफल रही है। संवेदना के उच्च स्तर पर ले जाकर कहानीकार जिस तरह से कहानी का पटाक्षेप करता है, पाठक को यह एहसास होता है कि अचानक से कितना कुछ सार्थक घटित हो गया है जो स्वयं में एक सुखद अनुभूति है।
साफगोई के चलते कहानीकार ने सन्देश देने के लिए आधुनिक कहानियों की तरह ज्यादा घटनाओं का जमावड़ा भी नहीं किया है बल्कि संक्षेप में अपनी बात को रखकर कहानी को सार्थक और सफल बनाया है। ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका परिवार की तरफ से डॉ. लवलेश दत्त जी को बहुत बहुत शुभकामनाएँ कि वे इस तरह की भाव और विचार प्रधान कहानियां लिखकर साहित्य श्री में वृद्धि करते रहें।
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कहानी- नेग
– के.डी. चारण