जो दिल कहे
समग्रता में ही खुशियों की सर्वव्यापकता है: विजयानंद विजय
खुशियों का अजस्र, असीमित और अनंत स्रोत है- मन। मन से मन के तार जुड़ते ही रोम-रोम झंकृत हो उठता है, सुरमयी संगीत की रसधार बहने लगती है, पोर-पोर अहसास की अनुभूति से भर जाता है। खुशियां वहाँ से आती हैं, जब प्रिय से मिलने को आकुल प्रियतमा को प्रिय के आने की सूचना मिलती है; जब शिशु माँ को देख दंतहीन मुस्कुराहट बिखेरता है- मचलता है; शाम को पिता को घर आया देख बच्चा “पापा आ गये। पापा आ गये।” कहते हुए पूरा आँगन घूम आता है; जब परदेस बसे बेटे के घर आने पर बूढ़ी माँ की आँखों से नेह बरसता है और उसके होंठ थरथराते हैं; जब किसान अपने खेत में लहलहाती फसल को मस्ती में लहराते देख मुग्ध हो जाता है; जब जिंदगी के इम्तिहान में सफलता पाकर आपकी संतान दौड़कर आकर आपके चरण स्पर्श करती है- सीने से लग जाती है; जब असह्य प्रसव-वेदना के बाद नवप्रसूता अपने शिशु का मासूम, भोला, प्यारा-सा चेहरा देखती है। खुशियां वहाँ से आती हैं, जब मन के सूनेपन में प्रेम का कोई झरना फूटता है।
खुशियां मन के अंदर ही तो होती हैं। बाह्य परिस्थितियां तो माध्यम मात्र हैं- उनके प्रस्फुटन का। खुशियां अवचेतन मन की अनंत गहराईयों में छुपी होती हैं, जो अहसासों की गरमी पा, मन की परतों को चीरकर चेतन पर छा जाती हैं और मनुष्य खुशियों के सागर में डूब जाता है।
खुशियां मेले-बाजारों में नहीं मिलतीं। वो तब मिलती हैं, जब कोई चीज़ हमारे दिल को छू जाती है, हमारी भावनाओं-संवेदनाओं को स्पर्श करती है, आत्मिक आनंद का एहसास कराती हैं। खुशियां स्वतःस्फूर्त हैं।
भौतिक सुख में डूबा मनुष्य खुशी की तलाश में तरह-तरह के सरंजाम जुटाता है। मगर खुशियां तो हमारे आस-पास ही बिखरी हुई हैं। बस, हमें अपने आपसे ऊपर उठकर सोचने, देखने, खोजने, अपने दृष्टिकोण, नजरिए और सोच को बदलने की जरूरत है। खुशियां तो हमारी मुट्ठी में ही हैं- भ्रमरों के गुंजन में, चिड़ियों की चहचहाहट में, कोयल की कूक में, पपीहे की तान में, मंद समीर संग डोलती डालियों में, सरिता की कल-कल धारा में, पेड़ों से छनकर आती सुर्य-रश्मियों में, चंदा की शीतल चांदनी में हैं।
हालांकि रोटी-रोजगार, खेती-किसानी, शिक्षा-प्रतियोगिता की अंतहीन भागदौड़ में हमारे पास खुशियों के पल ढूँढने-पाने, उनका आनंद उठाने के मौके नहीं मिल पाते। अति व्यस्त जीवनशैली ने घर-परिवार में साथ बैठकर भोजन करने, आपसी संवाद बनाए रखने के अवसरों को कम कर दिया है। शहरों-महानगरों में तो बस सुबह नाश्ते की टेबल पर चाय-बिस्कुट-ब्रेड लेते आंशिक संवाद ही हो पाता है- फिर, किसी की स्कूल बस, किसी की ऑफिस की बस, किसी की ड्यूटी छूट रही होती है। गाँव की चौपाल और दालान की बैठकी भी तो विद्वेष और राजनीति की भेंट चढ़ चुकी है। वरना बाबा-दादा के जमाने में हुक्के की गुड़-गुड़ में कितने बैर-वैमनस्य पल भर में मिटा लिए जाते थे। हर घर, हर व्यक्ति एक-दूसरे से पूरी आत्मीयता से जुड़ाव रखता था। आज समय, साधन और परिस्थितियों ने सारा माहौल ही बदल दिया है। सामूहिकता में खुशियों के अवसर सिमटते जा रहे हैं। अब ये व्यक्ति केंद्रित हो गये हैं। हर कोई बस अपने हिस्से की खुशी की तलाश में दौड़ लगा रहा है।
सूचना तकनीकी और वेब टेक्नालाजी के इस दौर में रिश्ते और खुशियां भी तकनीकी/रहस्यमयी हो गई हैं। इसने एक ऐसी आभासी दुनिया बना ली है, जहाँ आज हर कोई अपने हिस्से की खुशियां तलाश रहा है- रास्ते में, माॅल में, रेस्तरां में, बसों में, ट्रेनों में, मेट्रो में- हर जगह, हाथों में टैब-मोबाइल से लैस, कानों में इयरफोन लगाए। समय से पहले बड़ी और परिपक्व होती एक पीढ़ी ने अपने मिथक गढ़ लिए हैं। आज खाते-पीते-सोते हम उसी आभासी दुनिया में अपने-अपने हिस्से की खुशियां तलाशने की जुगत में रहते हैं- बाहरी दुनिया में तो बस हम चल भर रहे होते हैं। आलम यह है कि मेहमान घर पर आते हैं तो दुआ-सलाम के बाद एक-दूसरे का हाल चाल पूछने-जानने की बजाय प्राथमिकता मोबाइल चार्जिंग प्वाइंट खोजने की रह जाती है। भावनाओं-उद्गारों-संवेदनाओं की सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति का भाव क्रमशः लुप्त होता जा रहा है। यह एक अजीब-सा संक्रमण-काल है।
खुशियां चाहिए तो एक-दूसरे से जुड़ें, मन में जमे मैल को प्रेम के साबुन से साफ करें, दिलों के दरम्यान पैदा हो चुके फासलों को मिटाएं, एक-दूसरे के दुःख बांटें, हँसें और हँसाएँ, ‘स्व’ से बाहर निकल समग्रता को स्वीकारें, समग्रता में जिएं, क्योंकि इसी में खुशियों की सर्वव्यापकता है।
– विजयानंद विजय