मूल्यांकन
समाज के दुःख, दर्द और विषमताओं के संग: पानी जैसा रंग
– के. पी. अनमोल
दोहा साहित्य का एक बहुत पुराना छन्द है। सैंकड़ों वर्षों से यह छन्द अलग-अलग युगबोध और भावों को अभिव्यक्त करता आ रहा है। हम बचपन से भक्ति के दोहे, वीर रस के दोहे, नीतिपरक दोहे, श्रृंगार के दोहे पढ़ते-सुनते आ रहे हैं। दोहा लोक-काव्य का अतिप्रसिद्ध छन्द होने की वजह से हर काल में आम-जन की ज़ुबान पर रहा है।
दोहा को मैं ‘सदाबहार छन्द’ मानता हूँ। यह हर दौर में, हर परिस्थिति में अपनी ही मस्ती में फलता-फूलता रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखें तो हर कालखण्ड में अलग-अलग विधाएँ प्रमुख रही हैं लेकिन दोहा हमेशा, हर समय लोकप्रिय रहा। जहाँ हिन्दी के आदि कवि सरहपा की अभिव्यक्ति दोहे के आसपास मानी गयी, वहीँ फिर चाहे भक्तिकाल हो, रीतिकाल हो या चाहे समकाल; दोहा अपने आप को उत्तरोत्तर विकसित करता ही रहा है। यहाँ एक और ध्यान देने वाली बात है कि इसकी होड़ हमेशा अपने आपसे ही रही है।
हमेशा की तरह वर्तमान में भी दोहा अन्य किसी विधा से कोई सीधा मुक़ाबला न करते हुए अपनी लोकप्रियता को बरक़रार रखे हुए है। समकाल का दोहा मौजूदा समय की अनेकानेक विसंगतियों की बेबाक अभिव्यक्ति का माध्यम बन रहा है। समकालीन दोहे पर विस्तार से बात करते हुए वरिष्ठ ग़ज़लकार, दोहाकार और ग़ज़ल आलोचक हरेराम ‘समीप’ कहते हैं- “परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक रूप में बदला है। आध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आम-जन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, पीड़ित है, शोषित है और संघर्षरत है। इस समूह के दोहे अपने नए अन्दाज़ में तीव्र व आक्रामक तेवर लिए हुए हैं। अतः जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है। इसमें आस्वाद का अंतर प्रमुखता से उभरा है। इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिम्बित हो रहा है।”
उपरोक्त कथन समीप जी के नवप्रकाशित दोहा-संग्रह ‘पानी जैसा रंग’ के लेख से उद्धृत है। किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राजस्थान) से हाल ही में प्रकाशित हुए इस संग्रह में ‘संवेदना और यथार्थबोध की ताज़ा फ़स्ल है- आज का दोहा’ लेख सहित समीप जी के 864 दोहे व एक दोहा ग़ज़ल सम्मिलित हैं। ग़ज़ल-लेखन व ग़ज़ल-आलोचना के साथ ही समीप जी दोहा-लेखन के लिए भी बराबर लोकप्रिय और सक्रिय हैं। यह इनका पाँचवा प्रकाशित दोहा संग्रह है। लेखन में हमेशा सार्थकता और समकालीनता के पक्षधर हरेराम ‘समीप’ का यह दोहा संग्रह आम आदमी के जीवन के विविध पहलुओं को अपने भीतर समेटे है। शुरू से आख़िर तक यह किताब सामाजिक सरोकारों से लेस ज़रूरी रचनाओं का एक संग्रहणीय संकलन है।
बेरोज़गारी, भूख, राजनैतिक प्रपंचों और निजी जीवन के संघर्षों से त्रस्त सामान्य आदमी के भावों को अभिव्यक्ति देते इनके सुगढ़ दोहे, वर्तमान की सामाजिक जद्दोजहद का बारीकी से मूल्यांकन करते हैं-
प्रश्नोत्तर चलते रहे, दोनों में चिरकाल।
‘विक्रम’ मेरी ज़िन्दगी, वक़्त हुआ ‘बेताल’।।
यहाँ जीवन और समय को विक्रम और बेताल की उपमाएँ जितनी अद्भुत हैं, उतनी ही प्रभावी ‘वक़्त हुआ बेताल’ में बेताल शब्द की द्विअर्थी व्यवस्था है। समय का गड़बड़ाना ‘बे-ताल’ होकर उसे ‘बेताल’ बनाये जाता है। यह अभिव्यक्ति कौशल चमत्कारिक है।
इतनी बेचैनी बढ़ी, ख़ुद से हूँ हैरान।
तूफां में हूँ या कहीं, मुझमें है तूफान।।
एक तरफ बढ़ते गये, वैभव के बाज़ार।
