मूल्याँकन
समय से मुठभेड़ करती ग़ज़लों का संग्रह ‘तेरा होना तलाशूँ’
– रंजना गुप्ता
एक सधे रचनाकार की क़लम जब संत्रासों, विषमताओं और संघर्षों से होकर गुज़रती है तो उसकी चमकीली स्याही से ज़िंदगी अपने आप चमकदार हो उठती है। विनय मिश्र का ग़ज़ल संग्रह ‘तेरा होना तलाशूँ’ भी समीक्षक दृष्टि की पारखी सीमाओं से आगे जाकर रचनात्मकता के नए आयाम तलाश करता दिखाई देता है। प्रश्न यह है कि रचनाकार को इतना सामाजिक, मानवीय, उदार और संवेदनशील मनश्चेता और भविष्यदृष्टा कौन बनाता है? उसकी विहंगम दृष्टि की परिधि असीम कैसे हो जाती है? सम्भवत: उसका सदाशयी होना ही उसे इतना उदारमना बना देता है कि समस्त चेतन अचेतन की पीड़ा उसकी पीड़ा बन जाती है और वह एक मनस्वी ऋषि की भाँति लोक चेतना के विभिन्न आयामों को मंगलमयता से भर देना चाहता है। निरीह जनमानस को सहारा देकर उसे उसके संघर्षों में संबल देना चाहता है। इन प्रयासों में उसे सफलता मिले न मिले लेकिन रचनाकार की साधुता और स्वस्ति कामना लोकोन्मुख साहित्य की साधना में लगी ही रहती है। यही तो रचनाकार की विशिष्ट अंतर्दृष्टि, अंतर्वस्तु या सीधे-सादे शब्दों में कहें तो कारयित्री प्रतिभा है, जो उसे सामान्य जन से अलग करती है।
विनय मिश्र कहते हैं—
लड़ाई हार भी जाऊँ मगर संघर्ष बोलेगा
मेरी ग़ज़लों में गूँगा देश भारतवर्ष बोलेगा
समय की सर्जना आराधना ऐसे नहीं होती
मुखर जब मौन होगा पीर का उत्कर्ष बोलेगा
यह देश और समाज की पीड़ा है, जो विनय मिश्र की ग़ज़लों में हर तरफ दिखाई देती है। आज के दुर्घर्ष समय में अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ बिगुल फूँकना ज़रूरी ही नहीं, अनिवार्य भी है—
मेरी भाषा में भूख का मतलब
सिर्फ़ रोटी नहीं है सपना भी
वो जो सड़कों पर मारे जाते हैं
उनमें होगा ही कोई अपना भी
ग़ज़ल कहने का अपना एक हुनर या सलीक़ा होता है। हाशिए पर पड़ा हुआ आम आदमी वैसे तो हर साहित्यिक विधा का किरदार होता ही है, पर अपनी रूमानियत और अपनी भावप्रवणता के साथ ही बड़े सीधे-सादे लफ़्ज़ों में प्रतिपक्ष और प्रतिरोध को समेटते हुए लोकधर्मिता का निर्वाह विनय मिश्र की ग़ज़लों की एक मानीख़ेज़ विशिष्टता है—
वो रंज़िश में नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नए किरदार में है
घरों में आज सूनापन है केवल
यहाँ रौनक तो बस बाज़ार में है
अतीत और आधुनिकता के यथार्थ और द्वन्द्व से गुजरते हुए बाज़ारवाद और उसके जटिल समीकरणों से उलझना बेहद पीड़ादायक है—
अभी कुछ याद बाक़ी है किसी की
जो दिल में है अभी भी रौशनी-सी
मैं आया हूँ नहाकर आँसुओं में
कहाँ का कुंभ कैसी पूर्णमासी?
