मूल्याँकन
समाज की बुराइयों को उजागर करता व्यंग्य संग्रह: दिमाग वालो सावधान
– सोनिया वर्मा
साहित्य में बहुत-सी विधाएँ हैं, जिसमें रचनाकार अपने मन के भावों को पिरोता है। व्यंग्य साहित्य की वह विधा है, जिसमेँ व्यंग्यकार समाज में फैली समस्याओं पर बात करता है। व्यंग्य अंग्रेज़ी के सटायर शब्द का हिंदी रूपांतर है और इस आधार पर किसी व्यक्ति या समाज की बुराई को सीधे शब्दों में न कहकर उल्टे या टेढ़े शब्दों में व्यक्त किया जाना ही व्यंग्य है। बोलचाल में इसे ताना, बोली या चुटकी भी कहते हैं।
व्यंग्य को आज साहित्य के एक तीखे औजार के तौर पर देखा व महसूस किया जाता है और इसकी मारक शक्ति से कोई भी नकाब ओढ़कर बच नहीं सकता। समाज में व्याप्त विसंगतियों और विकृतियों पर व्यंग्यकार से अधिक चोट भला कौन कर सकता है। व्यंग्यकार की उंगलियाँ हमेशा समाज की नब्ज पर रहती हैं और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में क्या चल रहा है, इसकी एक व्यंग्यकार बराबर टोह लेता रहता है।
धर्मपाल महेंद्र जैन के दूसरे व्यंग्य संग्रह ‘दिमाग वालो सावधान’ का प्रथम संस्करण 2020 में किताबगंज प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इसमें 51 व्यंग्य हैं, जो सामाजिक, राजनीतिक आदि विभिन्न पहलुओं पर अपनी पैनी नज़र रखते हैं। ‘साहित्य की सही रेसिपी’ व्यंग्य में धर्मपाल जैन कुकुरमुत्ते की तरह तेजी से पनप रहे साहित्य की बात कर रहे हैं। ऐसी रचनाएँ, जिसमें न कोई रस है, न नियमों का पालन होता है। साहित्य ऐसा हो कि पाठक पढ़ते ही आनंद विभोर हो जाएँ। जिस रस की रचना हो पाठक का मन उस रस में गोते लगाने लगे। धर्मपाल जैन इस व्यंग्य में बहुत ही गहरी व ज़रूरी बात कह रहे है। उनका मानना है कि साहित्यकार को हलवाई या कुक जैसा होना चाहिए। मेरा मानना है कि साहित्यकार को जौहरी की तरह भी होना चाहिए। देखिए धर्मपाल जैन के शब्दों में-
“साहित्यकारों को हलवाई से अक्ल लेनी चाहिए और पाठक को इतना लालायित कर देना चाहिए कि वह शृंगार रस का कवि देखे तो पाठक की लार टपकने लग जाए।”
“पाठक साहित्य में अलंकार माँगते हैं। अलंकार भले कम हो, आटे में नमक जितना तो हो ही। साहित्य पढ़ो-सुनो तो लगे कि अलंकार का स्वाद आया। साहित्य देखो तो लगे कि कुछ अलंकार देखा।”
मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई व्यंग्य को जीवन की आलोचना करने वाला मानते हुए इसे विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। जीवन के प्रति व्यंग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है, जितनी कि गंभीर रचनाकार की, बल्कि ज़्यादा ही। इसमें खालिस हँसना या खालिस रोना जैसी चीज़ नहीं होती। हरिशंकर परसाई जी के कथन को सही दर्शाता व्यंग्य है ‘इंडियन पपेट शो’। इस व्यंग्य के माध्यम से धर्मपाल जी राजनीति में भाई-भतीजावाद पर कटाक्ष तो कर ही रहे हैं, साथ ही इस बात का भी खुलासा कर रहे हैं कि सभी कैसे अपने उच्च अधिकारी के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली मात्र हैं।
“एंकर- आप विधायकों को कठपुतली बनाते हैं या कठपुतलियों को विधायक।