वहीँ दूसरी ओर है, भूख, ग़रीबी, मार।।
भोजन भी जिस देश में, मिले नहीं भरपेट।
वहाँ लग्ज़री कार के, रोज़ बढ़ रहे रेट।।
सभी योग्य बैठे रहे, मलते अपने हाथ।
एक जुगाडू ले गया, मौक़ा अपने साथ।।
यही रीत है आज की, जमकर दौलत जोड़।
दुनिया के दुख-दर्द को, राम भरोसे छोड़।।
हमारे देश का यह दुर्भाग्य रहा है कि सरकार चाहे किसी की भी रही हो, आम आदमी की कभी नहीं रही। ऐसा राजा जो प्रजा के दुःख-दर्द समझ सके, उसका हित सोच सके; हमारे लिए यह केवल एक चाह ही रही है और यह चाह यथार्थ नहीं हो पायी। ऐसे में समीप जी हर उस आम आदमी के साथ खड़े मिलते हैं, जो बे-मानी उम्मीद बाँधे, टकटकी लगाये है-
ये आये या वो गये, सबने चूसा खून।
कौन गड़रिया छोड़ता, किसी भेड़ पर ऊन।।
किसी हुकूमत से भला, क्यों रक्खी है आस।
सागर जल में क्या कभी, पायी गयी मिठास।।
ऐसे परिदृश्य में जहाँ नफ़रत इंसानियत का गला घोंटने पर तुली हुई है। एक सुनियोजित भीड़ अपना चेहरा न होने का फ़ायदा उठाकर क़ानून की आत्मा से खिलवाड़ कर रही है। विकास के नाम पर झूठे सपने दिखाये जा रहे हैं। वहाँ समीप जी का रचनाकार हम सबको सचेत करता है और इस सबके ख़िलाफ़ एक होकर देश को बचाने का आह्वान करता है-
यह विकास के नाम जो, रचा गया है व्यूह।
जिस दिन समझोगे मियाँ, कांप जायेगी रूह।।
अपने भीतर का ज़हर, बस्ती बीच उड़ेल।
खेल रही हैं वहशतें, यहाँ भयानक खेल।।
कैसी नफ़रत, क्रूरता, कैसा यह आक्रोश।
घायल कर इंसानियत, जो करता जयघोष।।
क्या तुमको मालूम है, मेरे प्यारे राम।
ज़ुल्म आजकल हो रहे, लेकर तेरा नाम।।
फूल जहाँ करते सदा, आपस में सहयोग।
उसी महकते बाग़ को, गुलशन कहते लोग।।
आज़ादी हासिल करने के 70 साल बाद उस समय के सपनों के भारत और वर्तमान भारत में फ़र्क हमारे सामने है। नेता-अफ़सर-व्यापारी नाम के स्वार्थी त्रिशूल ने देश की छाती को छलनी करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी है। इन बीते सालों में यह तिकड़ी मिलकर देश की जितनी दुर्दशा कर सकती थी; की है। आज का समस्त परिदृश्य समीप जी के शब्दों में-
गर्व करें किस पर यहाँ, किस पर करें विमर्श।
आधा है यह इण्डिया, आधा भारतवर्ष।।
आज़ादी की फ़स्ल का, यही अर्थ है शेष।
पुरखों ने खेती करी, संतानों ने ऐश।।
परिभाषा गणतन्त्र की, अब इतनी है शेष।
अपने-अपने ध्वज लिये, खड़े देश में देश।।
पुलिस पकड़कर ले गयी, सिर्फ उसी को साथ।
आग बुझाने में जले, जिसके दोनों हाथ।।
सिर्फ विसंगतियों को उकेरना ही एक रचनाकार का धर्म नहीं है बल्कि ज़रूरी है कि आम-जन को उससे लड़ने, उन्हें दूर करने के रास्ते भी दिखाये। आज के सामाजिक-राजनैतिक ढर्रे की पीठ उखाड़ते इन दोहों के साथ समीप जी इन विषम स्थितियों से बाहर निकलने के लिए उत्साह और उपाय दोनों देते हैं-
यारो जिसके पास है, हिम्मत की पतवार।
वो तिनके पर बैठकर, भी हो जाये पार।।
केवल बातों से नहीं, होते हैं बदलाव।
संघर्षों के दौर में, खाने होंगे घाव।।
ग़लत व्यवस्था से करो, ताक़त से मुठभेड़।
आँधी से जैसे लड़े, एक अकेला पेड़।।
महिलाओं के लिए यह समय लगभग सबसे बुरा समय है। सदियों से तरह-तरह के अत्याचार झेलती आयी औरत; इस पढ़े-लिखे दौर से उम्मीद कर रही थी कि अब शायद उसे उसका हक़, उसकी क़द्र मिले लेकिन बीते समय में गेंगरेप, एसिड अटैक जैसी नयी तरह की समस्याएँ उसके सामने आ खड़ी हुई हैं। ऐसे में एक महिला के जीवन को समीप जी अपनी पैनी नज़रों से बहुत बारीकी से देखते हैं। इन दोहों की संवेदना ख़ुद ही इनका सामर्थ्य है-