मैं कोई बुद्ध थोड़े हूँ न बोलूँ
कहूँगा जब तलक दुनिया है गूँगी
हमारे पास बासी रोटियाँ हैं
कहीं मिल जाए जो धनिए की चटनी
_________________
क्यारियों से केतकी के फूल भी ग़ायब
अब चने सरसों मटर की भी कहाँ बातें?
इक हरेपन की नई उम्मीद तो जागे
जेठ में चल चिट्ठियाँ बरसात की बाँटें
एक गहरा असंतोष, तीखी असहमति, एक वैचारिक विक्षुब्धता और उद्विग्नता उनकी सारी ग़ज़लों में बिखरी पड़ी है। साथ ही मध्यवर्ग, सर्वहारा वर्ग और वैयक्तिक स्तर की बेचैनियों का अक़्स भी विनय मिश्र की ग़ज़लों में अपनी पूरी प्रामाणिकता और दमख़म के साथ उपस्थित है—
आँसुओं का इक समंदर चुप्पियों का एक शोर
इस अकेले में ग़ज़ब की सम्पदा मौजूद है
बर्फ़ होकर रह गई है ज़िंदगी अपनी मगर
अब भी पानी आँख में कुछ गुनगुना मौजूद है
__________________
है बासी रोटियाँ खाने का मौसम
कहाँ है चाँद पर जाने का मौसम?
वसूली का कमाई का हो तेरे
मेरी ख़ातिर तो हरजाने का मौसम
प्रतिपक्ष का सारथी बनकर जीवन समर के मध्य रथ खींचना, विनय मिश्र को बख़ूबी आता है। वे अपनी ग़ज़लों के बहाने से दुनिया भर की तकलीफ़ों और तजुर्बों का बयान करते हैं। बहुत-से मसलों पर उन्होंने बेबाक़ी से बात की है। जनसंघर्ष, सर्वहारावर्ग, बाज़ारवाद, राजनीतिक कुटिलता, अवसरवाद के साथ ही बच रहा अकेलापन, प्रेम की बेचारगी और निर्मम समय की दिनों-दिन बढ़ती दुश्वारियों को उन्होंने बहुत शिद्दत से अपनी ग़ज़लों में रेखांकित किया है—
बढ़ रही बेचैनियों में मुस्कुराना है मुझे
इस नयी बुनियाद पर ही घर उठाना है मुझे
सिर झुकाना दुम हिलाना मेरी फ़ितरत में नहीं
क्या किसी दरबार से रिश्ता निभाना है मुझे?
इस ग़ज़ल संग्रह में बहुत-सी बह्रों का प्रयोग पूरी कुशलता और तकनीकी निर्वाह के साथ किया गया है। बेलौस और मज़बूत कथ्य में रची-बसी ये ग़ज़लें पूरी शिद्दत से अपनी बात कहती हैं। विनय मिश्र की ये एक सौ पाँच ग़ज़लें अपनी ताज़गी और जनधर्मिता से सहृदय पाठक तथा समीक्षक को आकर्षित करेंगी।
ग़ज़ल विधा फ़ारसी व्याकरण पर आधारित एक दोधारी तलवार जैसी काव्य विधा है, जिसकी प्रकृति, भाषा और बनावट सबकुछ हिंदी काव्य के छंदविधान से अलग है। हिंदी में यदि बह्र, क़ाफ़िया रदीफ साधते हैं तो ग़ज़ल की लयता प्रभावित होती है और यदि भाव, संवेदना आदि पर ध्यान देते हैं तो ग़ज़ल का शिल्प प्रभावित होता है लेकिन विनय मिश्र की समृद्ध लेखनी इस दोधारी तलवार की राह पर चलना जानती है। उन्हें इस ग़ज़ल संग्रह के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- तेरा होना तलाशूँ
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- विनय मिश्र
प्रकाशक- शिल्पायन बुक्स, दिल्ली
पृष्ठ- 120
मूल्य- 250/- (सजिल्द), 135/- (अजिल्द)
– रंजना गुप्ता