समय कब और कैसे बीतता जाता है, पता ही नहीं चलता. प्रतिदिन हम कुछ कार्यों को यह कहकर टाल देते हैं कि अभी समय नहीं. पर क्या यही एकमात्र सत्य होता है ? वास्तविकता तो यह है कि वे कार्य या तो हमारी प्राथमिकता सूची का हिस्सा नहीं या फिर उनको करने की हमारी मंशा ही नहीं होती. तो फिर इस सच्चाई को स्वीकार कर, ये बात निस्संकोच कह ही देनी चाहिए. इससे आप स्वयं को दोषी मानकर हुए अपराध-बोध से बच सकते हैं और किसी की नज़रों में गिरने से भी. छोटी-छोटी बातें ही मन में घर कर लेती हैं, कब यह एक गाँठ बनकर रिश्तों को फाँसी दे दे, पता भी नहीं चलता. सच की स्वीकारोक्ति से बेहतर कुछ भी नहीं, सिर्फ़ अपना ही नहीं, कईयों का जीवन संवर जाता है और संबंधों में मधुरता भी बरक़रार रहती है.
खून का रिश्ता, स्वत: ही मिलता है, इसे चुनने की सुविधा नहीं होती. पर आश्चर्यजनक बात है, कि इसमें दुविधा भी नहीं होती. जो है, जैसा है…स्वीकार करना ही होता है. परिवार इसी को तो कहते हैं, जहाँ अलग-अलग सोच, पसंद और प्राथमिकताएँ होते हुए भी सब साथ रहते हैं. यूँ खूब लड़ते-झगड़ते भी हैं, पर मौक़ा आने पर हर बाधा से टकराने को एक हो जाते हैं. कितने भाग्यवान हैं वो लोग, जो अपने परिजनों के साथ हर सुख-दुख साझा करते हैं, परस्पर प्रेम से रहते हैं, एक-दूसरे को समझते और मदद करते हैं, उनके लिए पर्याप्त समय भी देते हैं. वहीं कुछ घरों में सब कुछ होते हुए भी समय का अभाव रहता है, सब अपने-आप में ही व्यस्त. कुछ व्यस्त पहले से ही थे और कुछ ने स्वयं को व्यस्तता की रस्सी से भीतर तक बाँध रखा है. ये परिवार नहीं, एक ‘सामाजिक व्यवस्था’ के तहत निभाए जाने वाले रिश्ते बनकर ही प्रारंभ होते है और उसी अवस्था में दम भी तोड़ देते हैं !
किसी की खुशी उसका चेहरा ही बयाँ कर देता है जहाँ मन की प्रसन्नता शब्दों की ध्वनियों पर थिरक़ती नज़र आती है. तो कहीं होठों पर खनकती हँसी, आँखों की नमी को दम साधे, भीतर ही खींचे रखती है. हृदय से निकलती कितनी ही चीखें अंदर सांय-सांय करती अपनी ही आवाज़ों के शोरोगुल में दबकर रह जाती हैं और फिर दर्द बाहर निकलने का रास्ता तलाशने लगता है. यही जीवन है, इसमें बचपन की बातें हैं, स्कूल-कॉलेज के क़िस्से हैं, कितने खुशनुमा पल हैं, कभी कोई कमी अखरती है तो कभी बहुतायत से मन ऊबने लगता है, कितनी सुंदर यादें हैं, कहीं कोई भूला हुआ, कभी कोई याद आता है….लफ़्ज़ों की बारिशों में हर कोई गुनगुनाता है. जीवन है, तो अहसास है, अहसास है तो प्रेम है, प्रेम में सुखद अनुभूति है और भीषण पीड़ा भी, कभी साथ रहने तो कभी एकांत की चाहत में दिल बेचैन हो उठता है. परन्तु ये दोनों ही स्थितियाँ, चाहने भर से नहीं मिलतीं ! ऐसे में देखें तो रचनाकार, कितना भाग्यवान है कि उसे अपने भावों को, पूरी बेबाकी और ईमानदारी से लिख पाने की स्वतंत्रता है.
उम्मीद को लिखो
खुशी को लिखो
उदासी को लिखो
अभाव को लिखो
जलधार को लिखो
वक़्त की मार को लिखो
प्रेम को लिखो
विरह को लिखो
दिन के चारों
पहर को लिखो
दुनिया में घटते
क़हर को लिखो
समाज के खोखलेपन पर लिखो
झूठी मर्यादाओं पर लिखो
बढ़ते अहंकार पर लिखो
कुंठित, टूटते लोगों पर लिखो
ग़रीब के झोंपड़ो पर लिखो
पर लिखना ज़रूर
क्योंकि तभी कोई समझ सकेगा
कहना ज़रूर
तभी कोई सुन सकेगा
रोना ज़रूर, कि दुःख बह जाता है
हँसना भी है
कि मन खिलखिलाता है
समय सबके पास है
वो भला कहाँ जाता है !
जीवन की आपाधापी में
इक यही तो साथ निभाता है !
कुछ परीक्षाएँ निबट गईं, कुछ अभी बाक़ी हैं ! कहीं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियाँ जोरों पर हैं तो कहीं ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में घूमने की ! सबकी अपनी-अपनी सुनिश्चित योजनाएँ हैं ! बचपन गर्मी की परवाह किए बिना, उन्मुक्त हो दौड़ना चाहता है ! बुज़ुर्ग, बेटे-बेटियों से मिलने की आस में पूरे बरस इन गर्मियों की बाट जोहते हैं ! बच्चों ने अपनी नोटबुक के अंतिम पृष्ठ पर अपनी फ़रमाइशों और शिक़ायतों की लंबी सूची बना ली है, जिन्हें पूरा करने के लिए उनके दादा, दादी, नाना, नानी कबसे लालायित बैठे हैं !
बचपन रहे, रिश्ता रहे, परिवार रहे, दोस्ती रहे, मधुरता रहे, जीवन रहे ! न रहे कहीं तो…बस कोई अफ़सोस ! ध्यान से देखें, आत्मविश्लेषण करें, पुनर्विचार करें….’समय’ की कमी, कहीं भावनाओं का अवरोहण तो नहीं ?
क्योंकि, जब तक हम जीवित हैं समय भी तभी तक हमारे पास है ! हमारे ख़त्म होते ही , समय भी रीत जाएगा ! उसके बाद, कौन देख सका है…! कौन मिल सका है…….! लाख चाहने पर भी, उम्र भर पुकारने पर भी……न तो बीता हुआ समय लौटकर आता है, और न ही इंसान !
– प्रीति अज्ञात