खुलकर खिल पाती नहीं, लड़ें समय से ख़ूब।
मजदूरों की बेटियाँ, चट्टानों में दूब।।
हर औरत की ज़िन्दगी, एक बड़ा कोलाज।
इसमें सब मिल जाएँगे, मैं-तुम, देश, समाज।।
नारी जीवन-संगिनी, इस जग का विश्वास।
जाने कब हो पायेगा, हमको यह अहसास।।
जब वे वंचितों के साथ खड़े होते हैं तो उनके साथ अपनी संवेदनाएँ यूँ प्रकट करते हैं-
क्यों रे दुखिया! क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज़।
मुखिया के घर आ गया, पहने नई कमीज़।।
उसके हिस्से की उसे, जो मिल जाये धूप।
पौधा है, जी जाएगा, खिल जाएगा रूप।।
जिसका तेरे लेख में, कहीं नहीं उल्लेख।
वही लिखेगा एक दिन, नए समय का लेख।।
पर्यावरण का असंतुलन पूरे विश्व के लिए एक बेहद चिंता का विषय है। गर्मियों में भयानक गरमाते, बारिश में बाढ़ का शिकार होते, मौसम के असमय परिवर्तन झेलते हम सभी जानते हैं कि यह सब हमारी ही ग़ैरज़िम्मेदारियों का नतीजा है। भले ही इस दिशा में कुछ करने को तैयार न हो रहे हों लेकिन चिंता की एक लकीर तो है ही हमारे ललाटों पर। इसी मुद्दे पर चिंतन करते समीप जी ने भी कुछ दोहे लिखे हैं, इस उम्मीद के साथ कि शायद हम में से कोई इन्हें पढ़कर अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति सचेत हो जाये-
कहीं बाढ़ चढ़ती हुई, कहीं सूखते खेत।
समझ रहे हैं आप ये, कुदरत के संकेत।।
मेघ न थे आकाश में, सिर्फ धुआँ था घोर।
इसीलिए नाचा नहीं, समझदार था मोर।।
बूढ़ा पर्वत देखता, सदियों से चुपचाप।
नदिया की बेचारगी, सागर का संताप।।
जीवन के खुरदरे यथार्थ और समस्याओं को झेलते बेबस इंसान को दो घड़ी सुकून बख्शने वाली कुछेक चीज़ें ही बची हैं अब हमारे बीच। प्रेम उनमें एक अहम नाम है। यह सृष्टि के आरम्भ से इंसान के लिए किसी घने पेड़ की छाँव-सा रहा है। इस संग्रह में भी प्रेमपरक कुछ बेहतरीन दोहे देखने को मिलते हैं-
तुझको मुझसे प्यार है, मुझको तुझसे प्यार।
कहने में इस बात को, उम्र लगा दी यार।।
कैसे महबूबा मरी, फिर कैसे महबूब।
प्रेमकथा कहते हुए, दरिया रोया ख़ूब।।
मिलीं गुमशुदा चिट्ठियाँ, प्रिय की बरसों बाद।
पौधे को फिर मिल गये, सूरज, पानी, खाद।।
जीवन और उसकी जद्दोजहद, समय का निर्मम रूप, देश-समाज की दुर्दशा, नफ़रत और षड्यन्त्रों द्वारा मानवता पर हमले, गिरी हुई राजनीती का माहौल, किसानों की दुर्गति, विस्थापन की मार, टूटते परिवार और रिश्तों का टीस, पर्यावरण की चिंता, महिलाओं के प्रति दूषित सोच, किसान-मजदूर और वंचितों का शोषण जैसी अनेक ज्वलंत मुद्दों पर ज़रूरी रचनाकर्म को अंजाम देता यह संग्रह अपने समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। अपने सोद्देश्य और सार्थक लेखन के माध्यम से हरेराम ‘समीप’ अपनी रचनाधर्मिता का बा-ख़ूबी निर्वहन कर रहे हैं।
पुस्तक से मेरी पसन्द के कुछ दोहे-
छोड़े बच्चे, गाँव, घर, पाया रुपया नाम।
इतनी सस्ती चीज़ के, इतने महँगे दाम।।
यारो सादा ज़िन्दगी, जीना टेढ़ी खीर।
बहुत कठिन है खींचना, सीधी, सरल लकीर।।
दुनिया भर में एक-सी, है इंसानी पीर।
अलग-अलग होती नहीं, आँसू की तासीर।।
फिर निराश मन में जगी, नवजीवन की आस।
चिड़िया रोशनदान पर, फिर से लायी घास।।
जो, जैसा, जब भी मिला, लिया उसी को संग।
यारो मेरे प्यार का, पानी जैसा रंग।।
समीक्ष्य पुस्तक- पानी जैसा रंग
रचनाकार- हरेराम ‘समीप’
विधा- दोहा
प्रकाशन- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राजस्थान)
संस्करण- प्रथम (मई 2019)
पृष्ठ- 120
मूल्य- 195 रूपये
– के. पी. अनमोल