राजा- एक ही बात है। आप कैसे भी घुमा-फिरा कर पूछो।”
“ये बोलते नहीं हैं, होंठ हिलाते हैं। पर्दे के ऊपर से हाईकमान बोलते हैं और इनके होंठों की डोर खींचते हैं। लोगों को दिखता है कठपुतलियाँ बोल रही हैं।”
धर्मपाल जी राजनीति में हाईकमान की महत्ता को बखूबी समझाने और उनके द्वारा की जा रही हरकतों का पर्दाफाश कर रहें है। ऐसे ही व्यंग्य ‘हर गड्ढे को उसके बाप का नाम दें’ में रोज-रोज हो रहे सड़कों के निर्माण और उसमें बन रहे गड्ढों की समस्या को रखा है। वे करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी वही गड्ढों वाली सड़क क्यूँ आम-जनता के नसीब में है, जैसी समस्याओं पर प्रकाश डालते हैं।
ऐसा नहीं है कि व्यंग्य अचानक जन्मी विधा है। संत साहित्य में भी व्यंग्य का पुट देखने को मिलता है। ‘कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई चुनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांगि दे क्या बहरा हुआ खुदाय’- संत साहित्य में कबीर के दोहे व्यंग्य क्षमता का प्रमाण हैं। व्यंग्य में तहज़ीब का दामन मजबूती से पकड़े रहना जरूरी है। ऐसा ही व्यंग्य है ‘कबीरा खड़ा बजार में’ इस व्यंग्य में धर्मपाल जी वर्तमान बाज़ारवाद की बखिया उधेड़ते नज़र आ रहे हैं। कैसे दुकानदारी को मॉल ने एक झटके में ठप्प कर दिया और बची-खुची कसर ऑनलाइन शॉपिंग ने पूरी कर दी। किस प्रकार ग्राहकों को छूट और कम दाम के प्रलोभन में आम जनता फँसती जा रही है। वे लिखते हैं- ‘फिजूलख़र्ची का आलम यह है कि हम हमारे दिमाग़ का रिमोट, सेल्समैन के हाथ थमा देते हैं। वह हमारी पसंद की प्रशंसा करता है और हम बाग-बाग हो जाते हैं। मन ही मन कह उठते हैं दिल चीज़ क्या है आप जान लीजिए, और हमारा क्रेडिट कार्ड स्वतः अवतरित हो जाता है। इन दिनों, चीज़ की उपयोगिता के बारे में सोचना कंजूसी है। चीज़ में सोशल स्टेटस बढ़ाने का दम होना चाहिए बस।”
एक व्यंग्यकार अपनी क़लम की ताक़त से सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में व्याप्त ढकोसलों, अन्याय, पाखंड और दोहरे चरित्रों की कलई खोलते हुए उन्हें बेनक़ाब करता है। धर्मपाल जी ‘गंगा गूंगी है’ में गंगा की सफाई के पीछे चल रहे राजनीतिक दिखावों की पोल-पट्टी खोल रहें हैं। कैसे कंपनियों की गंदगी गंगा नदी को गंदी कर रही हैं और धर्म-कर्म के नाम पर हर रोज़ गंगा गंदी हो रही है। गंगा को माँ कहते हैं पर इसके रख-रखाव, देख-रेख के तौर-तरीकों पर धारदार प्रहार है यह व्यंग्य। “जनता ने सिर्फ माँगना ही सीखा है, पहले रोटी, कपड़ा और मकान माँगती थी, अब साफ हवा और पानी माँगती है, स्वच्छ सरकार माँगती है। माँगने की भी सीमा होनी चाहिए। हम एक-दो पैसे की छूट पेट्रोल में दे सकते हैं, आपका वोट पाने की लालच में पंद्रह लाख का वादा कर सकते हैं और कितना झूठ बुलवाना चाहते हैं आप।”
अगर करुणा की अंतर्धारा भी व्यंग्य के भीतर रहती है तो व्यंग्य और भी मारक व प्रभावशाली होकर सामने आता है। व्यंग्यकार को समझौतावादी नहीं बल्कि विद्रोही और विचारों से क्रांतिकारी होना चाहिए। व्यंग्य संग्रह का पहला व्यंग्य है ‘दिमाग वालो सावधान’। यही पुस्तक का नाम भी है। इस व्यंग्य में ऐसे लोगों पर प्रकाश डाला गया है, जिनका काम केवल और केवल लोगों का दिमाग चाटना है, मौका कोई भी हो। भिन्न-भिन्न लोग किन-किन तरीकों से लोगों का दिमाग चाटते हैं, बताया गया है। यह धर्मपाल जी की गहरी सोच और हर प्रकार की प्रवृतियों पर पैनी दृष्टि का परिचय देता है। “दिमाग चाटक थोक एवं खेरची दोनों रूपों में लोकप्रिय है। कोई कुर्सीला नेता आए तो लोग भेड़ जैसे दौड़ते हैं, मैदान भीड़मयी हो जाता है, ठसाठस। स्थानीय चाटक आते हैं और अकथित दो शब्दों (गधा है) में चाटक नेता का परिचय देते हैं। उस नेता को उपस्थित भीड़ का दिमाग चाटने आमंत्रित करते हैं। भीड़ स्वीकृति में तालियाँ बजाती है, मानो कह रही है, आ जाओ, हमें चाट कर उपकृत कर दो।”
‘सबकी हो सबरीमाला’ व्यंग्य में स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश न करने के प्रतिबंध पर है। इसमें व्यंग्यकार और भगवान के प्रश्नोत्तर के रूप में बहुत अच्छा व्याख्यान धर्मपाल जी ने पेश किया है।
धर्मपाल जी के व्यंग्य संग्रह को पढ़कर यह समझ आता है कि व्यंग्य लेखन के लिए युगचेतना और युगबोध का स्पष्ट बोध भी ज़रूरी है। व्यंग्य के रूपक और चित्र-विधान अगर आम जनजीवन से लिए हुए हों और भाषा में इतना दम व धार हो कि वह सीधे पाठकों के मर्म को भेदकर उसे मर्माहत और बेचैन कर दे तो व्यंग्य का असर कई गुना बढ़ जाता है। व्यंग्यकार की भाषा की सहजता और जीवंतता पर ही व्यंग्य टिका रहता है और जहाँ भाषा व शिल्प कमज़ोर हुआ नहीं कि व्यंग्य महज सपाट बयानी बनकर रह जाता है। शिल्प की सजगता ही व्यंग्य लेखन की विशेषता है। भाषा में वक्रता के द्वारा व्यंग्यकार शब्दों और विशेषणों का विशिष्ट संयोजन करते हैं। धर्मपाल जी के अधिकतर व्यंग्य बहुत अच्छे बन पड़े हैं। उन्होंने अपनी बात निडरता और बेबाकी से रखी है। व्यंग्यकार समाज का पहरेदार है। व्यंग्यकार को लकीर का फ़क़ीर न होकर नए समय के नए सवालों की गंभीरता से पड़ताल व विवेचन करते हुए सच्चाई को निडरता से सामने लाने वाला होना चाहिए। यह काम जैन जी ने किया है।
कुछ व्यंग्य में विषय का बिखराव महसूस हुआ। ‘दिमाग वालो सावधान’ में अलग-अलग लोगों की चाटक प्रवृति बताने से यह एक लालित्य निबंध-सा प्रतीत हुआ। कुछ शब्द जैसे दिमागजीवी, सेमी लिक्विड, बट्ठर, गिरगिटिया, हश पपीज़ आदि शब्दों का प्रयोग व्यंग्य की रोचकता बढ़ा रहे हैं। आवश्यकता अनुसार कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों का छौंक भी लगा है। पुस्तक का कवर पेज आकर्षक है और छपाई भी अच्छी है, इसके लिए किताबगंज प्रकशन को बहुत बधाई। धर्मपाल जी का व्यंग्य संग्रह पाठकों पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब होगा। ऐसे ही और अधिक रचनाएँ आप लिखते रहें, इस व्यंग्य संग्रह के लिए बहुत शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- दिमाग वालो सावधान
रचनाकार- धर्मपाल महेन्द्र जैन
प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी (राजस्थान)
विधा- व्यंग्य
संस्करण- प्रथम, 2020
पृष्ठ संख्या- 176
मूल्य- ₹250
– सोनिया वर्मा